इतना आसान नहीं है नया गठजोड़!

इतना आसान नहीं है नया गठजोड़!

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महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष चंद्रकांत दादा पाटिल और मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे के बीच हुई ताजा मुलाक़ात ने राज्य में नए सियासी समीकरण को हवा दे दी है। कभी विद्यार्थी संगठन की राजनीति में सक्रिय रहे इन दोनों नेताओं ने अपनी-अपनी तत्कालीन सांगठनिक इकाइयों क्रमशः अखिल भारतीय विद्याथी परिषद व भारतीय विद्यार्थी में खासा प्रतिस्पर्धा के उम्मीद भरे बरस गुजारे हैं। हाल ही में दोनों के बीच हुई मुलाकात के बाद भाजपा-मनसे गठबंधन को लेकर तेज चर्चा चल पड़ी है। हालांकि, शिवसेना के साथ गठबंधन जिस दिन से टूटा था, तभी से भाजपा के मनसे के साथ जाने की चर्चा थी। राज ठाकरे के बहुचर्चित गुजरात दौरे के बाद इस दिशा में प्रबल संभावनाएं भी बनी थीं, लेकिन ये संभावनाएं गठबंधन के धरातल पर नहीं उतर पाईं। 2019 के लोकसभा चुनाव दरमियान राज ठाकरे की ‘ लाव रे तो वीडियो ‘ ( वह वीडियो चलाओ) सुर्खियों में रहा। उन्होंने भारी भीड़ भरी रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जमकर खिंचाई की। हालांकि राज की इन रैलियों में इकट्ठा भीड़ से कांग्रेस और शरद पवार को कोई फायदा तो नहीं हुआ, लेकिन निकट भविष्य में राज ठाकरे के भाजपा के संग चलने की आशाएं जरूर इससे धूमिल हो गईं।

बावजूद इसके सियासी मैदान में असंभव कुछ भी नहीं है, कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके शिवसेना ने यह साबित कर दिया है। इसलिए कोई यह दावा नहीं कर सकता कि मनसे और भाजपा कभी साथ नहीं आ सकते। राज ठाकरे के कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हैं और जब भी कोई कद्दावर भाजपा नेता राज ठाकरे से मिलता है, तो आपसी गठबंधन की चर्चा जोर पकड़ने लगाती है तथा कुछ समय बाद शांत हो जाती है। चंद्रकांत पाटिल और राज ठाकरे के बीच ताजा बैठक के बाद नए सिरे से शुरू हुई चर्चा की पृष्ठभूमि आगामी मनपा चुनावों की है। भाजपा और शिवसेना के बीच कड़ा राजनीतिक संघर्ष छिड़ा हुआ है। भाजपा ने मुंबई मनपा को शिवसेना से छीनने के लिए कमर कस रखी है, क्योंकि उसे पता है कि तोते की जान मनपा के खजाने में अटकी है। यह जंग जीतने के लिए जारी दांव-पेंच में मनसे का लिटमस टेस्ट भी एक हिस्सा हो सकता है। सियासत में दो और दो का उत्तर तीन या पांच भी हो सकता है। अगर भाजपा और मनसे में गठबंधन हुआ, तो फायदे के गणित को ध्यान में रखकर ही होगा। राज ठाकरे महाराष्ट्र में वह लोकप्रिय नेता हैं, जिन्हें शिवसेनाप्रमुख के बाद उद्धव ठाकरे के पार्टी अध्यक्ष बनने के बावजूद बालासाहेब की करिश्माई वक्तृत्व-शैली की विरासत हासिल है। हाथ में केवल एक विधायक होने के बावजूद मराठी जनमानस पर उनका खासा वर्चस्व है। भाजपा में एक ऐसा समूह है, जो मानता है कि उनके इस स्फूर्ति-बल का आगामी मनपा चुनावों में पार्टी को लाभ मिलेगा।

2019 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के पक्ष में भाजपा के खिलाफ जोर लगा देने के बावजूद विधानसभा चुनाव के समीकरणों के तालमेल के वक्त उन्होंने राज ठाकरे को दरकिनार कर दिया। राज्य में सत्ता के गणित को समायोजित करते समय भी शरद पवार को मनसे की याद तक नहीं आई। राज ठाकरे इस बात से वाकिफ हैं कि उद्धव ठाकरे जहां हैं, वहां उन्हें सुई की नोंक जितनी भी जमीन नहीं मिलेगी। लिहाजा, ऐसी हालत में पास नई रिश्तेदारी का विकल्प तलाशना स्वाभाविक ही है। संभावित इस नई रिश्तेदारी में भाजपा की अपेक्षा शिवसेना का गलियारा ज्यादा पड़ने की आशंका है, जो मनसे सहित भाजपा के लिए भी आसान नहीं रहेगा। यदि मनसे ने मनपा चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे तो सर्वाधिक झटका शिवसेना को लगेगा, क्योंकि मनसे और शिवसेना दोनों का प्रभाव क्षेत्र कमोबेश एक जैसा है। चूंकि मनपा चुनाव में भाजपा और शिवसेना के बीच मुकाबला कांटे का है, इसलिए जीत-हार के बीच का अंतर ज्यादा नहीं होगा। मनसे अगर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ती है, तो शिवसेना का सिरदर्द और बढ़ सकता है।

उधर दूसरी तरफ, मनसे के संग गठबंधन की चर्चा से भाजपा के उत्तर भारतीयों में खलबली का माहौल है। वजह इसकी साफ है, कुछ साल पहले कल्याण स्टेशन पर मनसे कार्यकर्ताओं ने रेलवे भर्ती की परीक्षा के लिए आए उत्तर भारतीय उम्मीदवारों की जमकर पिटाई की थी, जिसके गहरे जख्म अब भी उनके मन में हरे हैं। हालांकि, मुंबई समेत आसपास के क्षेत्रों में उत्तर भारतीयों की तादाद बहुतायत है और वह चुनावी नजरिए से निर्णायक मानी जाती है। उत्तरप्रदेश की सीट से संसद के लिए प्रतिनिधित्व वाले प्रधानमंत्री मोदी की वजह से ये वोट भाजपा के पाले में हैं, पर अगर मनसे के साथ गठबंधन होता है, तो भाजपा को ये वोट मिलने की संभावना क्षीण हो जाती है। इससे भी अहम बात यह है कि 2022 में उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा की दृष्टि से ये चुनाव अगले लोकसभा चुनाव के लिए पूर्वाभ्यास की तरह होंगे। यदि मनसे और भाजपा मनपा चुनाव में साथ आते हैं, तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को इसे भाजपा के रिवर्स में मुद्दा बना कर भुनाने का मौका मिला जाएगा और भाजपा के लिए उत्तरप्रदेश का चुनाव मुंबई मनपा चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन, ट्रेनों में यात्रा पर पाबंदी, भ्रष्टाचार, बाढ़पीड़ित मुंबईवासियों की उपेक्षा आदि के कारण मुंबई-ठाणे में माहौल शिवसेना के खिलाफ और भाजपा के पक्ष में है। कार्यकर्ता भी शिवसेना से हिसाब चुकता करने के लिए बेसब्री से चुनाव का इंतजार कर रहे हैं। अब यह लगभग तय है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना एक साथ चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस ‘एकला चलो रे’ का नारा लगा रही है, इसलिए महाविकास आघाड़ी में फूट की तस्वीर साफ नजर आ रही है। ऐसे में अगर भाजपा अपने मतदाताओं को एकजुट बनाए रखकर सही रणनीति के साथ सामने आती है, तो शिवसेना के लिए चुनाव खासा मुश्किल पैदा कर सकता है, हालांकि भाजपा के लिए भी 82 से 114 तक पहुंचना आसान नहीं है, पर नामुमकिन भी नहीं है। लेकिन यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है कि कार्यकर्ताओं के मन में किसी भी तरह के भ्रम की स्थिति न रहे, मनसे से गठबंधन की चर्चा भाजपा को उसी दिशा में ले जा रही है। ज्यादातर भाजपा कार्यकर्ता और समर्थक नहीं चाहते कि यह गठबंधन हो। वे नए गठबंधन का जोखिम अपने गले में ले ढोने को तैयार नहीं। उन का सवाल है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में अपने दम पर सत्ता हासिल करने के बाद भाजपा को महाराष्ट्र जैसे राज्य में सहयोगी की जरूरत क्यों है? लेकिन भाजपा नेतृत्व की इस संबंध में अपनी अलग सोच भी हो सकती है। अगर शिवसेना के साथ 25 साल के गठबंधन के अचानक खत्म होने के बाद भी भाजपा नेतृत्व उसी आत्मघाती राह पर चल रहा है,तो फिर उसके लिए उन्हें शुभकामनाएं देना ही बेहतर है!

-दिनेश कानजी- (लेखक न्यूज डंका के मुख्य संपादक हैं)

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