ठाकरे से मुंह मोड़ेंगे आंबेडकर? 

ठाकरे से मुंह मोड़ेंगे आंबेडकर? 

महाराष्ट्र की राजनीति जितनी पहले सुलझी दिखाई देती थी, अब वह उतनी ही उलझी हुई दिखाई दे रही है। विचारधारा के नाम पर बने राजनीतिक दल केवल जनता के साथ धोखा कर रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना से अलग होकर शिंदे गुट ने सरकार बनाई तो जैसे राजनीति में भूचाल आ गया। शिंदे गुट बार बार कहता रहा कि वह बालासाहेब ठाकरे के विचारों के साथ है। लेकिन जिस तरह से शिंदे गुट को अछूत बनाते हुए उसे गद्दार कहा गया और गालियां दी गई उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है और न ही ऐसे बर्ताव को पसंद किया जा सकता है। सवाल यह है कि शिंदे गुट क्यों अछूत हो गया ? क्या इसलिए कि शिवसेना से अलग होकर आये हैं। या इसलिए कि वे बीजेपी के साथ जाकर सरकार बना लिये। जो गद्दार कहते हैं क्या वे अपने गिरेबां में झांक कर देखे।

इधर कुछ समय से प्रकाश आंबेडकर महाराष्ट्र की राजनीति में खूब हलचल मचाये हुए हैं। लेकिन क्या उनकी मनसा फलीभूत होगी। यह सवाल इसलिए है की, आंबेडकर दोनों तरफ चल रहे हैं।वे अपनी शर्त पर राजनीति करना चाहते हैं। क्या यह संभव है ? उनकी महत्वकांक्षा उड़ान भर रही है। यह महत्वकांक्षा किस अंजाम तक पहुंचेगी, यह भगवान ही बता सकते हैं।

दरअसल, आंबेडकर और सीएम शिंदे की बैठक हुई है। इस बैठक में क्या बात हुई है इस बात को लेकर मीडिया में खूब चर्चा है। इसके अलावा आंबेडकर ने जो बातें कही हैं उन पर सवाल खड़ा हो रहा है। एक तरह से उन्होंने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व पर प्रशन चिन्ह लगा दिया है। उन्होंने कहा कि न जाने ऐसी कौन सी वजह है कि उद्धव ठाकरे ने वंचित बहुजन अघाड़ी के गठबंधन को सार्वजानिक रूप से घोषणा नहीं कर रहे हैं।

उन्होंने कहा कि उद्धव ठाकरे से सीट बंटवारे को लेकर बातचीत हो गई है। बावजूद इसके जिस तरह से उन्होंने हमारे गठबंधन को लेकर खामोश है वह सवालों के घेरे में है। एक तरह से देखा जाए तो आंबेडकर ने उद्धव ठाकरे पर ही सवाल खड़ा किया है। उन्होंने कहा कि जब ठाकरे की शिवसेना और वंचित बहुजन अघाड़ी के साथ गठबंधन हो चुका है तो उसे सार्वजनिक रूप से क्यों नहीं स्वीकार रहे हैं।

क्या ऐसा हो सकता कहा है कि आने वाले समय में आंबेडकर ठाकरे की ओर से मुंह फेर लें ? अगर ऐसा होता है तो कोई नई बात नहीं होगी है। क्योंकि आम्बेडकर अभी से उद्धव ठाकरे में अविश्वास दिखा रहे हैं। तो क्या दोनों दल लंबे समय तक साथ रह सकते हैं ? यह बड़ा सवाल है। ऐसा कहने की वजह यह कि वह उद्धव ठाकरे के रवैया को देखकर ही सीएम शिंदे से मिले है। यानी चित भी मेरी पट भी मेरी।

इतना ही नहीं, महाविकास अघाड़ी पर भी संकट के बादल मडराने लगे हैं। कांग्रेस नेता नाना पटोले भी जब तब अकेले चुनाव लड़ने का दावा करते हैं। ऐसे में आंबेडकर का यह बयान कि  कांग्रेस और एनसीपी ने उनका कीमा बनाया आग में घी का काम करेगा। अगर आम्बेडकर के मुताबिक़ ठाकरे गुट से गठबंधन हो भी जाता है तो इसमें ठाकरे गुट का ही नुकसान होगा। क्योंकि आगामी चुनाव में कांग्रेस और एनसीपी अपने हिस्से से सीट नहीं देने वाले हैं। इतना ही नहीं, सीटों को लेकर भी रार हो सकती है।

इस मामले में बीजेपी ने भी उद्धव ठाकरे पर हमला बोला है। बीजेपी के नेता चंद्रशेखर बावनकुले ने कहा कि ठाकरे अपने विधायकों को नहीं संभाल पाए तो आंबेडकर को क्या संभाल पाएंगे। यह गठबंधन व्यावहारिक अंजाम तक पहुंच नहीं सकता है। गठबंधन हुआ तो चल नहीं सकता। उद्धव ठाकरे गठबंधन नहीं चला सकते। उन्होंने कहा कि महाविकास अघाड़ी के तीनों दल अपने-अपने हित के लिए साथ आए थे। तीनों का मेल अमेल है।

वहीं, लोगों कहना है कि उद्धव ठाकरे को आंबेडकर की जरूरत हो सकती है। क्योंकि शिवसेना अब पूरी तरह से खाली हो गई है। वहां झाड़ पत्ते नए हैं। इसलिए ठाकरे को आंबेडकर को रखने की मज़बूरी है। मगर शिंदे गुट को आंबेडकर की जरूरत नहीं है। शिंदे गुट सत्ता में है और बड़ी पार्टी बीजेपी के साथ है। ऐसे में आम्बेडकर का यह कहना कि शिंदे गुट जब बीजेपी का साथ  छोड़ेगा तभी उनके साथ गठबंधन हो सकता है। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि कांग्रेस और एनसीपी ने उनका खीमा बना दिया था। इसलिए वे महाविकास अघाड़ी में शामिल नहीं होंगे।

आंबेडकर यह बात कहकर खुद हंसी के पात्र बन रहे हैं। आंबेडकर से पूछा जाना चाहिए कि आपकी पार्टी से कितने लोग विधायक और पार्षद हैं। आपका महाराष्ट्र में कितना वजूद है। आपको बताना चाहिए ताकि आपको उसी हिसाब से दूसरे दल सीट ऑफर कर सके। लेकिन  महाराष्ट्र में जिस तरह से दलित राजनीति टुकड़ों में बंटी है। इसके लिए शिवसेना,बीजेपी या कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। बल्कि खुद दलित पार्टियां है जो छोटा छोटा मकान खड़ा कर महल बता रहें हैं।

महाराष्ट्र की दलित राजनीतिक दलों को उस कहानी से सबक लेना चाहिए, जिसमें यह कहा गया है कि एकता में बल है। क्या आंबेडकर  या आठवले इस पर गंभीरता से विचार करेंगे। अगर दलित राजनीतिक दल एकता पर बात करते हैं तो उनका कोई कीमा नहीं बना सकता है। मैं अपनी पिछली वीडियो  ‘इसलिए आंबेडकर नहीं होंगे mva का हिस्सा’ में बताया है कि उत्तर भारत में दलित राजनीति खूब फलीफूली, लेकिन महाराष्ट्र में ऐसा नहीं हो सका। क्योंकि यहां दलित राजनीति बिखरी हुई है। यानी दलितों को लेकर राजनीति करने वाले गुटों में बंटे हुए हैं। इतना ही नहीं सिर्फ पार्टी बनाकर चुप्पी साध लिए हैं।

महाराष्ट्र के राजनीति दलों की नाकामी उस समय देखने को मिली जब  एनसीपी नेता नवाब मलिक एनसीबी के पूर्व अधिकारी समीर वानखेड़े की धज्जियां उड़ा ररहे थे। उस समय इन दलों  ने समीर वानखेड़े के समर्थन में एक शब्द नहीं  बोले। क्यों? इसका आंबेडकर को जवाब देना चाहिए। अगर उनका कोई कीमा बनाया तो उसके लिए  कांग्रेस या एनसीपी ही जिम्मेदार नहीं   हैं ,बल्कि खुद प्रकाश आंबेडकर है भी है। क्योंकि उन्होंने अपना खुद कीमा बनने दिया। अगर समीर वानखेड़े मामले में दलित राजनीतिक दल आगे आये होते तो मामला कुछ और होता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह समय एकजुटता दिखाने का था, लेकिन ये दलित राजनीतिक दल इसमें नाकाम रहे।

कहने का मतलब साफ़ है कि दलित हितैषियों को आपसी रंजिश छोडकार महाराष्ट्र में दलित राजनीति को नया जीवन देना होगा। तभी दलितों की बात रखी जा सकती है, अन्यथा  रोजी रोटी तो चल ही रही है। लेकिन अभी तक जिस तरह की खबर आ रही है उससे साफ़ है कि दलित राजनीति के हितैषी इस ओर से गंभीर नहीं हैं। शिंदे गुट और कवाड़े के गठबंधन से आठवले गुट खुश नहीं है। बहरहाल, आने वाले में समय में महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ और हलचल देखने को मिल सकती है।

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