आतंकियों के बीच से ऐसे निकाले गए भारतीय, पढ़िए पर्दे के पीछे की कहानी

आतंकियों के बीच से ऐसे निकाले गए भारतीय, पढ़िए पर्दे के पीछे की कहानी

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नई दिल्ली। अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद उपजे संकट के बीच वहां भारतीय नागरिकों को निकालना आसान नहीं था ,लेकिन मोदी सरकार की विदेश नीति का ही नतीजा है वहां सभी नागरिकों को सकुशल निकाल लिया गया। हालांकि , भारत ने अपने संपर्कों के जाल को एक बार फिर सक्रिय किया, लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह थी कि आखिर भारतीय नागरिकों एयरपोर्ट तक कैसे पहुंचाया जाए। यही मोदी सरकार ने अपनी शानदार विदेश नीति  उपयोग भारतीयों को निकालने में कामयाबी हासिल की।
पूरे शहर में तालिबानी चौकियां: इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत ने अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और पूर्व उपाध्यक्ष अब्दुल्ला अब्दुल्ला से संपर्क साथा। अब्दुल्ला अशरफ गनी की सरकार में राष्ट्रीय सुलह के लिए उच्च परिषद के अध्यक्ष भी थे। भारतीय राजदूत रुद्रेंद्र टंडन सहित पूरे भारतीय दूतावास को खाली करने का निर्णय गनी सरकार के पतन के तुरंत बाद लिया गया था। काबुल के ग्रीन ज़ोन में रहने वाले सुरक्षा कर्मियों के अपने पोस्टों को छोड़ने के बाद भारत ने यह फैसला किया। तालिबान के सशस्त्र आतंकवादियों ने अफगानिस्तान की राजधानी में अपनी-अपनी चौकियां बना ली थीं। काबुल में तालिबान के अलावा, पाकिस्तान स्थित हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकी संगठन शामिल हैं और जो भारत के खिलाफ विशेष दुश्मनी रखते हैं- के मौजूद होने की सूचना मिली थी। इन्होंने पूरे शहर में अपनी-अपनी चौकियां बना ली थी। इन चौकियों से हवाई अड्डे तक गाड़ी चलाना जोखिम भरा था।
यह थी चुनौती: 16 अगस्त को, दिल्ली से एयर इंडिया की एक उड़ान ने काबुल के लिए उड़ान भरी। हालांकि लैंडिंग में असमर्थ रही। इसके बाद भारत ने हवाई अड्डे के सैन्य पक्ष के माध्यम से दूतावास के अपने नागरिकों सहित अन्य को निकालने के लिए IAF का एक C17 ग्लोबमास्टर विमान भेजा। आपको बता दें कि काबुल एयरपोर्ट अमेरिकी सेना के कंट्रोल में था। विमान भले ही एयरपोर्ट पर लैंड कर गई, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती भारतीयों को सुरक्षित हवाई अड्डे तक पहुंचाने की थी। तालिबान या उससे जुड़े आतंकी संगठन इसमें बाधा नहीं डालें, यह सुनिश्चित करना जरूरी हो गया था।
यारी-दोस्ती आई काम: आपको बता दें कि अमेरिका 12 अगस्त से अपने दूतावास को खाली करने के लिए ब्लैक हॉक हेलीकॉप्टर का उपयोग कर रहा था। कुछ यूरोपीय राजनयिक मिशनों की भी सैन्य विमानों तक पहुंच थी, लेकिन भारतीय मिशन के पास अपने हवाई संसाधन नहीं थे। तालिबान के साथ संचार की कोई लाइन नहीं होने के कारण, भारत को संपर्क स्थापित करने के लिए तीसरे पक्ष के वार्ताकारों पर निर्भर रहना पड़ा।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “हमने उन सभी लोगों से संपर्क किया, जिनका तालिबान के साथ कोई चैनल था।” विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन से बात की। दोनों पक्षों के अधिकारी हवाई अड्डे पर लगातार संपर्क में थे। इसके बाद भारत ने काबुल में कुछ पुराने दोस्तों से बात करने की कोशिश की। उनमें हामिद करजई और अब्दुल्ला भी शामिल थे।
ऐसे मिली कामयाबी: रूस तालिबान को एक आतंकवादी समूह मानता है। हालांकि तालिबान के कब्जे के बाद भी काबुल में अपने राजनयिक मिशन खुले रखे हैं। रूस ने वार्ता के लिए मास्को में मुल्ला बरादर सहित तालिबान प्रतिनिधियों की मेजबानी की है। तालिबान को अमेरिका के बाद अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए प्रेरित भी किया था। काबुल में रूस के राजदूत दिमित्री ज़िरनोव ने तालिबान के साथ अपने देश के दूतावास की सुरक्षा के लिए दो दिन बाद बातचीत की। अफगानिस्तान में मास्को के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव ने एक साक्षात्कार में कहा था कि रूस ने सात वर्षों में तालिबान के साथ संपर्क बनाए थे। इन्हीं संपर्कों के कारण नई दिल्ली ने मास्को से अपनी ओर से लाभ उठाने का आह्वान किया। करजई मुल्ला बरादार को करीब से जानते हैं।
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