बेंगलुरु। कर्नाटक हाई कोर्ट ने निकाह को एक कॉन्ट्रैक्ट बताया है। जिसके कई अर्थ हैं। जबकि यह हिन्दू विवाह की तरह कोई संस्कार नहीं है इसके टूटने से उत्पन्न अधिकारों और दायित्वों से पीछे नहीं हटा जा सकता है। कोर्ट ने यह टिप्पणी एक याचिका पर की है।
एजाजुर रहमान ने अपनी पत्नी सायरा बानो को पांच हजार रुपए के ‘मेहर’ के साथ विवाह करने के कुछ महीने बाद ही ‘तलाक’ शब्द कहकर 25 नवंबर, 1991 को तलाक दे दिया था। इस तलाक के बाद रहमान ने दूसरी शादी की, जिससे वह एक बच्चे का पिता बन गया। बानो ने इसके बाद गुजारा भत्ता लेने के लिए 24 अगस्त, 2002 में एक दीवानी मुकदमा दाखिल किया था। पारिवारिक अदालत ने आदेश दिया था कि वादी यानी महिला वाद की तारीख से अपनी मृत्यु तक या अपना पुनर्विवाह होने तक या प्रतिवादी की मृत्यु तक 3,000 रुपये की दर से मासिक गुजारा भत्ते की हकदार है। न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित ने 25,000 रुपए के जुर्माने के साथ शख्स की याचिका खारिज करते हुए सात अक्टूबर को अपने आदेश में कहा, ‘निकाह एक अनुबंध है जिसके कई अर्थ हैं, यह हिंदू विवाह की तरह एक संस्कार नहीं है। यह बात सच है।’
न्यायमूर्ति दीक्षित ने विस्तार से कहा कि मुस्लिम निकाह कोई संस्कार नहीं है और यह इसके समाप्त होने के बाद पैदा हुए कुछ दायित्वों एवं अधिकारों से भाग नहीं सकता। पीठ ने कहा, ”तलाक के जरिए विवाह बंधन टूट जाने के बाद भी दरअसल पक्षकारों के सभी दायित्वों एवं कर्तव्य पूरी तरह समाप्त नहीं होते हैं।” कोर्ट ने कहा कि मुसलमानों में एक अनुबंध के साथ निकाह होता है और यह अंतत: वह स्थिति प्राप्त कर लेता है, जो आमतौर पर अन्य समुदायों में होती है। अदालत ने कहा, ”यही स्थिति कुछ न्यायोचित दायित्वों को जन्म देती है। वे अनुबंध से पैदा हुए दायित्व हैं।” अदालत ने कहा कि कानून के तहत नए दायित्व भी उत्पन्न हो सकते हैं। उनमें से एक दायित्व व्यक्ति का अपनी पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता देने का परिस्थितिजन्य कर्तव्य है जो तलाक के कारण अपना भरण-पोषण करने में अक्षम हो गई है। न्यायमूर्ति दीक्षित ने कुरान में सूरह अल बकराह की आयतों का हवाला देते हुए कहा कि अपनी बेसहारा पूर्व पत्नी को गुजारा-भत्ता देना एक सच्चे मुसलमान का नैतिक और धार्मिक कर्तव्य है।