‘मृत्युंजय’ केवल एक उपन्यास नहीं बल्कि अनुभूति है। इसकी शैली आत्मकथात्मक होते हुए भी अत्यंत साहित्यिक और दार्शनिक है। लेखक ने पौराणिक चरित्र को इतना सजीव किया है कि पाठक केवल कर्ण को नहीं, खुद को भी पढ़ता है। अपनी जीवन यात्रा को अनफोल्ड होते देखता है। अपने संघर्षों और अपने सपनों को पलते हुए देखता है।
शिवाजी सावंत ने इस रचना के माध्यम से कर्ण को जो मान दिया, वह भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर है। ‘मृत्युंजय’ हर उस व्यक्ति की कहानी है जो नियति के खिलाफ लड़ता है – और अंततः अमर हो जाता है। आखिर इसे गढ़ने का ख्याल कैसे आया?
सावंत के लिए ये एक ट्रिगर था, फिर उन्होंने जो किया उसके लिए साहित्य जगत उनका ऋणी है। आगे लिखा, “और फिर एक दिन जब मैं नित्य स्नान और पूजा-संस्कार कर रहा था, मैंने मंत्रोच्चारण करते हुए— “ओम भूर्भुवः स्वः…” — मन में एक अकल्पनीय ऊष्मा अनुभव की।
इस लिखाड़ ने अपनी कहानी को मूर्त रूप दिया। ठान लिया: कौरव‑पांडवों के इस पावन कुर्विक्रम भूमि—कुरुक्षेत्र की आत्मा को महसूस किए बिना यह कृति निहायत अधूरी है। तब मैंने छुट्टी ली, एक कैमरा लिया, और अकेले कोल्हापुर से निकल पड़ा कुरुक्षेत्र की ओर—उस भूमि पर चलने, देखने, महसूस करने, और फिर लिखने के लिए। यह मेरी यात्रा लेखन का आरंभ था।
एक बाल मन पर अच्छी कृति का क्या प्रभाव पड़ता है इसका साक्षात उदाहरण शिवाजी सावंत हैं। 7वीं-8वीं में पढ़ते हुए ही इन्हें केदारनाथ मिश्र के ‘कर्ण’ से सहानुभूति हुई और फिर इस प्रेम ने भारत का साक्षात्कार ‘मृत्युंजयकार’ से कराया। ऐसी कृति जो बरसों बाद भी पाठकों के मन को उद्वेलित करती है।
मराठी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार शिवाजी सावंत ने कालजयी रचनाओं से साहित्य जगत को समृद्ध किया। उनका जन्म 31 अगस्त 1940 को हुआ था और पूरा नाम शिवाजी गोविंद राज सावंत था। 18 सितंबर 2002 को आखिरी सांस ली लेकिन अपने पात्रों को हमेशा के लिए अमर कर दिया।
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