हिंदू धर्म में समर्पण, दान और ऋतु परिवर्तन के प्रतीक पर्व सतुआ संक्रांति का विशेष महत्व है। इसे सतुआन भी कहा जाता है। इस दिन श्रद्धालु सत्तू, जल से भरा घड़ा, पंखा, गुड़, और मौसमी फल जैसे बेल, तरबूज, खरबूज और कच्चा आम दान कर देवताओं को प्रसन्न करते हैं और पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
पौराणिक मान्यता है कि जब भगवान विष्णु ने राजा बलि को परास्त किया था, तब उन्होंने सबसे पहले सत्तू का सेवन किया था। इसी कारण इस दिन सत्तू खाना और उसका दान करना अत्यंत शुभ माना जाता है।
काशी के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य और वैदिक कर्मकांडी पं. रत्नेश त्रिपाठी ने मीडिया को बताया, “यह पर्व सूर्य के राशि परिवर्तन से जुड़ा है। आज सूर्य देव मीन राशि से निकलकर मेष राशि में प्रवेश करते हैं। इसे मेष संक्रांति भी कहा जाता है। श्रद्धालु इस अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और सूर्य देव की उपासना कर पूजा-पाठ करते हैं। इसके पश्चात सत्तू, जलयुक्त कलश, मौसमी फल और गुड़ आदि का दान करते हैं।”
उन्होंने बताया कि इस दिन विशेष रूप से जल से भरा घड़ा दान करना पितरों की तृप्ति का प्रतीक है, जबकि सत्तू का दान करने से देवता प्रसन्न होते हैं और व्यक्ति के पापों का क्षय होता है। उन्होंने यह भी कहा कि “जिनकी कुंडली में चंद्रमा निर्बल होता है, वे यदि आज जल का घड़ा दान करें तो चंद्रमा की स्थिति मजबूत होती है।”
पं. त्रिपाठी ने बताया कि आज ही के दिन खरमास का समापन होता है और इसके साथ ही विवाह, उपनयन संस्कार, गृह प्रवेश जैसे सभी शुभ कार्यों की शुरुआत हो जाती है। इसलिए यह दिन धार्मिक और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी सत्तू का महत्व
धार्मिक महत्व के अलावा सत्तू का सेवन गर्मी में स्वास्थ्यवर्धक भी माना गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार, सत्तू फाइबर और ऊर्जा से भरपूर होता है। इसका शरबत न केवल शरीर को ठंडक देता है बल्कि पाचन तंत्र को भी मजबूत करता है। गर्मियों में लू से बचाव के लिए घर से निकलने से पहले सत्तू पीना बेहद लाभकारी माना जाता है।
इस प्रकार, सतुआ संक्रांति न केवल आध्यात्मिक लाभ प्रदान करता है, बल्कि यह हमारे पर्यावरण, स्वास्थ्य और पारिवारिक परंपराओं को भी मजबूत करता है। देव, पितर और प्रकृति — तीनों को संतुष्ट करने वाला यह पर्व भारतीय संस्कृति की समृद्ध परंपरा का जीवंत प्रतीक है।