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वैश्विक चिप निर्माण की दौड़ में भारत को कहां तक ले जाएगी स्वदेशी ‘विक्रम 3201’ चिप?

भारत के लिए क्या मायने?

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भारत ने मंगलवार (2 सितंबर) को सेमिकोंन इंडिया 2025 सम्मेलन में अपना पहला पूरी तरह स्वदेशी 32-बिट माइक्रोप्रोसेसर ‘विक्रम 3201’ पेश किया। इसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने खास तौर पर अंतरिक्ष अभियानों के लिए डिज़ाइन किया है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद रहे और माइक्रोप्रोसेसर को डिजीटल डायमंड बताते हुए उनकी अहमियत पर ज़ोर दिया। ऐसे में यह जानना जरुरी है की भारत की यह माइक्रोप्रोसेसर चिप भारत को वैश्विक दौड़ में कहां खड़ा करती है।

क्या है विक्रम 3201?

‘विक्रम 3201’ का डिज़ाइन इसे अंतरिक्ष अभियानों के लिए खास बनाता है। यह 180 nm CMOS प्रोसेस नोड पर निर्मित है और 100 MHz तक की क्लॉक स्पीड पर 3.3 वोल्ट सप्लाई से काम करता है। इसमें ISRO का खुद का कस्टम इंस्ट्रक्शन सेट आर्किटेक्चर (ISA) शामिल है, जिसमें लगभग 152 इंस्ट्रक्शन और 32 रजिस्टर हैं। यह चिप फ्लोटिंग-पॉइंट यूनिट (FPU) के साथ आती है और Ada प्रोग्रामिंग भाषा के लिए इन-हाउस टूलचेन (कंपाइलर, असेंबलर/लिंकर, सिम्युलेटर और IDE) सपोर्ट करती है। एक C कंपाइलर भी विकासाधीन है। इसमें 32-बिट एड्रेस स्पेस (4GB) की मेमोरी एड्रेसिंग क्षमता है और डुअल MIL-STD-1553B बस इंटरफेस के ज़रिए लॉन्च व्हीकल्स के लिए महत्वपूर्ण ऑन-चिप I/O सपोर्ट दिया गया है।

विक्रम 3201 की तकनीकी खूबियों की बात करें तो यह माइक्रोप्रोसेसर -55 से +125 डिग्री सेल्सियस के चरम तापमान में भी सुचारू रूप से काम कर सकता है। इसकी यही क्षमता इसे गहरे अंतरिक्ष अभियानों और अन्य कठोर वातावरण में उपयोग के लिए आदर्श बनाती है। यह चिप 2009 में विकसित किए गए 16-बिट विक्रम 1601 का उन्नत संस्करण है, जो अब 32-बिट प्रोसेसिंग के साथ कहीं अधिक शक्तिशाली और विश्वसनीय साबित होता है।

‘विक्रम 3201’ का विकास भारत की विदेशी तकनीक पर निर्भरता घटाने की दिशा में अहम कदम है। सेमीकंडक्टर उद्योग वर्तमान में लगभग 50 अरब डॉलर का है और 2030 तक इसके 100 अरब डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है।रिपोर्ट के अनुसार, देश में 10 नए सेमीकंडक्टर फ़ैब्रिकेशन यूनिट्स पर काम चल रहा है, जिन पर करीब 18 अरब डॉलर का निवेश किया जा रहा है। यह नेटवर्क न सिर्फ़ अंतरिक्ष क्षेत्र बल्कि उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल, और मेडिकल डिवाइस जैसी इंडस्ट्रीज़ में भी भारत की लागत घटाने और निवेश आकर्षित करने में मदद करेगा।

दुनिया से रेस में कहा खड़ा है भारत?

विशेषज्ञ मानते हैं कि ‘विक्रम 3201’ भले ही कागज़ पर आज के वाणिज्यिक माइक्रोकंट्रोलरों जितना तेज़ न हो, लेकिन अंतरिक्ष अभियानों के लिहाज़ से यह पर्याप्त से अधिक शक्तिशाली है। यह लगभग 100 MHz @ 180 nm की श्रेणी में आता है, जिसे मोटे तौर पर 1990 के दशक के अंत और 2000 की शुरुआत के 32-बिट कंट्रोलरों से तुलना की जा सकती है। तुलना के लिए, आज के Arm Cortex-M7 माइक्रोकंट्रोलर 200–600 MHz की क्लॉक स्पीड पर चलते हैं और लगभग 460–1,280 DMIPS परफॉर्मेंस देते हैं, जबकि क्लासिक Intel Pentium (66–166 MHz) ने भी कुछ सौ MIPS की क्षमता दी थी। हालांकि यह तुलना केवल गति तक सीमित है; अंतरिक्ष-ग्रेड माइक्रोप्रोसेसर का मूल्यांकन हमेशा इसकी विश्वसनीयता, विकिरण और तापमान सहनशीलता और डेटरमिनिस्टिक परफॉर्मेंस पर आधारित होता है, न कि केवल रॉ परफॉर्मेंस पर।

‘विक्रम 3201’ की सबसे बड़ी ताकत यही है कि यह पूरी तरह से भारत में डिज़ाइन, निर्मित और स्पेस-क्वालिफाइड किया गया है। इससे भारत की विदेशी तकनीक, खासकर ताइवान और चीन पर निर्भरता घटेगी। वर्तमान में भारत का सेमीकंडक्टर बाज़ार लगभग 50 अरब डॉलर का है, जो 2030 तक दोगुना होने का अनुमान है। सरकार सेमीकंडक्टर मिशन के तहत पहले ही 7 अरब डॉलर से ज़्यादा निवेश को स्वीकृति दे चुकी है और 10 नए फ़ैब्रिकेशन यूनिट्स पर करीब 18 अरब डॉलर का निवेश किया जा रहा है। टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स, एचसीएल और फॉक्सकॉन जैसी कंपनियाँ इसमें सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं।

वैश्विक स्तर पर, सेमीकंडक्टर उद्योग में TSMC, Samsung और Intel फ़ाउंड्री निर्माण में अग्रणी हैं; ASML EUV लिथोग्राफी मशीनों की लगभग एकाधिकार आपूर्ति करता है; वहीं NVIDIA और Broadcom/Qualcomm जैसे नाम AI और मोबाइल सिलिकॉन में आगे हैं। इस पारिस्थितिकी तंत्र में भारत ने अभी शुरुआत की है, लेकिन ‘विक्रम 3201’ यह साबित करता है कि देश स्पेस-ग्रेड प्रोसेसर टेक्नोलॉजी में आत्मनिर्भर बनने की राह पर मजबूती से आगे बढ़ रहा है।

भारत ‘विक्रम 3201’ के लांच से आया पहला कदम भले ही भारत को वैश्विक सेमीकंडक्टर दौड़ में पिछे दिखा रहा हो मगर यह बात उल्लेखनीय है की देर से ही सही भारत गंभीरता के साथ इस दौड़ में शामिल हुआ है। ‘विक्रम 3201’ अंतरिक्ष अभियानों में भारत की स्वदेशी क्षमता को बढ़ाएगा और भारत को वैश्विक तकनीकी मानचित्र पर एक मज़बूत खिलाड़ी के रूप में स्थापित करेगा। इससे आयात पर निर्भरता कम होगी और देश सेमीकंडक्टर आपूर्ति श्रृंखला में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ेगा।

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