2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए विपक्ष और सत्ता दल ने तैयारियां शुरू कर दी है। एक ओर जहां मंगलवार को विपक्ष ने बेंगलुरु में बैठक की, तो दूसरी ओर बीजेपी ने भी अपने कुनबे को बढ़ाने के लिए दिल्ली में बैठक की, दोनों बैठकों का मकसद शक्ति प्रदर्शन कहा जा सकता है। वहीं, कुछ ऐसे राजनीति दल भी रहे, जो न तो बीजेपी की बैठक में शामिल हुए, और न ही विपक्ष की बैठक में, इन्हें बुलाया गया था। ऐसे में यह जानना जरुरी हो गया है कि आखिर वे कौन सी पार्टियां हैं जो, दोनों बैठकों से दूर रही या उन्हें न्योता नहीं दिया गया था। ये पार्टियां कौन हैं ? उन्हें क्यों नहीं बुलाया गया ? या दूर रहे तो किस वजह से ? सबसे बड़ी बात यह है कि विपक्ष ने बेंगलुरु की बैठक में केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग बुलाया था। जबकि ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को किनारे लगा दिया था।
दोनों बैठक में मायावती की बहुजन समाज पार्टी, नवीन पटनायक की बीजेडी, जगमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस, चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी, असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, शिरोमणि अकाली दल, तेलंगाना के सीएम केसीआर की बीआरएस, कर्नाटक से जनता दल सेक्युलर पार्टियां शामिल नहीं हुई। ये वे राजनीति दल हैं जो अपने अपने राज्यों में मजबूत हैं।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर ये पार्टियां क्यों नहीं, इस शक्ति प्रदर्शन में शामिल हुई। इसकी वजह क्या हो सकती है। ऐसी कौन सी अड़चनें थीं कि इन्होंने दोनों बैठकों में जाने से गुरेज किया। इसकी वजह जाने की कोशिश करते हैं। हम इसकी शुरुआत यूपी से करते हैं। यूपी में लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं। इसलिए यूपी में कांग्रेस, बीजेपी के साथ दो राजनीति दल बसपा और सपा भी हैं। वे यूपी में महत्वपूर्ण हैं। फिलहाल, सपा कांग्रेस के साथ चली गई है। सपा अब इंडिया का हिस्सा है। तो बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने अकेले दम पर लोकसभा का चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं।
मायावती यूपी के अलावा अन्य राज्यों में भी जोर आजमाइश करती नजर आ सकती है। वर्तमान में बसपा की हालत यूपी में भी अच्छी नहीं है। वह वजूद की लड़ाई लड़ रही है। पिछले कुछ समय से मायावती बीजेपी के कुछ फैसलों का समर्थन किया है। जिसमें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव शामिल है। बावजूद इसके मायावती ने कभी खुलकर बीजेपी के साथ नहीं गई। इसकी वजह मायावती का मुख्य वोटबैंक दलित समाज है। इससे पहले उनका निजी हित है। मायावती ने हमेशा अवसरवादी राजनीति की है। कभी, कांग्रेस के साथ तो, कभी बीजेपी के साथ रही है। इसलिए कहा जा सकता है कि मायावती में भरोसे की कभी है, जिसकी वजह से वे न तो बीजेपी के एनडीए में गई और न ही कांग्रेस समर्थित “इंडिया” में।
इसी तरह, पंजाब से शिरोमणि अकाली दल भी एनडीए की बैठक में शामिल नहीं हुआ। अकाली दल एनडीए का पुराना मित्र है.बावजूद इसके 18 जुलाई को दिल्ली में हुई बैठक से अकाली दल दूर रहा। कांग्रेस के साथ अकाली दल का पारम्परिक विरोध है। अकाली दल ने बीते साल किसानों के लिए लाये गए बिल को लेकर एनडीए से अलग हो गया था। हालांकि, बीजेपी के नेता अकाली दल को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं ,लेकिन क्या अकाली दल एनडीए के साथ आएगा। इस पर अपना रुख साफ नहीं किया है। पंजाब में आम आदमी पार्टी की पैठ से भी अकाली दल की नींद उडी हुई है।
अगर उड़ीसा से बीजेडी के मुखिया नवीन पटनायक की बात करें तो वे जिस भी पार्टी की केंद्र में सरकार होती है, उसी के साथ रहते है। उनका किसी भी दल के साथ विचारधारा लेकर मुद्दा नहीं रहा है। इसकी वजह यह है कि नवीन पटनायक उस नीति के साथ काम करते हैं, जो उनके राज्य को फ़ायदा पहुंचाती। जब विपक्ष को एकजुट करने के लिए नीतीश कुमार उनसे मिले थे तब ही नवीन पटनायक ने साफ़ किया था कि गठबंधन को लेकर किसी भी तरह की बातचीत नहीं हुई है।
वहीं, इसी तरह से आंध्र प्रदेश से जगमोहन रेड्डी भी किसी गुट के साथ नहीं गए। रेड्डी कांग्रेस से अलग होकर वाईएसआर कांग्रेस पार्टी बनाई है, लेकिन वर्तमान में जगमोहन रेड्डी न तो एनडीए और न ही विपक्ष के साथ गए। हालांकि, जगमोहन रेड्डी बीजेपी के करीबी है, बावजूद उन्हें बैठक में नहीं बुलाया गया था। इसकी वजह यह कि आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबू नायडू की पार्टी भी बीजेपी के साथ गठजोड़ करने की इच्छुक है। इस संबंध में उन्होंने कई संकेत दिए हैं। बता दें कि चंद्रबाबू नायडू और जगमोहन रेड्डी एक दूसरे के विरोधी हैं। ऐसे में दोनों दल एक मंच को साझा नहीं कर सकते, इसलिए बीजेपी ने इन दोनों दलों को अपनी बैठक में नहीं बुलाया था।
चंद्रबाबू नायडू एनडीए का हिस्सा रह चुके हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर एनडीए से अलग हो गए थे। अब एक बार फिर चंद्र बाबू नायडू एनडीए का हिस्सा बनना चाहते हैं। तेलंगाना के सीएम केसीआर बीजेपी और कांग्रेस से अलग तीसरे मोर्चे को बात कर रहे थे। लेकिन,केसीआर के सपने को पंख नहीं लग पाए, हालांकि, राज्य में बीसीआर के सामने कांग्रेस मजबूत है। तो साफ है कि केसीआर अपने गढ़ को पहले बचाना चाहते हैं। कहा जा रहा है कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत की वजह से केसीआर ने अपने सपने को कुछ समय के लिए टाल दिया है। वहीं, कर्नाटक से एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्युलर भी दोनों बैठक में शामिल नहीं हुई। माना जा रहा है कि जनता दल सेक्युलर बीजेपी के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ सकती है।
अब बात असदुद्दीन ओवैसी की, तो कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों ने उन्हें न्योता क्यों नहीं दिया यह सबसे बड़ा सवाल है। क्योंकि, इस बैठक में केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग शामिल हुई थी। जिसे राहुल गांधी सेक्युलर बता चुके हैं। पिछले जब अमेरिका दौरे पर गए उसी सैम उन्होंने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को सेक्युलर बताया था जिसके बाद भारत उनके बयान पर जमकर बवाल मचा था। इस पार्टी को 23 जून की बैठक के बाद दूसरी बैठक में आमंत्रित किया गया था। लेकिन ओवैसी की पार्टी को नहीं बुलाया गया था। इसकी वजह साफ़ है कि ओवैसी की पार्टी ने बिहार यूपी, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में एंट्री कर चुकी है। जिसका सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ है। बिहार में भी महागठबंधन के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर चुकी है। ऐसे में साफ है कि विपक्ष ने उन पार्टियों को बैठक में नहीं बुलाया जिससे “इंडिया” गठबंधन को नुकसान हो। लेकिन इसका फ़ायदा बीजेपी के एनडीए को मिल सकता है।
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