1990 से पहले के लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर राजपूत और ब्राह्मण जातियों का खासा प्रभाव हुआ करता था। अब तक आठ ब्राम्हण और तीन राजपूत मुख्यमंत्री हुए हैं। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद राजनीति में पिछड़ों और दलित समुदाय का दबदबा बढ़ गया। उत्तर प्रदेश में ओबीसी यानी पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा 52 फीसदी है। यादव जाति का. पिछड़ा वर्ग में सबसे ज्यादा 11% मतदाता यादव समाज के हैं। इसी वजह से 1989 में सबसे पहले मुलायम सिंह, यादव जाति के मुखिया बनकर उभरे। मंडल कमीशन के बाद यादव जाति का मुलायम सिंह को पूरा समर्थन मिला, जिसके बाद वे 1989 , 1993, 2003 में मुख्यमंत्री बने, फिर 2012 में अखिलेश यादव सत्ता पर काबिज हुए। यादव जाति के मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह 3 बार सीएम बने।
अब 2022 में पिछड़ा वर्ग में शामिल 79 जातियों पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए राजनीतिक कसरत शुरू हो चुकी है। पिछड़ा वर्ग में यादव और गैर यादव धड़ों में बंटा हुआ है। जहां यादव 11 फ़ीसदी हैं तो वही गैर यादव 43 फ़ीसदी हैं, वही पिछड़ा वर्ग में यादव जाति के बाद सबसे ज्यादा कुर्मी मतदाताओं की संख्या है। इस जाति के मतदाता दर्जनभर जनपदों में 12 फ़ीसदी तक हैं। वर्तमान में अपना दल का इस जाति पर मजबूत पकड़ है जो भाजपा की सहयोगी पार्टी है। पिछड़ा वर्ग में मौर्य और कुशवाहा जाति की संख्या प्रदेश के 13 जिलों में सबसे ज्यादा है।
ओबीसी में चौथी बड़ी जाति लोध है, यह जाति बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक मानी जाती है, यूपी के दो दर्जन जनपदों में इस जाति के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। पिछड़ा वर्ग में पांचवीं सबसे बड़ी जाति के रूप में मल्लाह निषाद हैं, इस जाति की आबादी दर्जनभर जनपदों में सबसे ज्यादा है, गंगा किनारे बसे जनपदों में मल्लाह और निषाद समुदाय 6 से 10 फ़ीसदी है जो अपने संख्या के बलबूते चुनाव के परिणाम में बड़ा असर डालते हैं। वर्तमान में इस जाति के नेता के रूप में डॉक्टर संजय निषाद हैं जो भाजपा के साथ सरकार में शामिल है। पिछड़ा वोट बैंक में राजभर बिरादरी की आबादी 2 फ़ीसदी से कम है पर पूर्वांचल के आधा दर्जन जनपदों पर इनका खासा असर है।
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय को भी पिछड़ा वर्ग में गिना जाता है, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के लिहाज से मुस्लिमों की आबादी लगभग 20 फ़ीसदी है, 1990 से पहले जहां मुस्लिमों के वोट बैंक पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ हुआ करती थी लेकिन 1990 के बाद सपा और बसपा ने इस जाति पर मजबूत पकड़ बना ली। उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाता की आबादी 23 फ़ीसदी है, जिसमें सबसे ज्यादा 11 फ़ीसदी ब्राम्हण, 8 फ़ीसदी राजपूत और 2 फ़ीसदी कायस्थ हैं। इस जाति के वोट बैंक पर कभी भी किसी राजनीतिक दल का कब्जा नहीं रहा है। बल्कि ये जातियां खुद राजनीतिक पार्टियों में अपनी मजबूत दावेदारी को दर्ज कराती रही हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित मतदाता की संख्या पिछड़ा वर्ग के बाद सबसे ज्यादा है। दलिलो में जाटव जाति की जनसंख्या सबसे ज्यादा है, दलित समुदाय में उप जातियों की संख्या 70 से ज्यादा है, दलितों में 16 फ़ीसदी पासी और 15 फ़ीसदी बाल्मीकि जाति का हिस्सा है। मायावती ने दलितों के वोट बैंक के भरोसे 1995 में मुख्यमंत्री बनी। फिर 2002 और 2007 वर्तमान में बसपा के कमजोर होने के बाद दलित वोट बैंक में सेंध लग चुकी है। यह बात सही है कि समय के साथ साथ पिछड़ा और दलित मतदाताओं में भाजपा की पकड़ लगातार मजबूत हुई है। आगामी यूपी विधानसभा 2022 के चुनाव में भाजपा के दलितों-पिछड़ों में पकड़ मजबूत बनाने से उसकी जीत की राह आसान दिखाई दे रही है। जबकि अन्य दलों के वोट बैंक में सेंध लग चुकी है औऱ अकेले लड़ने से भाजपा को फायदा होना दिखाई दे रहा है।