सुप्रीम कोर्ट ने आज भारत की जेलों में जाति आधारित भेदभाव पर अफसोस जताते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जेलों में जाति के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए |यह भी निर्देश दिया गया है कि भारत के सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश तीन महीने के भीतर जेल नियमों में संशोधन करें। कोर्ट ने इस बात पर भी नाराजगी जताई कि आजादी के 75 साल बाद भी भारत जातिगत भेदभाव को खत्म नहीं कर पाया है| पत्रकार सुकन्या शांता की याचिका पर मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की बेंच के सामने सुनवाई हुई|
सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, ”आजादी के 75 साल में हम जाति-आधारित भेदभाव जैसी दिखने वाली प्रथाओं को खत्म नहीं कर पाए हैं| हमें उस राष्ट्रीय लक्ष्य को ध्यान में रखना होगा जो देश के सभी नागरिकों को न्याय और समानता दिलाएगा।“संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत के भविष्य को लेकर डाॅ.बाबा साहेब अंबेडकर की चिंताएं आज भी सही हैं|”
याचिकाकर्ता सुकन्या शांता ने कहा कि उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल समेत 11 राज्यों की जेलों में कैदियों को उनकी जाति के आधार पर नौकरी दी जाती है. इनके रहने की व्यवस्था भी जाति पर निर्भर करती है। कई राज्यों के जेल नियमों में जाति के आधार पर भेदभाव का उल्लेख किया गया है।खाना बनाने का काम ऊंची जाति के कैदियों को दिया जाता है| सफ़ाई का काम निचली जाति के कैदियों को दिया जाता है। कुछ जातियों का उल्लेख अपराध करने वाली जातियों के रूप में किया गया है।
जेल में कैदी की जाति का उल्लेख क्यों?: मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिका के माध्यम से इस महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाने के लिए याचिकाकर्ताओं को धन्यवाद दिया। पीठ ने कहा कि संविधान ने सभी को समानता का अधिकार दिया है|अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का निषेध करता है।
अनुच्छेद 21 के अनुसार सभी को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है। इसका पालन सभी जेलों में होना चाहिए| जेलों में उनकी जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए, जैसे उन्हें विशिष्ट कार्य सौंपना या उन्हें अलग-अलग रहने की व्यवस्था प्रदान करना।कैदियों की पहचान उनकी जाति से नहीं की जानी चाहिए| कैदी का जाति कॉलम जेल में नहीं होना चाहिए।
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