तमिलनाडु का साबूदाना उद्योग, जो देश की लगभग पूरी मांग पूरी करता है, इस समय भारी संकट से गुजर रहा है। उत्पादन में ऐतिहासिक बढ़ोतरी के बावजूद उत्तर भारत से मांग में गिरावट ने उद्योग को मुश्किल में डाल दिया है।
पश्चिमी तमिलनाडु के सलेम और नमक्कल जिलों में ज्यादातर साबूदाना इकाइयां स्थित हैं। यहां मैकेनाइजेशन और आधुनिक प्रोसेसिंग की वजह से उत्पादन कई गुना बढ़ चुका है। पहले जहां रोजाना 8,000-10,000 बोरी (प्रत्येक 90 किलो) बनती थी, अब यह बढ़कर करीब 15,000 बोरी प्रतिदिन हो गई है। इसके बावजूद दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे बड़े बाजारों से मांग बुरी तरह घट गई है।
करीब तीन दशक पहले जहां 1,500 फैक्ट्रियां चलती थीं, अब इनकी संख्या घटकर केवल 350 रह गई है। इनमें से भी एक-तिहाई से कम लगातार उत्पादन कर पा रही हैं। परंपरागत रूप से सावन और नवरात्र जैसे व्रत-उपवास के मौसम में साबूदाने की खपत सबसे ज्यादा होती थी। लेकिन बदलती खाद्य आदतें, धार्मिक उपवास की परंपरा में गिरावट और मिलावट को लेकर उपभोक्ताओं की चिंताओं ने बिक्री को बुरी तरह प्रभावित किया है।
परिणामस्वरूप इस त्योहारी सीजन में तैयार की गई करीब पांच लाख बोरी साबूदाना बिना बिके पड़ी हुई है। दामों में भारी गिरावट ने संकट और गहरा कर दिया है। कुछ साल पहले जहां 90 किलो की एक बोरी की कीमत 6,000 रुपये तक मिलती थी, वहीं अब यह घटकर महज 3,200 रुपये रह गई है।
निर्यात में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है, जिससे नुकसान और बढ़ गया है। हालांकि, साबूदाना उत्पादन का सह-उत्पाद स्टार्च उद्योग तेजी से बढ़ रहा है। कागज, दवा और खाद्य प्रोसेसिंग सेक्टरों में मांग के कारण स्टार्च का उत्पादन पिछले दशक में दोगुना से भी ज्यादा हो चुका है। इसकी कीमत स्थिर है और करीब 2,400 रुपये प्रति बोरी मिल रही है।
उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि साबूदाने की बिक्री को फिर से खड़ा करने के लिए तमिलनाडु सरकार को कदम उठाने होंगे। उनकी मांग है कि साबूदाने को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में फिर से शामिल किया जाए, इसे मध्याह्न भोजन योजना में जगह मिले और इसके पोषण मूल्य का प्रचार-प्रसार हो। उनका कहना है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो तमिलनाडु का यह प्रतिष्ठित कृषि उद्योग और गहरे संकट में फंस सकता है।
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