बीबीसी ही नहीं इस पर भी बोलो मोइत्रा? 

बीबीसी ही नहीं इस पर भी बोलो मोइत्रा? 
बीबीसी डाक्यूमेंट्री को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। पीएम मोदी का विरोध करने वाले दल इस डाक्यूमेंट्री का लिंक शेयर कर रहे हैं। यह एक तरह से विपक्ष के नेता देश को आग में झोंकने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि इस डाक्यूमेंट्री को सरकार द्वारा बैन कर दिया गया। बावजूद इसके इस डाक्यूमेंट्री को प्रदर्शित किया जा रहा है। शुक्रवार को दिल्ली विश्वविद्यालय में इस डॉक्यूमेंट्री को प्रदर्शित किया जाना था। लेकिन उसे पुलिस ने रुकवा दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने कहा कि इस डाक्यूमेंट्री को बाहरी लोगों द्वारा प्रदर्शित करने की कोशिश की गई थी। ऐसे में कई तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं कि आखिर यह अंध विरोध क्यों? क्या विपक्ष बीबीसी डाक्यूमेंट्री को सही बताने पर तुला हुआ है। अगर ऐसा ही है तो इन लोगों को सुप्रीम कोर्ट फिर जाना चाहिए ? लेकिन ये वे लोग हैं जो अपने हिसाब से एजेंडा सेट करते हैं।

आज हम टीएमसी की नेता और सांसद महुआ मोइत्रा के बारे में बात करेंगे। जो अक्सर विवादों में रहती है। जो आजकल विचारों की स्वतंत्रता पर लंबी चौड़ी घूंटी पिला रही हैं। मोइत्रा बीबीसी डाक्यूमेंट्री को लेकर हद से ज्यादा आक्रामक है। लेकिन उनकी यह आक्रामकता सवालों के घेरे में है। सवाल यह है कि बीबीसी डॉक्यूमेंट्री के लिंक को क्या सांसद मोइत्रा द्वारा शेयर करना कानून के दायरे में हैं ? उन्हें देश की जनता ने कानून बनाने वाली संस्था में भेजा है। ऐसे में क्या उसका मखौल उड़ाना मोइत्रा को शोभा देता है। क्या वे अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल कर रही हैं ? क्या वे यह नहीं जानती है कि इस डाक्यूमेंट्री पर भारत सरकार ने रोक लगाया है ? अगर जानती है तो क्यों बार बार कानून की धज्जियां उड़ा रही हैं ? ये वे सवाल हैं  जिसका मोइत्रा जवाब देने के बजाय अपने महंगे बैग से मोबाइल निकालकर बात करती हुई आगे बढ़ जाएंगी।

सवाल तीखा है, लेकिन देशहित में है। पीएम मोदी का विरोध करना अलग बात है, लेकिन देशहित से खिलवाड़ किसी भी कीमत पर देश बर्दास्त नहीं करेगा। देश अच्छी तरह जानता है कि डाक्यूमेंटी की आड़ में भारत की छवि को खराब करने की कोशिश है। जिस मामले पर हमारी अदालत ने फैसला सुना दिया है। उस पर बहस की क्या जरूरत हैं। दंगे के दोषियों को सजा भी हो चुकी है ,बावजूद 20 साल बाद इस मामले को गड़े मुर्दे की तरह उखाड़ने की क्या जरुरत पड़ी। आखिर विपक्ष इस डाक्यूमेंट्री के जरिये किस पर सवाल खड़ा करना चाहता है।

बीते साल इसी मामले से जुड़े एक केस में सुप्रीम कोर्ट ने अहम टिप्पणी की थी। जिसमें कोर्ट ने कहा था कि इस मामले को ज़िंदा रखने की साजिश रची जा रही है। जबकि कोर्ट ने एसआईटी की रिपोर्ट के आधार पर नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट को बरक़रार रखा था। बावजूद इसके इस मामले को फिर उठाने का क्या मकसद हो सकता है। यह सवाल लोगों के जेहन में बार बार कौंध रहा है। क्या भारत की विश्व पटल पर बढ़ती लोकप्रियता से कुछ लोगों में डर है या भारत को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते हैं। अंग्रेजों ने हमे गुलाम बनाया। एक बार फिर हमारी संस्थाओं पर हमला कर उन्हें लहूलुहान करने को कोशिश है। जिसमें हमारे लोग भी समर्थन दे रहे हैं। जिसमें मोइत्रा जैसे लोग शामिल हैं।

मोइत्रा जैसे लोग देश की आन बान शान की धाज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान समझती हैं। बंगाल में उनकी पार्टी की सरकार है। ममता सरकार ने ऐसे कई कारनामें किये जो अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ है। लेकिन मोइत्रा आज तक उन मामलों को कभी नहीं उठाया। क्यों उठाती, उनकी सरकार है। तब यहां अभिव्यक्ति की आजादी खत्म हो जाती है। क्या मोइत्रा यह नहीं जानती कि बीबीसी कितनी बार देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रहा है।

अब जब गुजरात दंगा का चैप्टर बंद हो चुका है तो फिर उसे खोलने की क्या जरूरत है। लेकिन, नहीं मोइत्रा जैसे लोग लाश पर राजनीति करते हैं। झूठमूठ का दिखावा करते हैं कि वे जनता की बात करते है,लेकिन उनके पर्स की कीमत आम जनता की पहुंच से बाहर है। उनके लुई वुइटन बैग की कीमत डेढ़ लाख से ज्यादा बताई जाती है। बहरहाल हम यह जानते हैं कि कब कब बीबीसी ने भारत की छवि को धूमिल करने की कोशिश की। कोरोना के समय में भी बीबीसी लगातार कहता रहा कि भारत में कोरोना बीमारी का सही तरीके से मुकाबला नहीं किया जा रहा है। जबकि पूरी दुनिया जानती हैं कि कोरोना की लड़ाई में भारत जीतनी मजबूती के साथ लड़ा कोई नहीं लड़ा होगा। आज भी चीन और अमेरिका में कोरोना का कहर है। जबकि भारत के लोग बेफ्रिक होकर अपना जीवन जी रहे हैं।

क्या मोइत्रा महात्मा गांधी या पैगंबर मोहम्मद साहब की बैन पुस्तकों को अपने ट्वीटर हैंडल पर शेयर करेंगी। क्या कोई आम आदमी इसे शेयर करेगा तो उस पर कार्रवाई के लिए आगे नहीं आएंगी। ऐसे सवालों पर मोइत्रा जैसे लोग चुप्पी साध लेते हैं। बात यह है कि ऐसे लोग अपने एजेंडे वाले विचारों को अभिव्यक्ति की आजादी बताते हैं। जबकि दूसरे के विचार इन्हें आजादी के खिलाफ लगता है। यह दोगलापन है, जिसे भली भांति समझती और जानती है।

आज जो मोइत्रा कर रही हैं, वही काम जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अम्बिकेश महापात्रा ने किया था। जो दस साल बाद हाल ही में रिहा किये गए। क्या इस मामले पर मोइत्रा ने कोई लिंक शेयर किया। क्या उन्होंने इस संबंध में कोई ट्वीट किया, नहीं, मोइत्रा ऐसा कैसे कर सकती हैं। क्योंकि यह अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में नहीं आता है ? शर्म आती है ऐसेलोगों जब ये नैतिकता के पाठ पढ़ाते हैं। महापात्रा का बस यही कसूर था कि उन्होंने ममता बनर्जी के कार्टून को शेयर किया था।

बहरहाल,बता दें कि बीबीसी के कुछ कार्यक्रमों को अदालत ने बैन किया था। 1970 में इंदिरा गांधी ने बीबीसी को दो साल के लिए बैन कर दिया था। बीबीसी ने एक डाक्यूमेंटी में भारत की नकारात्मक छवि को पेश किया था। 2008 में भी भारत सरकार ने बीबीसी के एक पैनोरमा शो बैन कर दिया था। बाद में इसकी स्टोरी फर्जी निकली थी।

इसी तरह 2015 में निर्भया गैंग रेप मामले में बीबीसी द्वारा बनाई गई डाक्यूमेंट्री पर रोक को दिल्ली हाई कोर्ट ने सही ठहराया था। इसमें गैंग रेप के दोषी मुकेश सिंह को दिखाया गया था। 2017 में भी बीबीसी द्वारा भारत के नेशनल उद्यानों और अभयारण्यों में शूटिंग करने से रोक दिया गया था। यह रोक पांच साल के लिए लगाई गई थी।  सवाल यह है कि इस पर मोइत्रा क्या कहेंगी ?
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