रामलीला मैदान बनेगा राजनीति का अखाड़ा? 

रामलीला मैदान बनेगा राजनीति का अखाड़ा? 

Ramlila Maidan:  एक बार फिर किसान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में महापंचायत कर रहे हैं। यह महापंचायत संयुक्त किसान मोर्चा के अगुवाई में आयोजित की गई है। संगठन ने दावा किया है कि 2020 की अपेक्षा इस बार के मोर्चा में अब तक सबसे अधिक किसानों के जुटने का दावा किया जा रहा है। किसानों ने कहा है कि केंद्र सरकार 2021 में किये गए वादे को पूरा करे।

गौरतलब है कि एक साल से ज्यादा समय तक चले किसान आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने विवादित तीन कानून वापस ले लिया था। अब एक बार फिर किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर कानून बनाने सहित कई मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन क्या किसानों का यह आंदोलन पिछले साल से भी बड़ा होगा। क्या किसान दिल्ली को बंधक बनाने में कामयाब होंगे ?हालांकि, ऐसी उम्मीद कम ही लगती है। क्योंकि, पिछले साल की अपेक्षा इस बार की परिस्थितियां अलग हैं।

वर्तमान में खालिस्तान का मामला गरमाया हुआ है और अमृतपाल सिंह को भगोड़ा घोषित किया जा चुका है। अमृतपाल को पंजाब पुलिस लगातार खोज कर रही हैं। लेकिन, उसका कहीं पता नहीं चला है। दो साल पहले किसान आंदोलन से अमृतपाल के जुड़े होने की बात कही जा रही थी। कहा जा रहा था कि पिछले आंदोलन में किसानों के आंदोलन को लगातार विदेश में बसे खालिस्तानी समर्थक समर्थन दे रहे थे।

पिछले किसान आंदोलन पर यह भी आरोप लगा था कि 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में जो हिंसा हुई थी वह अंतरराष्ट्रीय साजिश थी। ऐसे में इस भी आंदोलन को एक बार फिर उसी नजरिये से देखा जा रहा है। बताते चलें कि इस आंदोलन को लेकर खालिस्तानी अमृतपाल लगातार सक्रिय था। उसने किसानों के आंदोलन का समर्थन किया था। ऐसे में यह भी माना जा रहा जा है कि इस बार के किसानों के आंदोलन में ज्यादा समय तक किसान टिक नहीं पाएंगे ?  क्योंकि,कई स्तर पर इस आंदोलन को उकसाया गया था।

वहीं, किसानों के आंदोलन को कांग्रेस सहित कई राजनीति दलों ने समर्थन भी दिया है। लेकिन इस बार अभी तक किसानों के आंदोलन को कोई राजनीतिक दलों ने समर्थन नहीं किया है। इसलिए माना जा रहा है कि पिछले साल की अपेक्षा इस बार का किसान आंदोलन का असर कम देखने को मिल सकता है। वहीं, केंद्र सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों को वापस लिए जाने के बाद किसानों के संगठन में फूट पड़गई थी।

उस समय कई राज्यों में हुए चुनाव के दौरान किसानों ने चुनाव लड़ा था। इसके बाद किसान संगठन ने कहा था कि इन किसानों से कोई लेना देना नहीं है। इतना ही नहीं, किसानों पर यह भी आरोप लगा था कि संयुक्त किसान मोर्चा के कुछ नेता आंदोलन के ही दौरान सरकार से बातचीत की थी। हालांकि एक बार फिर संयुक्त किसान मोर्चा के आंदोलन पर सवाल खड़ा होने लगा है, क्योंकि मोर्चा के नेता लगातार राजनीति बयानबाजी कर रहे हैं।

जिस तरह से पिछले आंदोलन के दौरान, मोर्चा के नेता राकेश टिकैत ने बीजेपी के खिलाफ बयानबाजी कर रहे थे। और उन्हें हारने के लिए जनता से अपील कर रहे थे, वही सब एक बार और देखने को मिल रहा है। राकेश टिकैत ने केंद्र सरकार से कहा कि उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर में बीजेपी को आठ से एक सीट पर ला दिए। इस बार भी सरकार नहीं मानी तो पूरे देश में उसका यही हश्र होगा। बता दें कि किसान आंदोलन नेता राकेश टिकैत चुनाव वाले राज्यों में घूम घूम कर लगातार चुनाव वाले राज्यों में बीजेपी को हराने की अपील कर रहे थे। ऐसे में सवाल उठता है कि किसानों की मांग के बजाय अलग मुद्दे पर बात करना सही है। जबकि कोई निर्णय सरकार ही लेगी तो उसको धमकी देना कहां का सही है। क्या एक चुनी हुई सरकार को ऐसी धमकियां देना सही है।

अगर किसी को अपनी बात करनी है तो संगठन को  सरकार से बातचीत करनी चाहिए न की धमकी देनी। यह कोई घर का कपड़ा खरीदना नहीं है कि हां कहने से सभी किसानों को  फ़ायदा मिलने लगेगा। किसी योजना या मुआवजा के लिए पैसे का सोर्स होना चाहिए, तभी किसी को दिया जाता है या उस समस्या को निपटाने के लिए पहले राय मशविरा किया जाता है। तब जाकर उस पर कोई निर्णय लिया जाता है।

बहरहाल, सबसे बड़ी बात यह कि किसान आंदोलन के नाम पर केवल राजनीति की जाती है। जब जब किसानों ने आंदोलन किया है। तब तब इसे जुड़े नेता राजनीतिक बयानबाजी करते रहे हैं। यही वजह है कि किसान आंदोलन पूरी तरह मुद्दाविहीन हो जाता है। पिछले आंदोलन में कई बाहरी लोगों ने किसान आंदोलन को लेकर बयानबाजी की थी। जिसमें अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण से जुडी कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने भी किसान आंदोलन का समर्थन किया था। जिसके बाद खूब हो हल्ला मचा था। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय गायिका रिहाना, कनाडा के पीएम सहित ने इस आंदोलन को एक तरह से बेवजह चर्चा में ला दिया था।

उस समय, पीएम मोदी ने किसान आंदोलन पर टिप्पणी की थी। उन्होंने लोगों को आन्दोलनजीवियों से बचने की सलाह भी दी थी। उन्होंने कहा था कि शांतिपूर्ण आंदोलन करा रहे किसानों के बीच कुछ लोग नक्सलियों, आतंकवादियों और अलगाववादियों के समर्थन वाला  पोस्टर लेकर खड़े रहते हैं। उस समय यह सवाल उठा था कि क्या किसान आंदोलन को खालिस्तानियों का समर्थन मिल रहा था।

जबकि भारत सरकार लगातार किसान आंदोलनकारियों से बातचीत कर मसले को सुलझाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन, बाहरी ताकतों के समर्थन की वजह से यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय बन गया था। माना जा रहा है कि इस बार के आंदोलन को भी पिछले आंदोलन की तरह चर्चा में लाने के लिए किसान नेता पिछ्ला हथकंडा अपना सकते हैं। हालांकि, एक दिन पहले ही किसान नेताओं ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर से  मिलकर अपनी मांगे रखी।

बता दें कि पिछला किसान आंदोलन के विवादों में रहने के कारण इस बार सरकार चौंकना होकर बातचीत को आगे बढ़ा रही है और पिछले आंदोलन से सबक लेते हुए सतर्क है।  तो देखना होगा कि इस बार किसान आंदोलन में कितना किसान जुटेंगे? क्या पिछले आंदोलन की तरह इस बार का भी आंदोलन ज्यादा समय तक चलेगा ? यह तो आने वाला समय भी बताएगा ? कहा तो यह भी जा रहा है कि किसान बीजेपी की सरकार को चोट देने के लिए  ही यह आंदोलन लोकसभा चुनाव को देखते कर रहे हैं। बहरहाल देखना होगा किसानों की महापंचायत में क्या  निर्णय होता है।

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