क्या गुनहगार होते हुए भी राजा को गुनहगार कहना गुनाह है भाई!

क्या गुनहगार होते हुए भी राजा को गुनहगार कहना गुनाह है भाई!

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दुनिया भर के सबसे बड़े इस लोकतांत्रिक देश में यह संभवतः अब तक का सबसे बड़ा सियासी हादसा है, राजा की गद्दी पर बैठा मंत्री, भले ही उसकी मंत्री तक की भी लायकी न हो, पर पूर्वजों के पुण्यप्रताप से सूबे के सारे शातिर सिपहसालारों का सिरमौर हो, उसके शासनकाल में लोकतंत्र भीष्मशैया पर पड़ा अंतिम साँसे गिन रहा हो। मेरी तुच्छ जानकारी के मुताबिक, अगर वाकई लोकतंत्र है, तो बोलने की आजादी सबको बराबर की है, यह पूरी तरह तय है। फिर आजादी और लोकतंत्र के नाम पर यह हो क्या रहा है? बेहूदा और आत्मघाती मजाक है यह।

अगर किसी के भी व्यक्तिगत जीवन अथवा पार्श्वभूमि में गए बगैर एकदम इंसानी तराजू पर तौलते हुए भी न्याय किया जाए, तो इस समय के स्वयंभू सम्राट कुंवर जी साहेब इस जुर्म के मुख्य अभियुक्त हैं। संविधान की नजर में लोकतंत्र के नजरिए से साहेब गुनहगार हुए की नहीं, साथ में खुद में लोकतंत्र का अवतार देखने वाला यह ढोंगी कितनी धूर्तता से खुद की आँखों में धूल झोंकता हुआ नहीं दिखता क्या! कोई महामूर्ख नहीं, निश्चित तौर पर महाधूर्त ही होगा, जो भोले-गरीब-ईमानदार लोगों को बरगलाने की कला में माहिर हो।

मातृभूमि की पावन भावना को अपने ह्रदय में धारण करने वालों के संग भावनात्मक कुकर्म करने के मामले में वांछित हो। क्या उस गुनहगार को गुनहगार कहना गुनाह है भाई ! भले ही वह राजा की गद्दी पर बैठा कोई भी आदमी हो, यह इंसानी स्वभाव भी मंजूर करता है हुजूरे सरकार कि बचपन या किशोरावस्था से ही सही, हमने यदि अपने से किसी उम्रदराज व अपने पूर्वजों के प्रति आस्था रखने व्यक्ति को घर में आता देखा हो, तो उससे किस लहजे और सीमा में बात करनी चाहिए। वह भी, उस व्यक्ति के प्रति जो तुम से पहले ही इस गद्दी को भोग चुका हो, जो जूठन तुम अब चाट रहे हो।

अरे भैया, गजब ही कर दिया सरकार ने ! अनूठी चाल चली है, लोकतंत्र की सबसे अहम प्रहरी मानी जाने वाली पुलिस महकमे की आँतों में मौजूद भ्रष्टाचार का कीड़ा काटने से संक्रमित लोकतंत्र की असीम ताकत से अनजान लोगों को प्रलोभन देना क्या गुनाह नहीं है? और इस राष्ट्र को समूची दुनिया में लोकतांत्रिक सिरमौर होने का गौरव प्रदान करने वाली संविधान की उसी किताब का अपमान करने की जुर्रत करने वाले पुलिस विभाग के वे खाकीधारी भी अपनी औकात भूल गए, जिन्होंने यह गरिमापूर्ण वर्दी पहनते वक्त इसी में लिखी इबारतें पढ़ कर ही इसके असल स्वाभिमान का सुकून महसूस करने व साथ ही रोजी-रोटी की जुगाड़ हो जाने का हक़ पाया था।

अपने दिल की गहराई में उतरकर देख बंदे, कितना रोए होंगे, परमपूज्य महामानव विश्वरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, क्या गद्दी का इस कदर दुरुपयोग करने के लिए ही मैंने संविधान लिखा था। भगतसिंह, बोस, आजाद, लोकमान्य तिलक, चाफेकर बंधू, बाबू गेनू की शहादत क्या इसी दुर्दिन के लिए थी? इस माटी के सर्वोच्च गौरवश्री छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम की रोटी खाने वाले निर्लज्ज उस मां की कोख को तो मत लजा, जिसे समूचा हिदुत्व ‘ मातोश्री ‘ के संबोधन से ससम्मान पुकारता है और ममतामयी आशीर्वाद प्राप्त करता है और वही आशीर्वाद प्राप्त करने के पावन उद्देश्य से ही तो गया था वह श्रद्धालू अपने उस पंढरी के पास। जिसने बरसों पहले ही अमृत-वचन दे दिया था कि मेरी मूर्ख औलाद के चक्कर में मत फंसना बेटा, इसे अपनी बागडोर सौपना मेरी मजबूरी है…बड़े को सियासत से सख्त नफरत थी और फिर वह रहा ही नहीं, तो खुद अपनी मौत को घर बुलाने से बेहतर यानी मंझले के बदले छोटे कुंअर जी ही सही, भले ही वे इसके लायक न हों।

माफ कीजिएगा सरकार! जब सियासत के जरिए ही लोकतंत्र के सर्वोच्च प्रतीक-भवन की सीढ़ियां चढ़ी जाती हैं, तब क्या सारा आदर्श मात्र उपदेश तक सीमित रह जाता है, सियासत का अंदरूनी ढांचा यानी सियासी दल, उन पर भी संविधान जस का तस लागू होता है। कुल मिलाकर, दलीय अंतर्गत चुनाव भी बिलकुल लोकतांत्रिक प्रणाली से नहीं होने चाहिए ? अगर होना चाहिए, तो हरेक व्यक्ति जो थोड़ा भी राजनीतिक-रणनीतिक समझ रखता है, क्या वह अपने दिल पर हाथ रख कर इस बात का सटीक उत्तर दे सकता है कि वाकई उस वक्त इन कुंअर साहब का कोई विकल्प नहीं था। … था, पर वह छोटे भाई का बेटा है ना !’ इससे बहुत ही ज्यादा समझदार-मेरा असली वारिसदार तो वही है, पर मेरे वंश के चिराग का सवाल है। मुझे मालूम है कि एक दिन कुंअर सर्वनाश करेगा, आत्मघाती बनेगा, पर मंझला तो काल ही है मेरा। जान बचानी है तो यही सही है, चौथापन जो है, बागडोर तो देनी ही पड़ेगी। ‘

पुनः माफ़ कीजिएगा, मैं और मेरे विचारों से आप सहमत हों, न हों। इन सारी स्थितियों का आंकलन क्या स्वतः झूठ बोलेगा ? उस समय वह महान आत्मा क्या वैचारिक भ्रष्टाचार के गुनाह से ग्रसित नहीं थी ? क्या सियासत की सीढ़ियां चढ़ने वाला यह दल इस तरह संविधान की अवमानना करने का गुनहगार नहीं ? क्या उस दल का मुखिया इस गुनाह के लिए जिम्मेदार नहीं और जिम्मेदार है, तो क्या वह भी गुनहगार नहीं?

राजा साहेब को सामाजिक सभ्यता व संस्कार का ज़रा भी एहसास होता, तो उस शख्स के बारे में बोलने से पहले जुबान में चाचा या बड़े भाई वाला अदब आ ही जाता। वह चाहता, तो तुम्हारी तरह एक ही नहीं दो-दो को अवैध तरीके से तो नहीं रखता, पर गलत लोगों का संग पकड़ कर तुमसे पहले, तुमसे ऊपर और तुमने किसी शक्ल में कभी नहीं पाया यूँ स्थायी ओहदे पर कब का जा पहुंचता, लेकिन गंवारा नहीं उसे यह सब। तुम्हारी तरह गुनाह में जो शामिल नहीं, वह गुनहगार और जो तुम्हारे गुनाह में साझेदार वे साहूकार! वाह रे वाह सरकार ! अजीब इंसाफ है भाई ! क्या यह गद्दी की मदहोशी की नंगई नहीं!

-राज सोनी- (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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