कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 2013 में सपनों में भी नहीं सोचा होगा की, जिस आम आदमी पार्टी को दिल्ली में सरकार बनाने के लिए समर्थन दे रहे हैं। वही, पार्टी एक दिन कांग्रेस के जड़ में मट्ठा डालकर उसके विनाश का सबब बनेगी। दरअसल, भ्र्ष्टाचार के आंदोलन से निकली आप ने 2013 में दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव में 70 में से 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि कांग्रेस को मात्र आठ सीट मिली थी। अगर बीजेपी की बात करें तो उसे तेईस सीटों से संतोष करना पड़ा था। तब कांग्रेस ने बीजेपी को दिल्ली की सत्ता से बाहर करने के लिए आप का समर्थन किया था और अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने थे।
अब तक यमुना से बहुत पानी बह चुका है। दस साल बाद, वही आप कांग्रेस के सिर पर बैठकर नाच रही है। अध्यादेश को बहाना बनाकर आप कांग्रेस की मिट्टी पलीद करने पर तुली हुई है। शायद कांग्रेस, केजरीवाल के महत्वाकांक्षा को भूल गई है। तो आज हम याद दिला देते हैं। आज हम एक बार फिर केजरीवाल के उन कारनामों को याद करेंगे, जिसके जरिये उन्होंने कांग्रेस आफत ला दी। और कांग्रेस उस दिन को कोस रही होगी, जब उन्होंने आम आदमी पार्टी को समर्थन देने का फैसला किया होगा।
दरअसल, 23 जून को पटना में 15 राजनीति दलों की बैठक में केजरीवाल भी शामिल हुए थे। बैठक के दौरान उन्होंने सभी उपस्थित दलों के नेताओं से उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा लाये गए अध्यादेश का विरोध और राज्यसभा में इसके खिलाफ वोट करने की मांग की। इस दौरान उन्होंने इस अध्यादेश पर कांग्रेस के रुख को स्पष्ट करने की भी मांग की। बैठक में उस समय मल्लिकार्जुन खड़गे और केजरीवाल में तीखी बहस भी हुई। केजरीवाल की मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ ही नहीं, बल्कि जम्मू कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अबदुल्ला से भी बीच बहस हुई। अब्दुल्ला ने कहा कि जब कश्मीर से धारा 370 हटाई गई तो आपने सत्ता दल का समर्थन किया था तो अब आप हमसे कैसे समर्थन मांग सकते हैं।
इसके बाद, केजरीवाल, भगवंत मान और राघव चड्डा के साथ निकल गए। उन्होंने बैठक के बाद होने वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी शामिल नहीं हुए। इससे केजरीवाल के रुख का पता चलता है कि आखिर केजरीवाल के दिमाग में क्या चल है। वे क्यों कांग्रेस पर बार बार दबाव बनाकर अध्यादेश पर उसके रुख को स्पष्ट कराना चाहते हैं। सही कहा जाए तो, केजरीवाल विपक्ष की जुटान के खिलाफ है। वे इस जुटान में कांग्रेस के सहभागी होने से खुश नहीं है। वह यह नहीं चाहते हैं कि उनकी महत्वकांक्षा पर ब्रेक लगे। उनकी महत्वाकांक्षा पीएम बनने की है।
दरअसल, केजरीवाल 2013 में ही नहीं जी रहे हैं, बल्कि दिल्ली के साथ पंजाब की जीत ने उनका दिमाग खराब कर दिया है। ऐसा लगता है कि वे यह सोच रहे हैं कि उन्होंने 2013 से पहले क्यों नहीं अपनी पार्टी बना ली। अगर ऐसा किया होता तो आज वे या तो पीएम होते या पीएम के दावेदार। याद करिये, केजरीवाल ने 2013-14 में मात्र उनचास दिन ही दिल्ली की गद्दी संभाली थी। उसके बाद उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर 2014 के लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के सामने बनारस से ताल ठोंकी थी। हालांकि यहां उनका अहंकार टूट गया। बावजूद इसके केजरीवाल ने अपनी महत्वकांक्षा नहीं छोड़ी।
केजरीवाल, गांधी परिवार या अन्य पार्टियां जो हिंदुत्व को नकारती है। उन्हें यह सबक लेनी चाहिए कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार पर आंदोलन कर आया और दिल्ली की गद्दी पर बैठा। लेकिन उसे एक माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में नकार दिया गया। उसे देशभर में ही नहीं, बल्कि उस स्थान पर भी आइना दिखाया गया, जहां से हिंदुत्व की अलख जगती है। बड़े बड़े राजनीति पंडितों को इस पर सोचना चाहिए की, आखिर केजरीवाल को बनारस की जनता ने क्यों नकारा। अगर राजनीति पंडित यह कहेंगे कि बीजेपी का प्रचार जोरदार था,तो यह राजनीति पंडितों का ज्ञान, ग़ालिब का शेर पढ़कर अपने मन को तसल्ली देने वाला है।
केजरीवाल, आज भी पीएम बनने का सपना पाले हुए हैं,इसमें बुराई नहीं है। लेकिन कांग्रेस और अन्य राजनीति पार्टी केजरीवाल को समझने में नाकाम रही है। कांग्रेस तो सबसे पहले नासमझी का प्रमाणपत्र दे दिया था। अगर, कांग्रेस 2013 में आम आदमी पार्टी को समर्थन नहीं दी होता तो केजरीवाल उसके सिर पर शायद ही नाचते। अब वही बात है “अब भुगतो”. कांग्रेस ने उस कहावत को चरितार्थ किया है कि “आ बैल मुझे मार” ।अब सवाल है कि कांग्रेस करे तो क्या करे। जैसे बोओगे ,वैसा ही काटोगे। कांग्रेस को न तो आप को निगलते बन रहा है न ही उगलते बन रहा है।
अब सवाल यह है कि आखिर केजरीवाल कांग्रेस से चाहते क्या है ? तो साफ है कि आप ने जिन राज्यों में सत्ता हासिल की है। उन राज्यों में उसने कांग्रेस को बेदखल कर ही सत्ता पाई है। दिल्ली में आप ने शीला दीक्षित को हटाकर केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाया, तो पंजाब में आप ने कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को हटाकर भगवंत मान को सीएम की कुर्सी सौंपी। हालांकि दोनों जगहों पर कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर थी। जिसका आप ने फ़ायदा उठाया। अब आप गोवा, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में अपनी पैठ बना चुकी है। इन राज्यों में आप ने कांग्रेस के ही वोट में सेंधमारी की है। और अब केजरीवाल अध्यादेश का डर दिखाकर इस महाजुटान से अलग होना चाहते हैं। केजरीवाल जानते हैं कि अगर वे विपक्ष के साथ गए तो उनके उड़ान पर ब्रेक लग गी और वे कभी पीएम उम्मीदवार के दावेदार नहीं बन पाएंगे।
केजरीवाल दूर की सोच रख रहे हैं। अगर केजरीवाल 2024 के लोकसभा चुनाव में अकेला लड़ते हैं तो आने वाले समय में उनके हाथ कामयाबी मिल सकती है। दरअसल, विपक्ष के राजनीति दलों पर खुद केजरीवाल और उनके नेता परिवारवाद और भ्रष्टाचार का आरोप लगाते रहे हैं। अगर केजरीवाल उनके साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो बीजेपी भ्र्ष्टाचार के नाम पर विपक्ष और केजरीवाल को भी घेरेगी। वैसे वर्तमान में केजरीवाल के कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे है और वे जेल में है। जिसमें उनके सबसे करीबी मनीष सिसोदिया भी शामिल है।
केजरीवाल खुद कांग्रेस के साथ नहीं जाना चाहते हैं। केजरीवाल को इससे नुकसान ही है, अगर अध्यादेश पर कांग्रेस केजरीवाल का समर्थन नहीं करती है तो आप इसे बीजेपी और कांग्रेस दोनों के खिलाफ भुना सकती है और उसे लोकसभा चुनाव में भी मुद्दा बना सकती है। इतना ही नहीं दिल्ली के विधानसभा चुनाव में सरकार विरोधी लहर का काट हो सकता है। अगर बात कांग्रेस की करें तो वह करो -मरो की स्थिति में है। अगर अध्यादेश का समर्थन करती है तब भी बीजेपी यह अध्यादेश पास करा सकती है। क्योंकि उसके पास सटीक समीकरण है। अगर नहीं करती है तब भी केजरीवाल के कोपभाजन बनाना पड़ेगा। यानी कांग्रेस के लिए इधर कुंआ उधर खाईं है। हां आप के समर्थन से थोड़ी बहुत राहत मिल सकती है ,लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चलने वाला है। कांग्रेस के लिए केजरीवाल हर कदम पर मुश्किल खड़ा करने वाले हैं।
कांग्रेस ने केजरीवाल को स्पेस देकर अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारी है। अगर दोबारा वही करेगी तो कांग्रेस का भगवान ही मालिक होगा। वैसे इस बैठक से आप के अलग होने से केजरीवाल, केसीआर ,अखिलेश यादव और ममता बनर्जी एक साथ आ सकते हैं। क्योंकि चारो दल कांग्रेस और बीजेपी विरोधी है। ऐसे में देखना होगा कि कांग्रेस शिमला में विपक्ष की होने वाली बैठक से पहले क्या निर्णय लेती है। इस पर सभी की निगाहें है।
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