मल्लिकार्जुन खड़गे द्वारा यह कहना कि कांग्रेस न पीएम उम्मीदवार के लिए इच्छुक है और न ही वह सत्ता चाहती है। क्या यह मान लिया जाए की कांग्रेस ने यह “त्याग” किया है। या इसे एक राजनीति रणनीति के तौर पर देखना चाहिए। वैसे कांग्रेस का यह त्याग नया नहीं है, पुराना है। जिसके बल पर कांग्रेस ने दो टर्म लगातार सत्ता का स्वाद चखा। तो क्या 2004 की कहानी एक बार फिर कांग्रेस दोहराना चाहती और विपक्ष को भ्रम में रखना चाहती है। वह 2024 के लोकसभा चुनाव में सिम्पैथी बटोरने के लिए विपक्ष के सामने चारा फेंका है।
दरअसल, 18 जुलाई को जब बेंगलुरु में बैठक हुई थी, तो यहां 15 के बजाय 26 राजनीति दल एकत्रित हुए थे। जबकि 23 जून को पटना में हुई बैठक में केवल 15 दल शामिल हुए थे। इसके बाद तो विपक्ष का पूरा चेहरा ही बदल गया। दूसरी बैठक जो शिमला में होने वाली थी, वह बेंगलुरु में शिफ्ट हो गई। पहली बैठक में यही कहा गया था। जबकि इसकी जानकारी शरद पवार ने दी। उसके बाद सोनिया गांधी की डिनर कूटनीति भी सामने आती है। और बेंगलुरु में कांग्रेस पूरी तरह से विपक्ष पर हावी दिखी। एक तरह से कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने पूरी तरह से विपक्ष को हाईजैक कर लिया। विपक्ष की दूसरी मीटिंग में अगर कोई चेहरा सामने आया तो वह केवल कांग्रेस के नेताओं के. जिसमें सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे रहे।
इतना ही नहीं, इस बैठक में विपक्ष के गठबंधन का जो नाम सुझाया गया.वह भी कांग्रेस की ओर से आया। ऐसा मीडिया में कहा गया। वैसे, इस बात की पहले भी चर्चा तेज हो गई थी कि क्या विपक्ष के इस जुटान का नाम बदलेगा या यूपीए ही रहेगा। हालांकि, तमाम बातों को दरकिनार करते हुए विपक्ष के जुटान का “इंडिया” नाम रखा गया। जिसके बारे में राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और ममता बनर्जी ने विस्तार से बताया। और कहा कि इंडिया जीतेगा, और बीजेपी हारेगी। याद रहे इस दौरान ममता बनर्जी ने अपनी बातें हिंदी में कही.
यह कहानी यही ख़त्म नहीं हुई, कहानी का अगला पड़ाव बड़ा दिलचस्प तब हो गया, जब यह खबर आई की नीतीश कुमार विपक्ष के गठबंधन का नाम “इंडिया” रखने से नाराज हैं। यह खबर दो दिन तक मीडिया के हॉट केक बनी रही है। फिर नीतीश कुमार को पलटी मारने और विपक्ष में सबकुछ ठीकठाक कहने के लिए सामने आना पड़ा। जिस तरह से पहली बैठक में अरविंद केजरीवाल प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले ही विमान का बहाना बना कर चले गए उसी तरह नीतीश कुमार,तेजस्वी यादव और लालू यादव भी चार्टेड विमान से बिहार के लिए रवाना हुए। इसके बारे में बताया जाता है कि उस विमान का समय निर्धारित था।
बहरहाल, नीतीश बाबू सफाई दे दी है तो इस पर कुछ कहना ज्यादती होगा. इस संबंध में शरद पवार की एक बात याद आती है। जो उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था कि, पत्रकार वही जानते हैं या लिखते हैं जो उन्हें बताया जाता है। वैसे शरद पवार और नीतीश कुमार में ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों नेता अपनी बात से कब पटल जाएं यह उन्हें भी पता नहीं रहता है।
बहरहाल, एक बार फिर हम कांग्रेस के “त्याग” वाले मुद्दे पर वापस लौटते हैं। 2004 में सोनिया गांधी के पीएम पद “त्यागने” को जिस तरह कांग्रेस हाईलाइट किया। और सोनिया गांधी का कद ऊंचा हो गया। वही सब एक बार फिर कांग्रेस ने दोहराने की कोशिश है। जिस एनसीपी नेता शरद पवार की बात हम ऊपर कर आये हैं, वे भी बेंगलुरू की बैठक में शामिल हुए थे। 1999 में तब शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर कांग्रेस छोड़ दिया था और एनसीपी का गठन किया था। यह सब शरद पवार ने क्यों किया? इसके इतिहास में हम नहीं जाते है। बस एक शब्द में कह सकते है कि वे भी पीएम बनना चाहते थे और नहीं बने।
वैसे इस बारे में आज तक यह खुलासा नहीं हो पाया कि सोनिया गांधी ने क्यों पीएम पद को ठुकराया था। इसके बारे में जितने मुंह उतनी बात कही जाती है। लेकिन सच्चाई क्या है यह कभी सामने नहीं आया। एक बार सोनिया गांधी ने कहा था कि वे एक पुस्तक लिखेंगी, इसके बाद यह कयास लगाए जाने लगे थे कि शायद इस बात का खुलासा होगा। जिसका सभी को इन्तजार है। वहीं, कांग्रेस के नेता नटवर सिंह ने अपनी किताब में कहा जाता है कि सोनिया गांधी राहुल गांधी के वजह से पीएम पद को ठुकरा दिया था। लेकिन उनकी बातों को तकनीकी रूप से नकारा जा चुका है। बीजेपी की नेता सुषमा स्वराज ने भी सोनिया गांधी के खिलाफ विदेशी मूल के मुद्दे पर मोर्चा खोल रखा था। उनका कहना था कि अगर सोनिया गांधी पीएम बनती हैं तो वह अपना सिर मुड़वा देंगी और सफ़ेद साड़ी पहनकर जमीन पर सोयेंगी।
बहरहाल, 2004 में कांग्रेस ने जिस तरह से छोटी छोटी पार्टियों को साथ लाकर बीजेपी को सत्ता से दूर कर दिया गया था। तब 15 राजनीति दलों के साथ यूपीए बना था। लेकिन इस बार “इंडिया”का कुनबा 26 का हो गया है। शायद वही प्लान इस बार भी कांग्रेस दोहराने की कोशिश में है। 2004 में सोनिया गांधी के पीएम बनने से इंकार करने पर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया था। इसके बाद कांग्रेस ने देश पर दस साल तक राज किया। लेकिन इस बीच सबसे बड़ी जो बात कही जाती है वह यह कि सोनिया गांधी “सुपर पीएम” थी।
क्या करना है? क्या नहीं करना है। यह सब उनके ही निर्णय पर निर्भर था। तो क्या कांग्रेस एक बार फिर पीएम उम्मीदवारी का पद छोड़ने की बात कर पार्टी के पक्ष में हवा बनाना चाहती है। या यह भी हो सकता है कि कांग्रेस जनता की सिम्पैथी बटोरने की कोशिश कर रही हो। हालांकि, अब न तो यह समय 2004 का है और न ही अब यूपीए है। यमुना से बहुत पानी बह चुका है। 2024 के लोकसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा देश शायद ही नकारात्मकता को तवज्जो दे।
जिस बीजेपी को हराने के लिए यूपीए बना उसका वजूद खत्म हो गया। अब नये नाम के साथ कांग्रेस बीजेपी के सामने है। लेकिन क्या नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष का इंडिया 2004 वाला करिश्मा दोहरा पायेगा। यह तो आने वाला समय बताएगा। फिलहाल तो कांग्रेस की पीएम मोदी के करिश्मा में उलझी हुई है।
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