जानिए सरनेम का इतिहास, जिस पर मचा है बवाल

जानिए सरनेम का इतिहास, जिस पर मचा है बवाल

राहुल गाँधी ने कर्नाटक के कोलार में 13 अप्रैल 2019 को चुनावी रैली के दौरान कहा था कि नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी का सरनेम कॉमन क्यों है? सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है? राहुल के इस बयान को लेकर बीजेपी विधायक और पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी ने उनके खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस दर्ज कराया था।

इस चार साल पुराने मामले में गुजरात की सूरत कोर्ट ने कल यानी गुरुवार को राहुल गांधी को दोषी ठहराया। कार्यवाही के दौरान राहुल गांधी कोर्ट में मौजूद रहे। राहुल गाँधी को आईपीसी की धारा 500 के तहत दोषी करार दिया गया है। इसमें 2 साल की सजा का प्रावधान है। हालांकि थोड़ी देर के बाद ही राहुल गाँधी को इस मामले में अपील के लिए 30 दिन की मोहलत भी मिल गई। वहीं अब कांग्रेस नेता राहुल गांधी को बड़ा झटका लगा है। दरअसल लोकसभा सचिवालय ने राहुल गांधी की संसद की सदस्यता को रद्द कर दिया है। राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद थे। बता दें कि सूरत कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद फैसला सुनाने के लिए 23 मार्च की तारीख तय की थी।

इसके बाद राहुल के वकील ने कोर्ट से कहा- इस पूरी घटना में कोई घायल नहीं हुआ। इससे किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है। इसलिए हम किसी प्रकार की दया की याचना नहीं करते हैं।

वहीं केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा, राहुल गांधी जो भी बोलते हैं उससे सिर्फ नुकसान ही होता है। उनकी पार्टी को तो नुकसान होता ही है, ये देश के लिए भी अच्छा नहीं है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने आज भी मुझे बताया कि राहुल गांधी के रवैये से सब खराब हो गया। उनकी पार्टी भी डूब रही है।

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने अपने खिलाफ कथित मोदी सरनेम टिप्पणी में दायर आपराधिक मानहानि मामले में दोषी पाए जाने के बाद ट्वीट किया, मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है। सत्य मेरा ईश्वर है, अहिंसा इसे प्राप्त करने का साधन है- महात्मा गांधी।

ये तो बात हो गई ‘मोदी’ सरनेम की, लेकिन दूसरी ओर ‘नेहरू’ सरनेम पर भी सियासत देखने मिली है। दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ महीने पहले नेहरू सरनेम को लेकर गांधी परिवार पर निशाना साधा था। पीएम ने राज्यसभा में कहा था, ‘मुझे ये समझ नहीं आता कि उनकी पीढ़ी का कोई भी व्यक्ति नेहरू सरनेम रखने से डरता क्यों है? उन्हें क्या शर्मिंदगी है? इतना महान व्यक्तित्व, अगर आपको मंजूर नहीं है, आपके परिवार को मंजूर नहीं है, और हमारा हिसाब मांगते रहते हो?’ लेकिन यहाँ सवाल यह है कि जिन सरनेम को लेकर संसद से लेकर अदालत तक बहस हो रही है, वो आए कहां से? हमें सरनेम लगाने की जरूरत क्यों पड़ी?

माना जाता है कि प्राचीन काल में सरनेम नहीं हुआ करते थे, लेकिन जैसे-जैसे इंसानी आबादी बढ़ती गई, वैसे-वैसे इसकी जरूरत महसूस होने लगी। सरनेम हमें किसी व्यक्ति की जाति, पेशे, स्थान जैसी बातें बताता है। इसी तरह हर क्षेत्र और भाषा में अलग-अलग सरनेम हैं जो कुछ न कुछ बताते हैं। बढ़ती जनसंख्या के साथ एक नाम के हजारों व्यक्ति मिल जाते है। जिस वजह से नाम के आधार पर उस व्यक्ति की पहचान कर पाना मुश्किल हो जाता है। जबकि उपनाम लग जाने से व्यक्ति की पहचान आसानी से हो जाती है।

वहीं बात यदि भारत की करें तो भारत में सरनेम की परंपरा हजारों साल पुरानी है। कई वैदिक पुराणों में सरनेम यानी उपनाम का जिक्र मिलता है, जो पिता, माता और गोत्र के नाम से लिए गए। भारत की 4 वेदों में से सबसे पुराने वेद ऋग्वेद में कहा गया है कि हर व्यक्ति के चार नाम होने चाहिए। एक नाम नक्षत्र के आधार पर, दूसरा नाम जिससे लोग उसे जानें, तीसरा नाम सीक्रेट हो और चौथा नाम सोमयाजी के आधार पर होना चाहिए। सोमयाजी यानी वो जो सोमयज्ञ करवाते हैं।
सरनेम को लेकर एक उत्तम उदाहरण है, नरेंद्र नाथ की लिखी किताब ‘द इंडियन हिस्टोरिकल क्वाटली’ इस किताब में नाम और उपनाम को लेकर काफी कुछ लिखा गया। इस किताब के मुताबिक, जब प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि बहुत से ऐसे लोग थे जिनके तीन-तीन नाम हुआ करते थे। उदाहरण के लिए- राजा हरिश्चंद्र. उन्हें वेधास और इक्ष्वाका के नाम से भी जाना जाता है. वेधा का मतलब है- वेद और इक्ष्वाका का मतलब उनके इक्ष्वाकु वंश से है।

इसी तरह से कई प्राचीन किताबों में एक ही व्यक्ति के दो नाम का जिक्र भी है। इनमें से एक उसका नाम है और दूसरा उसका गोत्र बताता है। जैसे- हिरण्यस्तूप अंगीरस, जिसमें हिरण्यस्तूप नाम है और अंगीरस गोत्र हैं। प्राचीन समय के कई ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जो बताते हैं कि लोग अपने नाम के साथ पिता या माता का नाम भी जोड़ते थे। जैसे- दीर्घात्मा मामतेय यानी ममता का बेटा, और कुत्स अर्जुनेय यानी अर्जुन का बेटा।

जबकि हिन्दू धर्म के एक प्राचीन धर्मशास्त्र मनुस्मृति में भी सरनेम का जिक्र मिलता है। इसमें लिखा है, ब्राह्मणों को अपने नाम के बाद ‘सरमन’ (खुशी या आशीर्वाद), क्षत्रियों को ‘वर्मन’ (शक्ति और सुरक्षा), वैश्यों को ‘गुप्ता’ (समृद्धि) और शूद्रों को ‘दास’ (गुलाम या निर्भरता) लगाना चाहिए।

वहीं प्राप्त दस्तावेजों से पता चलता है कि दुनिया की कई सभ्यताओं और परंपराओं में सरनेम रखने का जिक्र मिलता है। जैसे- दो हजार साल पहले चीन में फू शी नाम के राजा ने सरनेम रखने का आदेश दिया था। ऐसा इसलिए ताकि लोगों की गिनती हो सके। शुरुआत में चीन के लोग अपना सरनेम मां के नाम पर रखते थे, लेकिन बाद में इसे पिता के नाम पर रखा जाने लगा। इसी तरह अंग्रेजी में सरनेम या उपनाम के मुख्य स्रोत है। जिससे किसी व्यक्ति के पेशे, स्थान, निकनेम या रिश्ते का पता चलता है। उदाहरण के लिए- आर्चर यानी शिकारी और स्कॉट यानी स्कॉटलैंड का रहने वाला। वहीं बात यदि इंग्लैंड की करें तो यहाँ एक हजार साल पहले उपनाम रखने की प्रथा शुरूवात हुई। शुरुआत में लोग अपनी मर्जी से सरनेम रखते थे, लेकिन बाद में माता-पिता के नाम, पेशे, स्थान जैसी चीजों के आधार पर सरनेम रखे जाने लगे।

netcredit.com के अनुसार दुनिया के ज्यादातर देशों में सरनेम यूरोपीय परंपरा से प्रभावित मिलते हैं। अफ्रीका में पुर्तगालियों का कब्जा मिला है, इसलिए यहां पुर्तगानी सरनेम की झलक मिलती है। यहां के कई देशों में ‘केपे वरदे’, ‘लोपेस’, ‘साओ तोमे’ और ‘प्रिंसिप’ जैसे सरनेम काफी आम है। तो वहीं, जिन देशों में मुस्लिम आबादी ज्यादा है, वहाँ ‘मोहम्मद’, ‘अली’ और ‘इब्राहिम’ जैसे सरनेम आम हैं।

दक्षिण एशिया में ‘तेन’, ‘चेन’ और ‘झेन’ जैसे सरनेम आम हैं। एक अनुमान के मुताबिक, चीन में हर 13 लोगों में से एक का सरनेम ‘वांग’ है। जबकि साउथ कोरिया और नॉर्थ कोरिया में हर पांच में से एक शख्स का सरनेम ‘किम’ और वियतनाम में हर चार में से एक का ‘यूगेन’ होता है। अमेरिका में ज्यादातर लोगों का सरनेम ‘स्मिथ’ होता है। अनुमान है कि हर 121 में से एक का सरनेम ‘स्मिथ’ है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी सबसे आम सरनेम स्मिथ ही है।
भारत में सबसे आम सरनेम ‘देवी’ और पाकिस्तान में ‘खान’ है। वहीं, यूरोपीय देशों में ‘श्मिट’, ‘मर्फी’, ‘पीटर्स’, ‘सिल्वा’, ‘मार्टिन’, ‘मूलर’ जैसे उपनाम आम हैं।

वर्तमान समय में व्यक्ति के उपनाम का अपना महत्व है। उपनाम के आधार पर आपकी पहचान समाज में होती है। उपनाम के कारण ही व्यक्ति की पहचान बनती है। हालांकि आज के समय में कई हस्तियाँ है जो नाम पर ज्यादा फोकस नहीं करती सिर्फ अपने नाम से ही काम चला लेते है। लेकिन कई बड़े बड़े दिग्गज जो अपने नाम से ज्यादा उपनाम से पहचाने जाते है। यह तो व्यक्ति के विचार पर निर्भर है कि वो जाति को कितना महत्त्व देता है। हमारे परिवार के इतिहास, हमारे वंश, हमारे पूर्वजों द्वारा किए गए कार्यों और अन्य विवरणों का पता लगाने में उपनाम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

वहीं हमारे देश में उपनामों की स्थिति भिन्न है। यह दक्षिण में नाम के पहले लगता है तो शेष भारत में नाम के बाद लगाया जाता है। अधिकांशतः इससे वर्ण, जाति, गोत्र, क्षेत्र आदि का आभास हो जाता है। उपनाम शर्मा, शुक्ला, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, तिवारी आदि हैं तो पता चल जायेगा कि ये उत्तर प्रदेश व उसके आस-पास के क्षेत्र के ब्राह्मण है। बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी आदि बंगाल के ब्राह्मण है तथा कौल कश्मीरी ब्राह्मण है। इसी प्रकार अग्रवाल, गुप्ता, भार्गव, मित्तल, सिंघल आदि वैश्य वर्ण से संबंध रखते हैं; सक्सेना, सिन्हा, श्रीवास्तव आदि कायस्थ होते हैं। हमारे यहां लोग नाम की बजाय अधिकतर उपनामों से जाने व पुकारे जाते हैं। लेकिन दक्षिण भारत के लोग ही अपने वास्तविक नाम से जाने जाते हैं और पुकारे जाते हैं। यह थी उपनाम की विशेषता।

ये भी देखें 

मुंबई समुद्र से दरगाह हटी, पर बनाने वाले कौन?

Exit mobile version