पायलट बाहर?, “गहलोत फिर से”

पायलट बाहर?, “गहलोत फिर से”

राजस्थान में सचिन पायलट और सीएम अशोक गहलोत के बीच लड़ाई का कारण सभी को मालूम है। इन दोनों के बीच सीधी लड़ाई राजस्थान में मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए हो रही है। दोनों के मध्य विवाद को समझने के लिए पुरानी बातों पर जाना होगा।

दरअसल आज से 21 साल पहले 10 फरवरी 2002 को सचिन पायलट ने कांग्रेस ज्वाइन किया था। जयपुर की किसान रैली में पायलट कांग्रेस का हिस्सा बने, उस दौरान अशोक गहलोत भी मंच पर थे। 2004 में सचिन पायलट 26 साल की उम्र में दौसा लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर जीत गए। हालांकि उस वक्त सचिन पायलट अशोक गहलोत के निशाने पर बिल्कुल नहीं थे। उधर 2008 में गहलोत की दोबारा सरकार बनी। 2009 में सचिन पायलट ने अजमेर से लोकसभा चुनाव लड़ा और मनमोहन सरकार में मिनिस्टर ऑफ स्टेट बने। यहीं से अशोक और सचिन के बीच बदलाव होने लगा। पायलट धीरे-धीरे गहलोत को ‘खटकने’ लगे। फिर 2013 के विधानसभा चुनाव में अशोक गहलोत की सरकार चली गई।

2013 के विधानसभा चुनाव में BJP को 163 सीट मिली और कांग्रेस के खाते में महज 21 सीटें आई। यह कांग्रेस का राजस्थान में सबसे बुरा प्रदर्शन था। हार के बाद पार्टी हाईकमान ने 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले सचिन पायलट को महज़ 36 साल की उम्र में राजस्थान का पुलिस क्लीयरेंस सर्टिफिकेट अर्थात PCC चीफ बना दिया। उस दौरान गहलोत कैंप ने पायलट की नियुक्ति को सही नहीं समझा। इसके साथ ही पार्टी में खेमेबाजी शुरू होने लगी। पायलट राहुल गांधी के करीबी थे और गहलोत की दूरी बढ़ने लगी थी। 2014 के आम चुनाव में राजस्थान से कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई और पायलट खुद चुनाव हार गए थे। हार ने सचिन पायलट और अशोक गहलोत में तनातनी ला दी। वहीं साल 2017 में गहलोत को दिल्ली बुलाकर गुजरात चुनाव से पहले गुजरात का प्रभारी बना दिया गया। गहलोत के राजस्थान से हटने पर पायलट ने दमखम दिखाया।

बता दें कि सचिन पायलट की अगुवाई में 2018 का राजस्थान विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने बहुमत से जीत लिया। मुख्यमंत्री सचिन पायलट बनना चाहते थे और बना दिए गए अशोक गहलोत। वरिष्ठता और अनुभव के नाम पर अशोक को यह पद दिया गया। पायलट को उप मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई। पहली बार अशोक गहलोत को राजस्थान में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए सीधे तौर पर चुनौती मिली। और यहीं से दोनों के बीच शुरू हुई राजनीतिक विवाद अब तक जारी है।
मुख्यमंत्री की कुर्सी ना मिलने की टीस निश्चित रूप से सचिन पायलट को हमेशा रही। मई 2019 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आए और कांग्रेस राजस्थान में सभी 25 सीटें हार गई। उस समय सचिन पायलट को आस जागी कि अब शायद आलाकमान उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

जिसके बाद नाराज पायलट जून 2020 में कोरोना महामारी के दौरान 19 विधायकों को लेकर लापता हो गए। राजस्थान में कांग्रेस सरकार बचेगी या नहीं, यह संकट गहरा गया। कांग्रेस को अपने और समर्थक निर्दलीय विधायकों को होटल में शिफ्ट करना पड़ा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने राजनीतिक कौशल से सरकार बचा ली, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने दोनों नेताओं के बीच खाई को और गहरा कर दिया। उस दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पायलट को नाकारा और निकम्मा तक कहा। पायलट और उनके समर्थक विधायकों से सरकार तथा संगठन के दायित्व छीन लिए गए। पायलट की पुनः वापसी हुई, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मजबूत नेता बनकर उभरे।

हालांकि इस पूरे घटनाक्रम में नया मोड़ तब आया, जब राहुल गांधी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से साफ इनकार कर दिया। अशोक गहलोत के नाम पर सहमति बनती नजर आई। एक बार को लगा कि अशोक गहलोत अब कांग्रेस की कमान संभालेंगे। गहलोत ने यह कोशिश भी की कि वो मुख्यमंत्री की कुर्सी के साथ-साथ राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व संभालते रहें। सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन यहां पर सचिन पायलट मात खा गए। उनका अति उतावलापन ने उन्हें कुर्सी से फिर दूर कर दिया। उस दौरान पायलट ने ऐसे जताया, जैसे अशोक गहलोत के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही उन्हें राजस्थान की कुर्सी मिल जाएगी। शायद आलाकमान से उन्हें आश्वासन मिला था।

यही बात घोर प्रतिद्वंद्वी अशोक गहलोत को चुभ गई। राष्ट्रीय अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद को ठुकरा कर अशोक गहलोत ने राजस्थान के मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुरक्षित करना ज्यादा जरूरी समझा। उन्होंने विद्रोह कर डाला, जिसकी गांधी परिवार ने भी कल्पना नहीं की थी, क्योंकि राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले थे और देश जोड़ने से पहले पार्टी जोड़ने को लेकर कांग्रेस निशाने पर आ गई।

एक ओर पीएम मोदी सरकार ने पुलवामा हमले का पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देकर देश का सिर गौरव से ऊंचा किया, वहीं दूसरी ओर राजस्थान की कांग्रेस सरकार पुलवामा के वीर बलिदानियों की वीरागंनाओं का अपमान करने में जुटी है। दरअसल मार्च 2023 में राजस्थान के जयपुर में पुलवामा हमले में शहीद हुए राजस्थान के तीनों वीरों की पत्नियां सरकार की उपेक्षा को लेकर धरने पर थी। शहीदों की पत्नियों ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री आवास की ओर जाते वक्त पुलिस ने उनके साथ मारपीट की थी। उनके साथ अभद्रता और मारपीट की जिसके चलते शहीद रोहिताश्व लांबा की पत्नी मंजू जाट घायल हो गईं थी। उन्हें सवाई मानसिंह अस्पताल में भर्ती करवाया गया था।

शहीदों की पत्नियों ने कहा कि उनके पतियों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, लेकिन राज्य सरकार उनकी शहादत के सम्मान में की गई घोषणाओं को पूरा करने की बजाय उनके परिवारों को अपमानित कर रही है। वीरांगनाओं ने कहा कि यदि सरकार उनकी जायज मांगे पूरी नहीं कर सकती है। यदि उनको इच्छामृत्यु नहीं दे सकती है, तो वो उनको गोली ही मार दे।

पुलवामा शहीदों की वीरांगनाओं की पीड़ा इसलिए भी सही प्रतीत होती है, क्योंकि इससे पहले सैनिक कल्याण राज्यमंत्री राजेंद्र गुढ़ा में प्रदेश के कलेक्टर्स और रेवेन्यू ऑफिसर पर आरोप लगाया था कि– वे शहीदों के परिजनों को कॉपरेट नहीं करते। वे उन्हें चक्कर कटवाते हैं। उन्होंने साफ कहा था कि शहीद के परिजनों को जो सुविधाएं या सरकारी नौकरी मिलनी थीं, वो अब तक पेंडिंग हैं। पड़ताल में भी यह सामने आया है कि राजस्थान के 81 शहीदों के परिजनों को सालों से नौकरी नहीं मिली है। देश की रक्षा के लिए प्राण देने वाले शहीदों के परिजन अब सरकारी सुविधाओं के लिए दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। अनुकंपा नियुक्ति पाने के लिए रोजाना सरकारी ऑफिस के चक्कर काट रहे है। इनमें 1962 में भारत-पाक और 1965 में हुए भारत-चीन युद्ध के शहीदों के परिजन भी हैं।

इस घटना के बाद अशोक गहलोत के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए बड़े स्तर पर बीजेपी नेताओं ने गिरफ्तारी भी दी। हालांकि सिर्फ बीजेपी नहीं बल्कि कॉंग्रेस ने भी इसका विरोध किया था जिसमें पुलवामा हमले की शहीदों की वीरांगनाओं के मामले में सचिन पायलट ने गहलोत पर निशाना साधा था। पायलट ने कहा था कि इस मामले में किसी को राजनीति नहीं करनी चाहिए। सचिन पायलट ने कहा था कि वीरांगनाओं के मुद्दे को कांग्रेस-बीजेपी के नजरिए से नहीं देखना चाहिए। पायलट ने अशोक गहलोत का नाम लिए बगैर कहा था कि छोटी-मोटी मांग को पूरा किया जा सकता है।

इसी विवाद के चलते धारीवाल की ओर से राजस्थान विधानसभा में राज्यसभा सांसद और बीजेपी नेता डॉ. किरोड़ीलाल मीणा को आतंकी कह दिया था। जिसके बाद कांग्रेस की तेज तर्रार विधायक दिव्या मदेरणा ने धारीवाल के इस बयान की कड़े शब्दों में निंदा की थी।

कांग्रेस विधायक दिव्या मदेरणा सोशल मीडिया के अपने ट्विटर पेज पर लिखा था कि ‘मैं शांति धारीवाल के वक्तव्य की बड़े शब्दों में निंदा करती हूं। दिव्या ने आगे लिखा कि ‘मुख्यमंत्री जी का शहीद के परिवार से बाहर नौकरी नहीं देना एक उचित कदम है, लेकिन क्या पुलिस की ओर से किए गए अभद्र व्यवहार को छुपाने के लिए शांति धारीवाल की ओर से किरोड़ीलाल जी को आतंकी समान उपाधि देना क्या उचित है।’ इसके बाद से ही कयास लगाया जाने लगा की क्या दिव्य का भी बीजेपी में प्रवेश होगा। यह बात तो हुई विवादों की।

वहीं राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर ओवैसी ने भी घोषणा की दर्सल हैदराबाद सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM भी राजस्थान में राजनीतिक जमीन तलाशने में जुटी है। इसके लिए पार्टी प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी 11 मार्च को दो दिवसीय दौरे पर बाड़मेर गए थे। इंडो-पाक बॉर्डर के गांव गागरिया गांव में जनसंपर्क सभा को संबोधित किया था। इसी परिपेक्ष्य में प्रदेश प्रवक्ता जावेद अली ने कहा था कि हमारी पार्टी राजस्थान में 40-45 सीटों पर चुनाव लड़ेगे और बाड़मेर में शिव व चौहटन विधानसभा चुनाव लड़ने का प्लान है। प्रवक्ता ने कहा कि अभी तक हमारे संगठन इतने मजबूत नहीं है। जैसे-जैसे संगठन मजबूत होगा वैसे-वैसे चुनाव की दावेदारी पेश करेंगे।

वहीं आम आदमी पार्टी भी राजस्थान की सभी 200 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसकी घोषणा खुद पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव संदीप पाठक ने की थी। इस दौरान संदीप पाठक ने कहा था कि इस बार ऐसा चुनाव लड़ा जाएगा, जिसकी कोई उम्मीद भी नहीं कर सकता, इसके लिए पूरी तैयारी की गई है। यानी इस बार राजस्थान में होनेवाले विधानसभा में कई वाद-विवाद देखने को मिलने वाले है। आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, ओवैसी की पार्टी और वामदलों ने चुनाव लड़ने के लिए पूरी तैयारी कर ली है।

वहीं बात यदि वर्तमान की करें तो राजस्थान में इसी वर्ष विधानसभा चुनाव है। चुनावी साल में सभी पार्टियों ने कमर कस ली है। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी भी अंदरुनी कलह से ऊपर उठकर सत्ता में वापसी की पूरजोर कोशिशों में लगी है। यानी एक बार पुनः राजस्थान में सियासी घमासान मच चुका है। दरअसल शुक्रवार को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी यानी AICC के इंस्टाग्राम अकाउंट पर एक वीडियो जारी किया गया। उसमें अशोक गहलोत को सुपर मारियो की तर्ज पर दिखाया गया है। इसका अर्थ यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का चेहरा होंगे! यानि कांग्रेस 2023 का विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के चेहरे पर ही लड़ेगी। इस वीडियो में अशोक गहलोत की योजनाओं का भी जिक्र किया गया है।

दरअसल कांग्रेस के इंस्टाग्राम पर गहलोत सरकार की उपलब्धि का एक रील तैयार किया गया है। इसमें लिखा गया है ‘मिशन 2023-28 गहलोत फिर से’ इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस राजस्थान में फिर से गहलोत की अगुआई में अगला विधानसभा चुनाव लड़ेगी। इस मैसेज से साफ है कि कांग्रेस आलाकमान चाहता है कि गहलोत को हटाने से पार्टी को नुकसान हो सकता है। ऐसे में पार्टी फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहती है।

अब सवाल यह है कि ऐसे में सचिन पायलट का क्या होगा, क्या पायलट का मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं होगा। ऐसा इसलिए कि लंबे समय से प्रदेश में सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की मांग की जा रही है। वहीं पायलट समर्थक विधायक अपने नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं, अगर 2023 में कांग्रेस रिपीट हुई और पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो उनके नेता बेहद नाराज होंगे।

दरअसल, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि राजस्थान में अगला सीएम कौन होगा। इसका फैसला चुनाव बाद ही किया जाएगा। उन्होंने कहा था कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों पार्टी के स्तंभ हैं। ऐसे में कांग्रेस के आधिकारिक इंस्टाग्राम पर लिखा गया मैसेज पायलट गुट को नाराज कर सकता है।

वहीं अब जब अशोक गहलोत को ही चेहरा बनाने की बात तय हो गई है तो सवाल उठता है कि सचिन पायलट के सामने अब क्या विकल्प बचे हैं? पूरे मामले पर एक नजर डालें तो एक बात स्पष्ट है कि अशोक गहलोत कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को यह समझाने में सफल रहे हैं कि वह पायलट के मुकाबले ज्यादा वफादार हैं। फिलहाल जो हालात दिख रहे हैं उसमें यही लगता है कि पायलट के सामने गहलोत के खिलाफ खुलकर आने के बजाय कांग्रेस में ही रहकर अपनी बारी का इंतजार करने के बजाय दूसरा विकल्प नहीं दिखता है। उन्हें विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन का इंतजार करना होगा।

पहले सचिन पायलट के समर्थन में 30 विधायक बताए जा रहे थे, लेकिन पिछले डेढ़ साल में सिर्फ 19 बचे हैं। ऐसे में पायलट को चाहिए की वह पहले खुद को मजबूत करें। वो मजबूत होंगे तो पार्टी में स्वयं कद बढ़ेगा। सचिन पायलट के सामने चुनौती है कि वह आलाकमान का भरोसा जीतें।

तो वहीं दूसरी और सचिन पायलट के सामने कांग्रेस संगठन और आलाकमान से निराश होकर ज्योतिरादित्य सिंधिया वाली राह पकड़ने का भी एक विकल्प है। बीजेपी में जाने के आलावा उनके पास अपनी पार्टी बनाने का भी विकल्प है। उनके राजनीतिक क्षेत्र यानी दौसा इलाके के कदावर बीजेपी नेता सांसद किरोड़ीलाल मीणा पायलट को कई बार कांग्रेस पार्टी छोड़ने की नसीहत दे चुके हैं। वहीं आरएलपी और आम आदमी पार्टी की ओर से भी पायलट को आमंत्रण है। हालांकि यह तो वक्त ही बताएगा कि सचिन पायलट का अगला राजनीतिक कदम क्या होता है। हालांकि यहाँ एक बात तो तय है कि कांग्रेस आलाकमान फिलहाल सचिन पायलट के मुकाबले अशोक गहलोत पर ज्यादा भरोसा जता रही है।

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