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Sunday, November 24, 2024
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इसलिए नागालैंड में नहीं होता विपक्ष

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नागालैंड में लगातार पांचवी बार मुख्यमंत्री बने नेफ्यू रियो के इर्द-गिर्द पिछले दो दशक से राज्य की राजनीति सिमटी हुई है। नगालैंड चुनाव के नतीजे दो मार्च को आए हैं, जिसमें एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन ने पूर्ण बहुमत के साथ जीत दर्ज की राज्य की कुल 60 विधानसभा सीटों में से एनडीपीपी को 25 और बीजेपी को 12 सीटें मिली। यह दोनों ही पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ी थी और 37 सीटों के साथ सत्ता में वापसी करने में कामयाब रही।

इसी बीच नागालैंड में भारतीय राजनीति में एक नई सियासत देखने को मिल रही है। एक ओर महाराष्ट्र में एनसीपी बीजेपी का विरोध करती है। महाराष्ट्र में ही नहीं अन्य राज्यों में भी एनसीपी बीजेपी के खिलाफ रहती है। वर्तमान में एनसीपी महाविकास आघाडी में शामिल है जिसमें उद्धव ठाकरे की शिवसेना और कांग्रेस भी हैं। वहीं, बिहार में बीजेपी के खिलाफ बने महागठबंधन के दल जेडीयू के विधायक ने नागालैंड में बीजेपी समर्थित सरकार को समर्थन दिए हैं। इसी तरह एनसीपी के भी विधायक बीजेपी के साथ गए हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर हर बार क्यों नागालैंड विधानसभा विपक्षमुक्त हो जाता है।

हालांकि नगालैंड में यह पहला मौका नहीं है जब विपक्षी दलों ने नेफ्यू सरकार के साथ हाथ मिलाया है बल्कि 2015 से यही मॉडल चला आ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि नगालैंड में सभी दल सरकार के साथ खड़े हो जाते है?

एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन को नगालैंड चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिला था। इसके बाद एलजेपी (रामविलास), आरपीआई (अठावले), एनपीएफ, एनपीपी ने एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन को ‘बिना शर्त’ समर्थन दिया। इसके अलावा नीतीश कुमार की जेडीयू के एक विधायक और शरद पवार की एनसीपी के सात विधायकों ने भी नेफ्यू रियो के नेतृत्व वाली एनडीपीपी-बीजेपी को ‘बिना किसी शर्त’ समर्थन पत्र सौंपा। बता दें कि महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी भले ही बीजेपी के खिलाफ हो, लेकिन नगालैंड में एनडीपीपी-बीजेपी गठबंधन के साथ खड़ी है। नगालैंड में एनसीपी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। बावजूद इसके एनसीपी की स्थानीय इकाई ने नेफ्यू रियो सरकार को बिना शर्त समर्थन दिया है। इसी तरह नीतीश कुमार की जेडीयू बिहार में बीजेपी के विरोधी खेमे महागठबंधन के साथ मिलकर सरकार चला रही है, लेकिन नगालैंड में जेडीयू के टिकट पर जीते विधायक ने बीजेपी गठबंधन को समर्थन दिया है।

इसी बीच असदुद्दीन ओवैसी ने बीजेपी समर्थित सरकार में शामिल होने पर एनसीपी मुखिया की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी के नेता नवाब मलिक को जेल भेजने वालों का शरद पवार ने समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि मै कभी बीजेपी का समर्थन नहीं करूँगा।

वहीं नगालैंड में सत्ता और विपक्ष के एक साथ आने पर सभी के मन में सवाल है कि आखिर ये सियासी चमत्कार कैसे हो जाता है। इसके पीछे वजह यह है कि नागालैंड में स्थायी राजनीतिक समाधान के लिए विपक्ष के सभी दल नेफ्यू रियो सरकार के साथ खड़े रहने ही बेहतर समझते हैं, क्योंकि एनडीपीपी का बीजेपी के साथ गठबंधन है और केंद्र में बीजेपी की सरकार है. नगालैंड की समस्या का समाधान केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बाद ही होना है। इसीलिए नगालैंड के सभी दल सरकार से खुद को अलग-थलग नहीं रखना चाहते हैं।

हम सभी ने यह कहावत सुनी है कि एक छोटा परिवार सुखी परिवार होता है। लेकिन महज 22 लाख की आबादी वाला नागालैंड सुखी नहीं, अशांत है। ऐलानिया तौर पर, कानूनी तौर पर अशांत है। विद्रोह या उग्रवाद शब्द का जिक्र होते ही हमारे दिमाग में कश्मीर का नाम सबसे पहले उठता है। सेना के द्वारा वहां दिन रात अभियान चलाया जाता है लेकिन मुसीबत जड़ से नहीं जाता है। अगर आपको ये कहूं कि हिन्दुस्तान की सबसे पुरानी और खूंखार उग्रवाद कश्मीर में नहीं बल्कि वहां से 2 हजार किलोमीटर दूर नगालैंड में है तो आपको थोड़ा अटपटा जरूर लगेगा। लेकिन सच्चाई यही है कि नागालैंड की अस्थिरता भारत के आज़ाद होने से पहले से चली आ रही है। कुल मिलाकर कहे तो हमने नगा आंदोलन का पूरा इतिहास पढ़कर उससे जुड़े समझौते की जानकारी, इसकी अहमियत समझाने की कोशिश इस रिपोर्ट के माध्यम से करने की कोशिश की है। इसके साथ ही वर्तमान समय में इस विषय पर चर्चा करने की क्या वजह है इसके बारे में भी आपको बताएंगे।

जनमत संग्रह का जिक्र जब भी होता है तो कश्मीर और जवाहर लाल नेहरू का जिक्र भी जरूर होता है। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब नागालैंड ने अपनी आजादी के लिए रैफरेंडम करा लिया था। भारत की आजादी के वक्त जब पूरे मुल्क का ध्यान अलग होकर बने पाकिस्तान पर था। लेकिन उत्तर पूर्व के कई राज्य अलग होने पर अड़े थे। 1951 में नगा गुटों ने तो एक जनमत संग्रह भी करवा लिया था।

हालांकि वर्षों की बातचीत के बाद, 1976 में नागालैंड के भूमिगत समूहों के साथ शिलांग समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, लेकिन इसे कई शीर्ष एनएनसी नेताओं ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह नागा संप्रभुता के मुद्दे को संबोधित नहीं करता है और नागाओं को भारतीय संविधान को स्वीकार करने के लिए मजबूर करता है। पूर्वोत्तर में स्थित नगा समुदाय और नगा संगठन ऐतिहासिक तौर पर नगा बहुल इलाकों को मिलाकर एक ग्रेटर नगालिम राज्य बनाने की लंबे समय से मांग कर रहे हैं। ‘नगालिम’ या ग्रेटर नगा राज्य का उद्देश्य मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल इलाकों का नगालिम में विलय करना है। यह देश की पुरानी समस्याओं में से एक है। प्रस्तावित ग्रेटर नगालिम राज्य के गठन की मांग के अनुसार मणिपुर की 60% ज़मीन नगालैंड में जा सकती है। मैतेई और कुकी ये दोनों समुदाय मणिपुर के इलाकों का नगालिम में विलय का विरोध करते हैं।

जबकि अटल बिहारी वाजपेयी वो पहले नेता थे, जिन्होंने बतौर ‘भारत संघ के प्रधानमंत्री’ नागाओं की अलहदा पहचान और इतिहास का ज़िक्र किया। साथ ही अटल ने ये माना कि इंसरजेंसी कुचलने में फौज से कुछ गलतियां भी हुईं। अपनी पहचान को लेकर भावुक और लंबे समय से बंदूक के साये में जी रहे नागाओं को ये बात बहुत पसंद आई।
यह संगठन इलाके के उन कई संगठनों में शामिल है जो चीन, म्यांमार, बांग्लादेश और भूटान से लगी सीमा के क्षेत्रों में सक्रिय हैं। ग्रेटर नगालिम की मांग को लेकर एनएससीएन-आईएम नगा होमलैंड की मांग करता रहा है जिसमें पूर्वोत्तर के कई राज्यों के इलाकों के अलावा पड़ोसी म्यांमार के कुछ इलाके भी शामिल होंगे। यह संगठन 1997 से भारत सरकार के साथ बातचीत कर रहा है।

क्यों लागू नहीं हो पाता नगा शांति समझौता चलिए जानते है-
नगा संगठनों को सरकार बता चुकी है कि उनकी मांगों का समाधान नगालैंड की सीमा के भीतर ही होगा और इसके लिये पड़ोसी राज्यों की सीमाओं को बदलने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। असम सरकार कहती रही है कि किसी भी कीमत पर राज्य का नक्शा नहीं बदलने दिया जाएगा और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा हर हाल में की जाएगी। मणिपुर की सरकार का यह मत रहा है कि नगा समस्या के समाधान से राज्य की शांति भंग नहीं होनी चाहिये। अरुणाचल प्रदेश सरकार ने भी साफ कर दिया है कि उसे ऐसा कोई समझौता मंजूर नहीं होगा जिससे राज्य की सीमा प्रभावित हो। दूसरी ओर, क्षेत्रीय एकीकरण अर्थात् नगा इलाकों का एकीकरण नहीं होने की स्थिति में नगा विद्रोही गुट किसी प्रकार का समझौता करने के इच्छुक नहीं हैं। विभिन्न नगा समूहों में तीखे मतभेद भी रहे हैं, इसलिये किसी समझौते को आगे बढ़ाने में कठिनाई आती है, अतीत में बार-बार ऐसा देखने को मिला है। इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में नगा-बहुल क्षेत्रों को एक करने की मांग को दूसरे समुदायों से चुनौती मिल सकती है।

वहीं मोदी सरकार के आने के बाद पुनः तस्वीर दरअसल, नागालैंड में करीब छह दशक से जारी संघर्ष को खत्म करने के लिए 3 अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एनएससीएन की मौजूदगी में नगा शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. हालांकि, साल 1997 में केंद्र सरकार और सबसे बड़े विद्रोही समूहों में शामिल नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम (एनएससी-आईएम) के बीच संघर्ष विराम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। इसे आगे बढ़ाने का काम मोदी सरकार ने किया और एनएससीएन से बातचीत को फिर से शरू किया था।

सीएम नेफ्यू रियो के नेतृत्व में नगा शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए एनपीएफ के साथ एक प्रस्ताव पारित किया गया था। इस प्रस्ताव में महत्वपूर्ण मुद्दा रहा जो दशकों से लंबित है और पार्टियों ने शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण राजनीतिक समाधान प्राप्त करने के लिए एकजुट होने का संकल्प लिया था। इसके बाद 2015 में सभी दल एक साथ आ गए थे। यह सब केंद्र की मोदी सरकार की पहल पर नगा शांति वर्ता शुरू करने की दिशा में कदम उठाया था।

भारत के पूर्वोत्तर में स्थित नगा समुदाय एवं नगा संगठन नगा बहुल इलाकों को लेकर एक ग्रेटर नगालिम राज्य बनाने की लंबे समय से मांग करते रहे हैं। इस विषय पर उनकी केंद्र सरकार से कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है। साथ ही नगा नेता प्राय: इस बात पर भी ज़ोर देते रहे हैं कि नगाओं का गौरवशाली इतिहास रहा है, कि वे कभी किसी के अधीन नहीं रहे, इसलिये कोई सम्मानजनक समझौता तभी होगा जब भारत सरकार इस बात को नज़रअंदाज़ न करे। नगा संगठन के स्थायी शांति समझौते की प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रही है, लेकिन इसके लिये कोई समय-सीमा नहीं तय की गई है, जो कि मौजूदा हालात में संभव भी नहीं है। केंद्र सरकार इस समझौते को अंतिम स्वरूप देने से पहले सभी प्रमुख नगा संगठनों की राय जानना चाहती है, क्योंकि इसके बिना कोई भी समाधान स्थायी नहीं हो सकता।

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