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Friday, September 20, 2024
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ठाकरे की रैली कोंकण में ही क्यों?

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चुनाव आयोग के फैसले के बाद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को शिवसेना का नाम और चिन्ह मिलने के बाद आखिरकार उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र फतह करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इससे पहले भी उन्होंने घोषणा की थी कि वह महाराष्ट्र पर विजय प्राप्त करेंगे। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हो पाया था। लेकिन अब वह मातोश्री के प्रांगण से निकल कर कोंकण जा रहे है, दरअसल कोंकण में उनके गांव में एक जनसभा आयोजित की जाएगी। उन्होंने कार्यकर्ताओं से अपील की है कि मैदान पर्याप्त नहीं होना चाहिए, इतनी भीड़ इकट्ठी होनी चाहिए।

कोंकण उद्धव ठाकरे का गढ़ भी रहा है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर उद्धव ठाकरे गुट का अनुमान है कि वहां भारी भीड़ जमा हो सकती है। लेकिन कुछ समूह इस भीड़ के लिए विशेष प्रयास करते नजर आ रहे हैं। दरअसल उद्धव ठाकरे की इस सभा में शामिल होने के लिए मराठी मुस्लिम संगठन की ओर से एक पर्चा जारी किया गया है। पत्रक में कहा गया है कि कोंकण के मुस्लिम समुदाय को पांच मार्च को उद्धव ठाकरे की गांव की सभा में हजारों की संख्या में शामिल होना चाहिए। हालांकि यह पत्र आश्चर्यजनक लगता है, इसे स्वाभाविक भी कहा जा सकता है। शायद उद्धव ठाकरे गुट को लगा होगा कि इस सभा में अपेक्षित भीड़ नहीं जुट पाएगी।

उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के खिलाफ 2019 में महाविकास अघाड़ी का प्रयोग सच हुआ। उद्धव ने कहा हमने ऐसा प्रयोग करके कोई पाप नहीं किया, हमने कांग्रेस-राष्ट्रवादी के साथ जाकर गलत नहीं किया, मेरे ही लोगों ने मुझे धोका दे दिया। लेकिन कुछ दिनों पहले उन्होंने बयान दिया था कि ये दोनों पार्टियां एक-दूसरे को सपोर्ट करती हैं। उद्धव ठाकरे के समर्थन ने शिवसेना के एक बड़े वर्ग को नाराज कर दिया होगा। क्योंकि बालासाहेब ठाकरे जब थे तब उन्होंने इन दोनों पार्टियों के साथ कभी भी गठबंधन करने का सपना नहीं देखा होगा, लेकिन उद्धव ठाकरे ने कर यह दिखाया है।

इसके बाद से उद्धव ठाकरे ने अलग-अलग समूहों के वोटरों से संपर्क करना शुरू किया। हिंदुत्व के मुद्दे पर साथ रहे उद्धव ठाकरे के वोटर इस कांग्रेस-राष्ट्रवादी गठबंधन की वजह से इसमें से कुछ लोग यदि उद्धव ठाकरे से अलग हो गए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इसके अलावा शिवसेना का मराठी वोटरों पर पहले जैसा जोर नहीं रहा है। वर्ली में आदित्य ठाकरे ने चुनाव के दौरान केम छो वर्ली कहकर गुजराती वोटरों से अपील भी की थी। इतना ही नहीं उस चुनाव को जीतने के लिए उन्हें वहां के दो विधायकों को विधान परिषद की सदस्यता दिलाकर रास्ता बनाना पड़ा था।

एकनाथ शिंदे और 40 विधायकों ने जैसे ही अलग रास्ता अपनाया, इसके साथ ही यह भी साफ हो गया कि यह नाराजगी कितनी बड़ी है। इसलिए अब नए मतदाताओं की तलाश जरूरी है। कांग्रेस के राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल होने के साथ ही प्रयास शुरू हो गए थे कि शिवसेना को उनके हक का मुस्लिम वोट मिल जाएंगे। भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस-राष्ट्रवादियों के साथ गठबंधन किया। लेकिन इसके लिए उन्हें कई समझौते करने पड़े। कांग्रेस एनसीपी को साथ में राजनीति करते हुए स्वत: ही मुस्लिम नेता की भूमिका स्वीकार करनी पड़ी। तभी एक तस्वीर सामने आई कि शिवसेना के कुछ कार्यकर्ता नमाज पढ़ने की प्रतियोगिता कर रहे हैं तो कुछ उर्दू भाषा की प्रतियोगिता कर रहे हैं। जनाब बालासाहेब ठाकरे का उल्लेख करने वाला एक बैनर चर्चा में आया। कोरोना काल में देखा गया कि खाद्यान्न के पैकेट हरे रंग में बांटे गए। उद्धव ठाकरे मुस्लिम समुदाय के बैनर तले नजर आए।

इससे शिवसेना के नियमित मतदाताओं को झटका लगा और उनमें आक्रोश पैदा हो गया। लेकिन इसकी परवाह न करते हुए अब वे नए राज्य में नए मतदाता तलाशने लगे। वंचित बहुजन अघाड़ियों से गठबंधन की कोशिश इसका एक हिस्सा है। इसी तरह चुनाव के लिए मुस्लिम वोटरों को लुभाने की कोशिश भी इसका हिस्सा बनी। उद्धव ठाकरे की सरकार पर महाविकास अघाड़ी सरकार के दौरान 1993 के धमाकों के आरोपी याकूब मेमन की कब्र को सजाने का आरोप लगा था। महा विकास अघाड़ी सरकार मुश्किल में पड़ गई थी क्योंकि याकूब के कब्र पर एलईडी लाइट, मार्बल टाइल्स लगाकर कब्र के सौंदर्यीकरण की अनुमति मविआ की तरफ से दी गई थी। वहीं मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की सरकार के सत्ता में आने के बाद अफजल खान की कब्र के आसपास के अनधिकृत निर्माण को हटा दिए जाने पर भी उद्धव ठाकरे ने चुप रहना पसंद किया। प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब सवाल पूछा गया तो उद्धव ठाकरे ने इस सवाल को टाल गए। इन्ही हरकतों की वजह से आज उद्धव को प्रयास करना पड रहा है और लोगों को इकट्ठा कर बैठक के लिए बुलाना पड़ रहा है।

उद्धव ठाकरे ने यह कहकर बीजेपी से खुद को अलग कर दिया कि उनका हिंदुत्व अलग है। इस वजह से, उनके पास हिंदुत्व की एक अलग परिभाषा को लोगों के गले से उतारने के अलावा कोई चारा नहीं था। उन्होंने कहा हमें अपने दादा प्रबोधनकर के विचारों पर भरोसा करना था कि हमारा हिंदुत्व ढोंग नहीं होना चाहिए। शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे को कभी इस तरह का समर्थन नहीं लेना पड़ा। न ही उन्हें कभी मुस्लिम वोटरों का समर्थन हासिल करने के लिए अपना रुख बदलना पड़ा। लेकिन उद्धव ठाकरे को सत्ता के लिए अपने विचारधारा को बदलना पड़ा।

तो एक तरफ बीजेपी और उनके साथ रहे एकनाथ शिंदे की असली शिवसेना हिंदुत्व का दामन थामे हुए हैं, लेकिन उद्धव ठाकरे की मानसिकता इससे अलग है। महाविकास अघाड़ी सरकार के दौरान साधुओं की हत्याओं, खुली बियर शॉप और बंद मंदिरों को लेकर उद्धव ठाकरे की पार्टी की खूब आलोचना हुई थी। यह पुष्टि की गई कि उन्होंने एक अलग हिंदू धर्म अपना लिया है। कहा गया औरंगाबाद का नामकरण बेशर्म हिंदू धर्म का प्रमाण है। महाविकास अघाड़ी के नेताओं जितेंद्र आव्हान, अबू आसिम आजमी ने औरंगजेब का समर्थन किया और उस समय उद्धव के पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था।

पूर्व मंत्री उद्धव ठाकरे को औरंगाबाद का नाम बदलकर संभाजीनगर करने के लिए अंतिम मंत्रिमंडल तक इंतजार करना पड़ा था। अब जब सरकार गिरने वाली है तो उन्होंने इसे नाम देने का बड़ा फैसला लिया। बेशक, कहने की जरूरत नहीं है कि यह फैसला सहानुभूति बटोरने के लिए किया गया था। यहां तक ​​कि जब उद्धव ठाकरे ने औरंगाबाद में सभा की तो उन्होंने शेखी बघारते हुए कहा कि वह अब औरंगाबाद का नाम बदल सकते हैं। पर वह नहीं हुआ। लिहाजा अब कोंकण जाने और वहां नए वोटर को तलाशने की कोशिश की जा रही है। उसके लिए उद्धव ठाकरे को कोंकण में मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन की भी जरूरत होगी। हालांकि उद्धव इस बात को स्वीकारते नहीं। लेकिन यह बात छिपी नहीं है कि यह कवायद हमें अपनी भूमिका में बदलाव के कारण ही करनी पड़ती है।

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