सिन्हुआ न्यूज एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, यह नया तरीका खून में पाए जाने वाले कुछ विशेष आरएनए टुकड़ों को मापता है। यह अध्ययन ‘नेचर एजिंग’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
यरूसलम के हिब्रू विश्वविद्यालय (एचयू) ने बताया कि इसमें वैज्ञानिकों ने दो मुख्य संकेतकों पर ध्यान केंद्रित किया है – एक दोहराव वाला आरएनए क्रम जो पार्किंसंस के मरीजों में जमा होता जाता है। दूसरा माइटोकॉन्ड्रियल आरएनए, जो रोग बढ़ने के साथ कम होता जाता है।
इन दोनों आरएनए टुकड़ों के अनुपात को मापकर यह जांच बता सकती है कि व्यक्ति को पार्किन्सन की शुरुआत तो नहीं हो रही है।
हिब्रू यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर हर्मोना सोरेक के अनुसार, “यह खोज हमारी पार्किन्सन रोग की समझ को एक नया आयाम देती है और एक आसान व कम तकलीफ देने वाला परीक्षण तरीका प्रदान करती है।”
उन्होंने बताया कि इस परीक्षण में एक विशेष टीआरएफ पर ध्यान दिया गया है, जिससे रोग की शुरुआत में होने वाले सूक्ष्म बदलावों को पहचाना जा सकता है।
प्रयोगों में यह परीक्षण 86 प्रतिशत सटीकता के साथ यह पहचानने में सफल रहा कि कौन-से लोग लक्षणों से पहले ही इस रोग से प्रभावित हैं। यह तरीका अब तक के अन्य परीक्षणों से अधिक कारगर साबित हुआ।
एक दिलचस्प बात यह भी पाई गई कि जब रोगियों को ‘डीप ब्रेन स्टिमुलेशन’ नाम की एक विशेष चिकित्सा दी गई, तो पहले प्रकार के आरएनए कणों का स्तर घट गया, जो उन्हें रोग की प्रक्रियाओं और उपचार की प्रतिक्रियाओं से जोड़ता है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खोज भविष्य में रोग की जल्दी पहचान और इलाज के रास्ते खोल सकती है, जिससे रोगियों की जिंदगी बेहतर हो सकती है। मुख्य शोधकर्ता निमरॉड मैडरर ने कहा, “यह परीक्षण रोग की शुरुआती पहचान में मदद करेगा और रोगियों व डॉक्टरों की अनिश्चितता को कम करेगा।”
उत्तराखंड: श्रद्धालुओं के स्वागत को तैयार चारधाम, 30 अप्रैल से यात्रा शुरू!