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Monday, July 14, 2025
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रानी दुर्गावती की वीरगाथा : घुटने नहीं टेके, बलिदान दे दिया! 

461 साल बीत जाने के बावजूद वीरांगना रानी दुर्गावती के बलिदान को कोई भूल नहीं सकता है। उनकी शहादत दिवस को आज भी 24 जून के दिन "बलिदान दिवस" ​​के रूप में मनाया जाता है।

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रानी दुर्गावती एक ऐसी वीरांगना, जिसने मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान देकर अपने लहू से इतिहास लिखा और अमर हो गईं। रानी दुर्गावती खुद मां दुर्गा का अवतार साबित हुईं। रानी दुर्गावती की कीर्ति, बलिदान की गाथा और वीरता की कहानी अक्षुण्ण है। 461 साल बीत जाने के बावजूद वीरांगना रानी दुर्गावती के बलिदान को कोई भूल नहीं सकता है। उनकी शहादत दिवस को आज भी 24 जून के दिन “बलिदान दिवस” ​​के रूप में मनाया जाता है।

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर में हुआ था, जो उत्तर प्रदेश के बांदा में स्थित मध्यकालीन भारत के सबसे अभेद्य किलों में से एक था। उनका जन्म दुर्गाष्टमी के दिन हुआ, इसलिए माता-पिता ने दुर्गावती नाम रखा। 18 साल की उम्र में गढ़ा-कटंगा के गोंड राजा संग्राम शाह के बेटे दलपत शाह से उनकी शादी हुई।

‘अकबरनामा’ में जिक्र है कि 1548 में दलपत शाह की मृत्यु के बाद उनके बेटे बीर नारायण को उत्तराधिकारी बनाया गया। बेटा नाबालिग था ऐसे में रानी दुर्गावती ने साथ बैठकर खुद सरकार की बागडोर संभाली। आइने अकबरी के लेखक अबुल फजल ने लिखा, “रानी भाला और बंदूक दोनों चलाने में सक्षम थीं।”

उनका पूर्व से पश्चिम तक 300 मील और उत्तर से दक्षिण तक 160 मील के क्षेत्र में साम्राज्य फैला था। रानी दुर्गावती का राज्य छोटे-बड़े 52 गढ़ों से मिलकर बना था, जिसका हिस्सा सिवनी, पन्ना, छिंदवाड़ा, भोपाल, तत्कालीन होशंगाबाद और अब नर्मदापुरम, बिलासपुर, डिंडौरी, मंडला, नरसिंहपुर, कटनी और नागपुर हुआ करते थे।

एक फारसी स्रोत ‘तारीख-ए-फरिश्ता’ के अनुसार, रानी दुर्गावती ने मालवा के शासक बाज बहादुर को खदेड़ा था, जिसने 1555 और 1560 के बीच उनके राज्य पर हमला किया था। पहली बार के संघर्ष में बाज बहादुर का काका फतेह खां मारा गया। दूसरी बार कटंगी की घाटी में बाज बहादुर की सारी फौज का सफाया हुआ। बाज बहादुर को हराकर रानी दुर्गावती गढ़ा मंडला की अपराजेय शासक बन गईं।

आसफ खां कारा-मानिकपुर के मुगल सूबेदार हुआ करते थे, जिन्होंने पहले रानी दुर्गावती के साथ मित्रता के हाथ बढ़ाए और बाद में जासूसों के जरिए खजाने की जानकारी जुटाई। ‘भारत में मुगल शासन’ में गढ़ा कटंगा पर किए गए आसफ खान के हमलों का जिक्र है।

बाद में 10 हजार घुड़सवारों, पैदल सैनिकों और तोपखाने वाली एक बड़ी शाही सेना से लैस आसफ खां ने गढ़ा-कटंगा में चढ़ाई कर दी थी। आसफ खां के नेतृत्व में मुगल सेना ने दमोह की ओर गोंडवाना राज्य पर हमला किया।

भारतीय संस्कृति मंत्रालय की साइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, रानी दुर्गावती को उनके मंत्रियों ने पीछे हटने की सलाह दी थी और संधि करने को कहा था, लेकिन रानी को ये स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने फैसला लिया कि हार और अपमान के साथ जीने के बजाय प्रतिष्ठा के साथ मरना बेहतर है।

स्वाभिमानी रानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति से बात करना भी मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने मुश्किल से 500 सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ लड़ना शुरू किया। ‘मध्य प्रदेश जिला गजेटियर्स: जबलपुर’ में जिक्र है कि रानी दुर्गावती शुरुआत में मुगल सेना को हराने में सक्षम रहीं। उनकी छोटी सेना ने दुश्मन के 300 सिपाही मार गिराए और अन्य सिपाहियों को खदेड़ दिया।

लड़ाई के बीच रानी ने कूटनीति का परिचय देते हुए मंत्रियों से कहा कि रात्रि में ही मुगल सेना पर आक्रमण करना उचित होगा। हालांकि सेनापति इसके लिए सहमत नहीं हुए। हालांकि यहां रानी की सोच सही साबित हुई, क्योंकि अगले दिन आसफ खां, बड़ी तोपों को दर्रे के अंदर ले आया था। जब सलाहकारों ने समर्थन नहीं दिया तो विषम परिस्थितियों में रानी दुर्गावती खुद सैनिक वेश में अपने प्रिय हाथी ‘सरमन’ पर सवार होकर दो हजार पैदल सैनिकों की टुकड़ी लेकर युद्ध के लिए निकल गईं।

रानी और उनका बेटा बीर नारायण अपनी सेनाओं का नेतृत्व करते हुए मुगल सैनिकों को लगभग तीन बार पीछे धकेलने में सक्षम रहे। दोपहर के बाद की लड़ाई में बीर नारायण घायल हुईं और उन्हें युद्ध के मैदान से हटकर रहना पड़ा। रानी दुर्गावती ने साहस और हिम्मत नहीं छोड़ी। वो लड़ती रहीं, जब तक कि वो खुद दो तीरों से घायल नहीं हुईं।

मुगलों की सेना को घायल अवस्था में पराजित करना संभव नहीं था। जब रानी दुर्गावती को एहसास हुआ कि वो बहुत दूर नहीं जा पाएंगीं और जल्द ही दुश्मन उन्हें पकड़ लेंगे तो उन्होंने अपना खंजर निकाला और सीने में घोंप लिया।

उन्होंने खुद को दुश्मनों के हाथों में डालने की बजाय मौत को स्वीकार किया। इस तरह युद्ध स्थल में वीरांगना रानी दुर्गावती की 24 जून 1564 को मृत्यु हो गई। बाद में जबलपुर से करीब 12 मील दूर एक संकरे पहाड़ी दर्रे में रानी के सैनिकों ने उनका अंतिम संस्कार किया।
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