भाजपा की स्थिति पूरे देश में अच्छी है| उनके सहयोग से एनसीपी के मजबूत होने का कोई रास्ता नहीं है। ऐसे में यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि दूसरी संभावना दोनों के लिए जरूर फायदेमंद होगी। एनसीपी विपक्ष में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती है और उसने ऐसा किया है। फिलहाल ऐसी कोई संभावना नहीं है कि विपक्ष शरद पवार के खिलाफ कोई कदम उठाए।
इसलिए उनके बीच रहकर अपनी पकड़ मजबूत करने और विपक्ष को बांटकर या उनकी एकता को तोड़कर अपनी स्थिति मजबूत करने का यह तरीका पवार के लिए उपयोगी है| उनके 60 साल के राजनीतिक करियर में ऐसी कोशिशें कई बार हुई हैं| और तो और ऐसा प्रयोग भाजपा के लिए भी फायदेमंद हो सकता है|
इस बात की भी सम्भावना है कि विरोधियों में अपने आप फूट पड़ जाय और वह आपके रास्ते पर आ जाये। तो इन दोनों में से दूसरी संभावना दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद हो सकती है। बेशक, ये संभावनाएं हैं। राजनीति में संभावनाओं को व्यक्त करना हमारे ऊपर है। वास्तव में क्या होता है कोई नहीं कह सकता। लेकिन यदि दूसरी संभावना फलीभूत होती है तो इसके लाभों के कारण इसमें रुचि अधिक होगी।
देश में इस समय सिर्फ शरद पवार ही चर्चा का विषय हैं|कांग्रेस और विपक्ष द्वारा अडानी को लेकर एक संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग के बाद शरद पवार के रुख ने सभी को सकते में डाल दिया है। यह भूमिका गले में फंसे कांटे की तरह हो गई है।
हिंडनबर्ग की एक रिपोर्ट के बाद अडानी समूह को बदनाम करने के बाद अडानी के शेयर और अर्थव्यवस्था में इसकी प्रतिष्ठा गिर गई। उसके बाद कांग्रेस को इस मुद्दे को उठाना चाहिए और अडानी की जांच करनी चाहिए। आम आदमी का पैसा इसमें फंसा हुआ है, इस बात को लेकर संसद से आंदोलन के हथियार उठे। साथ ही मामले की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की भी मांग की गई। इस हंगामे के बीच संसद सत्र भी नहीं हो सका।
दरअसल, ऐसा होने ही नहीं दिया गया। उसके बाद शरद पवार ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में इस रोल को लेकर सबको चौंका दिया था| शरद पवार ने कहा कि इस तरह की संयुक्त संसदीय समिति की कोई जरूरत नहीं है| मैंने ऐसी समितियों में काम किया है। इन समितियों में सत्ताधारी दलों के प्रतिनिधियों की संख्या अधिक होती है। बल्कि न्यायालय द्वारा नियुक्त जांच समिति के माध्यम से ही जांच की जानी चाहिए। इसके अलावा पवार ने यह भी कहा था कि जब हमें अडानी पर कीचड़ उछालने वाले संगठन हिंडनबर्ग की पृष्ठभूमि का पता ही नहीं है तो हम इस तरह के आरोप कैसे झेल सकते हैं|
पवार के इस रुख से विरोधियों में खलबली मच गई। बेशक, विपक्ष ने पवार के खिलाफ अतिवादी रुख नहीं अपनाया और न ही ले सकता था। लेकिन पवार की स्थिति उनकी व्यक्तिगत स्थिति है, लेकिन हम संयुक्त संसदीय समिति की मांग पर कायम हैं, कांग्रेस का बयान बना रहा। उद्धव ठाकरे की ओर से भी तीखी प्रतिक्रिया हुई। शरद पवार की राजनीति से पत्रकार प्रभावित इन सबके साथ अजीत पवार भी थे। सांसद संजय राउत ने ईवीएम पर बैन का प्रस्ताव रखा था, लेकिन अजित पवार ने इसे खारिज कर दिया था| अजित पवार ने कहा कि कई गैर भाजपा पार्टियों ने भी ईवीएम से चुनाव जीता है| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपाधि के मुद्दे पर अजित पवार के रुख ने विपक्ष को भी भ्रमित कर दिया है|
नरेंद्र मोदी पिछले 9 साल से प्रधानमंत्री हैं, उन्हें बहुमत से चुना गया है, ऐसे में कभी किसी ने उनकी डिग्री का मुद्दा नहीं उठाया, इसकी कोई जरूरत नहीं है, तो अजित पवार ने सवाल उठाया कि इस मुद्दे को उठाने की जरूरत है, और एक बार फिर विपक्ष में उत्तेजना थी। एक तरफ हम नरेंद्र मोदी को नीचा दिखाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं और पवार परिवार उन्हें काटने की कोशिश कर रहा है।
शरद पवार की इस भूमिका से दो संभावनाएं पैदा हुई हैं| एक तो पवार भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं और दूसरी संभावना यह है कि विपक्ष में रहकर उनका सिक्का कैसे चल रहा है और पवार विपक्ष को बांटने की चाल नहीं चल रहे हैं, ये दो संभावनाएं पैदा हुई हैं| पहली संभावना पर नजर डालें तो सवाल उठता है कि भाजपा से गठबंधन से एनसीपी या भाजपा को कितना फायदा होगा|
राष्ट्रीय राजनीति में फिलहाल एनसीपी की स्थिति कमजोर है। राष्ट्रीय दर्जा वापस लिए जाने के कारण वर्तमान में उनके अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। ऐसे में कुछ लोग कयास लगा रहे हैं कि वह भाजपा के साथ जाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई वे इससे उबर पाएंगे और क्या भाजपा को इससे कोई फायदा होगा|