मोदी सरकार ने अरावली पर्वत श्रृंखला में नई खनन गतिविधियों पर फिलहाल रोक लगाकर पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है। यह फैसला ऐसे समय आया है, जब आम नागरिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और सामाजिक संगठनों का विरोध लगातार तेज हो रहा था और मामला राजनीतिक रूप भी लेता जा रहा था।
हालांकि सरकार का यह कदम राहत देने वाला है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह रोक स्थायी होगी और क्या पहले से चल रही खदानों पर भी प्रभावी कार्रवाई होगी।
अरावली, जिसे दिल्ली-एनसीआर और पश्चिमी भारत की “पर्यावरणीय ढाल” कहा जाता है, आज अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। राजस्थान में ही 1000 से अधिक खदानें सक्रिय हैं और अनुभव बताता है कि वैध खनन से कहीं ज्यादा नुकसान अवैध खनन से होता है। जब तक अरावली में खनन पर स्पष्ट और सख्त रोक नहीं लगती, तब तक संरक्षण के दावे अधूरे ही रहेंगे।
विवाद की जड़ सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से जुड़ी है, जिसमें 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली भू-आकृतियों को ही अरावली मानने की वैज्ञानिक परिभाषा को स्वीकार किया गया। इससे अरावली का बड़ा हिस्सा संरक्षण के दायरे से बाहर हो सकता है। इसी के विरोध में ‘अरावली आंदोलन’ तेज हुआ और जनयात्राएं शुरू हुईं।
सरकार का तर्क है कि खनन से रोजगार और अर्थव्यवस्था जुड़ी है, जबकि विपक्ष और विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि पर्यावरण की कीमत पर विकास टिकाऊ नहीं हो सकता। कांग्रेस का आरोप है कि अरावली की परिभाषा बदलकर सरकार संरक्षण क्षेत्र को सीमित करना चाहती है, वहीं सरकार इन आरोपों को भ्रामक बता रही है।
अरावली केवल पहाड़ों की श्रृंखला नहीं, बल्कि थार रेगिस्तान को फैलने से रोकने वाली दीवार, भूजल रिचार्ज का स्रोत और दिल्ली-एनसीआर के लिए जीवनरेखा है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अरावली कमजोर हुई तो इसका असर जलवायु, पानी और जीवन पर पड़ेगा।
अब पर्यावरण मंत्रालय ने वैज्ञानिक रिपोर्ट तैयार होने तक खनन पर रोक और सस्टेनेबल माइनिंग प्लान बनाने की बात कही है। असली परीक्षा इसी में है कि क्या यह कदम सिर्फ दबाव में लिया गया अस्थायी फैसला है या वाकई अरावली को बचाने की दिशा में ठोस शुरुआत।
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