भाजपा को केंद्र की सत्ता मिली। इसके बाद उसने यूपी पर भी फोकस तेज किया और वर्ष 2017 में पहली बार 300 से ज्यादा सीटें जीत कर सत्ता पर अपना कब्जा किया। भाजपा ने एक तरह से क्लीन स्वीप किया था और दूसरे नंबर की पार्टी सपा भी 47 सीटों पर ही सिमट कर रह गई। लेकिन उससे कहीं बड़ा झटका बसपा को लगा, जो मुख्य विपक्षी दल भी नहीं रही और 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा।
मायावती के लिए वर्ष 2017 में हाथरस जैसे मुद्दों को लेकर सड़कों पर उतरने की बजाय मायावती हमेशा काडर और सामाजिक समीकरण के भरोसे ही रहीं। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि इससे दलित वर्ग में भी यह छवि बनी कि मायावती उनके मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं हैं।
एक तरफ दलित वर्ग में ऐसी छवि बनना और दूसरी तरफ भाजपा को मजबूत देख सवर्णों का उसमें चला जाना, मायावती के लिए दोहरे झटके की तरह था। उसका असर 2022 के विधानसभा चुनाव परिणाम आने पर सामने है।मायावती एक बार फिर से अपने कोर दलित वोट बैंक की ओर बढ़ती दिख रही हैं। उसमें भी उनका खास फोकस जाटव समाज को पार्टी के साथ लामबंद करने पर है।
यही वजह है कि ब्राह्मण समुदाय से आने वाले रितेश पांडे को हटाकर जाटव बिरादरी के गिरीश चंद्र जाटव को उन्होंने अब लोकसभा में पार्टी का नेता बना दिया है।इसके अलावा अन्य पिछड़े वर्ग से शिरोमणि वर्मा को उपनेता बनाया गया है।
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