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आबादी पर अंकुश लगाने के लिए ‘हम दो हमारा एक’ नीति की दरकार

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में हम दो हमारे दो की जनसंख्या नीति पर अमल करने का साहसिक फैसला लिया है। दरअसल, कश्मीर समस्या और अयोध्या विवाद हल करने के बाद लोग उम्मीद कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कोई ठोस कदम उठाएंगे। हालांकि केंद्र सरकार से पहले उत्तर प्रदेश ने यह कदम उठा लिया। जनसंख्या भारत जैसे देश के लिए नासूर बन गई है। हर जगह इंसानों की भीड़ बढ़ रही है। इंसान इतने ज़्यादा पैदा हो गए हैं कि धरती छोटी पड़ने लगी है। भारत में तो जनसंख्या सभी समस्याओं की जननी बन गई है। देश की तमाम समस्याएं; मसलन- ग़रीबी, कुपोषण, पिछड़ापन, बेरोज़गारी, निरक्षरता, अपराध, नक्सलवाद, आतंकवाद, आवासहीनता, अपर्याप्त स्वास्थ सेवा, धार्मिक उन्माद, कट्टरता और स्कूल-कॉलेज में दाख़िला, सबकी सब जनसंख्या की नाभि से ही निकल रही हैं। जनसंख्या अकेले दम पर सरकार की सभी योजनाओं, नीतियों और प्रोग्राम्स की हवा निकाल रही है। कह लीजिए कि आबादी सुरसा बन गई है जो मानव कल्याण के लिए सरकार द्वारा लिए गए हर फ़ैसले को निगलती जा रही है। बढ़ती आबादी की भयावहता कोरोना के संक्रमण काल में देखने को मिली, जब घर में बैठे इतने ज़्यादा लोगों को भोजन, हेल्थकेयर देना भारी पड़ रहा है।

आबादी में इज़ाफ़े से पर्यावरण का संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। मनुष्यों के बढ़ने से उनके द्वारा छोड़ी गई कार्बनडाईआक्साइड भी बढ़ रही है। इसे ऑक्सीजन में बदलने वाले पेड़ कम हो रहे हैं। इससे वातावरण में कार्बनडाईआक्साइड ज़रूरत से ज़्यादा हो रही है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। इंसानों की आबादी बढ़ने से वन्यजीवों की संख्या पिछले 40 साल में घटकर आधी रह गई है। आबादी के कारण दुनिया में भारत का इंट्रोडक्शन एक नकारात्मक देश के रूप में होता है। जहां दुनिया के बाक़ी देशों में लोग बेहतर जीवन जी रहे हैं, वहीं भारत में लोग थोक के भाव बच्चे पैदा करके ख़ुद तो परेशान हो ही रहे हैं, दूसरों को भी परेशान कर रहे हैं। इसीलिए देश में आबादी पर सख़्ती से अंकुश लगाने का समय आ गया है।

आबादी पर हर पल नज़र रखने वाली भारत सरकार की अधिकृत बेवसाइट सेंसस इंडिया के मुताबिक़ देश में हर घंटे 3080 से ज़्यादा बच्चे पैदा हो रहे हैं, जबकि मृत्यु दर प्रति घंटे 1099 से भी कम है। यानी आबादी की भीड़ में क़रीब दो हज़ार लोग हर घंटे बढ़ रहे हैं, जो किसी बड़ी कंपनी में कर्मचारियों की संख्या के बराबर है। हर घंटे पैदा हो रहे बच्चों के लिए भविष्य में रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, शिक्षा और रोज़गार की व्यवस्था करना बहुत बड़ी गंभीर समस्या बन रही है। जनसंख्या विस्फोट को देखकर ही वर्ल्‍ड हेल्‍थ ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड पॉप्युलेशन प्रोस्पेक्ट्स-दी 2012 रिवाइज्ड’ में कहा गया है कि जन्म दर इसी तरह बनी रही तो 2028 तक भारत की आबादी चीन से ज़्यादा हो जाएगी। अगर अगले कुछ दशक तक पॉप्युलेशन ऐसे ही बढ़ती रही तो लोगों को रहने के लिए जगह नहीं बचेगी। फ़िलहाल भारत के पास विश्व की समस्त भूमि का केवल 2.4 फ़ीसदी हिस्सा ही है, जबकि विश्व की जनसंख्या का 16.7 फ़ीसदी हिस्सा इस देश में रहता है। फ़िलहाल, देश की आबादी 1.296 अरब है जिसमें 66.89 करोड़ पुरुष और 62.66 करोड़ महिलाएं हैं।

2011 की जनगणना पर गौर करें तो आबादी एक दशक में 18.1 करोड़ बढ़ गई। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में इस भूभाग (तब भारत नहीं ब्रिटिश इंडिया था) की आबादी ही क़रीब 17 करोड़ थी, लेकिन अब उससे ज़्यादा लोग दस साल में बढ़ रहे हैं। हालांकि, इस बार की जनगणना में आबादी वृद्धि दर में कमी देखी गई है, लेकिन यह बहुत मामूली है। ऊंट के मुंह में जीरा की तरह। वैसे, कन्या भ्रूण-हत्या के ख़िलाफ़ राष्ट्रव्यापी अभियान के कारण महिलाओं की जनसंख्या बढ़ रही है। देश में प्रति हज़ार पुरुषों पर 933 महिलाएं थीं, जो दस साल बाद 940 हो गई हैं। फ़िलहाल, आबादी में पुरुषों की संख्या 51.54 फ़ीसदी और महिलाओं की संख्या 48.46 फ़ीसदी है। 20वीं सदी के आरंभ में ब्रिटिश इंडिया की आबादी 23.84 करोड़ से दस साल में 25.21 करोड़ हो गई। मज़ेदार यह रही कि 1921 में आबादी घट कर 25.13 करोड़ हो गई। मगर अगले दो दशकों में जनसंख्या 27.89 और 31.86 करोड़ पहुंच गई। जनसंख्या वृद्धि में बूम आज़ादी के बाद आया। 1951 की जनगणना में पता चला कि भारत की आबादी 36 करोड़ को पार कर चुकी है। 1961 में और उछली और 43.9 करोड़ को टच कर गई। सत्तर के दशक में लगा कि लोगों में बच्चे पैदा करने की होड़ मची है। दस साल में 11 करोड़ लोग बढ़ गए और आबादी आधा अरब (54 करोड़) पार कर गई। इसके बाद तो मानो आबादी को पंख लग गए। 1981 में 68.3 करोड़ तो 1991 में 84.6 करोड। अगले 10 साल में क़रीब 16 करोड़ लोग बढ़ गए तो न्यू मिलेनियम में तो जन्मदर के सारे रिकॉर्ड टूट गए। एक दशक में 21 करोड़ बच्चे पैदा हुए और 2011 में आबादी 1.21 करोड़ हो गई। जनसंख्या-वृद्धि बदस्तूर जारी है।

मज़ेदार बात यह है कि आज़ादी के बाद से ही केंद्र और सभी राज्य सरकारें कोशिश कर रही हैं कि इस पर अंकुश लगाया जाए लेकिन हर कोशिश टांय-टांय फिस्स हो रही है। भारत में एक नहीं दो-दो बार जनसंख्या नीति बनाई जा चुकी है। तय हुआ कि जनसंख्या विस्फोट पर अंकुश लगाया जाएगा और छोटे परिवार प्रमोट किए जाएंगे। सन् 2000 से जनसंख्या आयोग भी अस्तित्व में आ चुका है। फिर भी यह थमने का नाम नहीं ले रही है। पचास के दशक में भारत में चीन से पहले नसबंदी शुरू की गई लेकिन 65 साल में कोई ख़ास नतीजा नहीं निकला। नसबंदी योजना कैसे काम करती है, इसकी मिसाल प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में मिली। इसी साल 31 जनवरी को ज़िला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर चिरईगांव के हेल्थसेंटर के बाहर 73 महिलाओं की ज़मीन पर लिटाकर नसबंदी की गई। चूंकि अस्पताल में बिस्तर की व्यवस्था नहीं थी; लिहाज़ा, खुले आसमान के नीचे ज़मीन बेड बना दी गई। यह घटना ग्रामीण स्वास्थ केंद्रों की बदहाली की कहानी कहती है, जिस देश में 70 फ़ीसदी आबादी गांवों में रहती हो,वहां बजट का आधार ही ग्रामीण विकास होना चाहिए, लेकिन होता इसके उल्टा है। विकास का ज़्यादा शेयर शहर झटक रहे हैं, इसीलिए ग्रामीण इलाक़े में लोग दीन ही हालत में रहते हैं।

आबादी में बढ़ोतरी के लिए किसी एक समाज या धर्म को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। हिंदू हों या मुसलमान, बढ़ती आबादी के लिए दोनों ज़िम्मेदार हैं। भारतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अब तक 1991-92, 1998-99 और 2005-06 में तीन सर्वे हो चुके हैं। चौथा सर्वे चल रहा है। डेटाज़ के मुताबिक़ आबादी पर अंकुश लगाने की कोई युक्ति कारगर नहीं हो रही है। 1991-92 में मुस्लिम महिलाओं की कुल प्रजनन दर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट 4.41 थी तो हिंदू महिलाओं की 3.31 जो बहुत कम नहीं थी। 1998-99 और 2005-06 में मुस्लिमों की प्रजनन दर 3.39 और 3.4 थी तो इसी दौरान हिंदुओं की प्रजनन दर 2.78 और 2.59 दर्ज की गई। रिपोर्ट कहती है कि आबादी में बढ़ोतरी की दर का राष्ट्रीय फीगर 18 फ़ीसदी है, परंतु मुसलमानों की आबादी 24 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है। 1991-2001 के दौरान तो मुस्लिम आबादी 29 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही थी, जो चिंता का विषय थी। परंतु अब इसमें गिरावट आई है, जिसमें और ध्यान देने की ज़रूरत है।

आईएनएफएचएस की रिपोर्ट के मुताबिक जहां देश की हर महिलाएं औसतन 2.4 बच्चे पैदा कर रही हैं, वहीं मुस्लिम महिलाएं 3.6 बच्चे पैदा कर रही हैं। यह सही है कि मुस्लिम महिलाएं अब भी परिवार नियोजन में हिंदू महिलाओं से पीछे हैं। मगर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम महिलाओं में भी परिवार नियोजन अपनाने की चेतना बढ़ रही है। हिंदू महिलाओं में गर्भ निरोध के साधनों का प्रयोग 1991-92 में 37.7 फ़ीसदी से बढ़कर 1998-99 में 44.3 फ़ीसदी हो गया, जो 6.6 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी है। मुस्लिम महिलाओं में यह 22 फ़ीसदी से बढ़कर 30.2 फ़ीसदी हो गया। यानी जो 8.2 फ़ीसदी की वृद्धि दर्शाता है जो हिंदू महिलाओं से ज़्यादा है। इसी तरह 1998-99 से 2005-06 के बीच गर्भ निरोध के तरीक़े इस्तेमाल करनेवाली हिंदू महिलाओं की संख्या में 5.9 फ़ीसदी इज़ाफ़ा हुआ तो मुस्लिम महिलाओं के मामले में बढ़ोतरी 6.2 फ़ीसदी की रही। यानी हिंदू महिलाओं के मुकाबले 0.3 फ़ीसदी ज़्यादा। संभवतः यही बात हिंदूवादी संगठनों और नेताओं को मुस्लिमों पर हमला करने का मौक़ा देती है।

जनसंख्या वृद्धि में भारत की परंपराएं भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। भारतीय समाज में संयुक्त परिवार का कॉन्सेप्ट हैं। नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की उपेक्षा नहीं करती। लोग बुढ़ापे में अपने बच्चों के साथ रहते हैं। दरअसल, यह परंपरा भी आबादी में विस्फोट की प्रमुख वजह है। देश में सोसल सिक्योरिटी नाम की चीज़ ही नहीं है. लिहाज़ा, लोग बुढ़ापे का ख़याल करके पुत्र चाहते हैं। मानते हैं कि बेटियां शादी के बाद दूसरे के घर चली जाती हैं, इसलिए बुढ़ापे में देखभाल के लिए पुत्र ज़रूरी है। पुत्र की चाहत इसी सोच का नतीजा है। हर दंपत्ति चाहता है, उसे एक बेटा ज़रूर हो। इसीलिए दो बेटियां होने पर कई लोग बेटे के लिए तीसरा बच्चा पैदा करते हैं। दो बेटे पैदा हो जाने पर बेटी के लिए कोई तीसरी संतान पैदा नहीं करता। कभी-कभी बेटे की प्रतीक्षा ख़त्म ही नहीं होती और छह-सात बेटियां पैदा हो जाती हैं। दो साल पहले पन्ना में एक हिंदू महिला ने 42 साल की उम्र में 14 वीं संतान को जन्म दिया। वैसे यह परंपरा अब टूट रही है। आजकल बच्चे बुजुर्गो को बोझ मानकर उनका तिरस्कार भी करने लगे हैं। ऐसी भी मिसाल देखने को मिलती है जब वृद्ध माता-पिता को घर से बाहर निकाल दिया जाता है। उम्र के अंतिम दौर में लोग वृद्धाश्रम में अकेले रहने को मजबूर किए जा रहे हैं। पं मदनमोहन मालवीय की 90 साल की सगी पोती विजया पारिख मिसाल हैं जो नोएडा के सेक्टर 55 के वृद्धाश्रम में पांच साल से रह रही हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले भारत को सबसे युवा देश में कहें लेकिन 60 साल के लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। डब्ल्यूएचओ और हेल्पेज के मुताबिक, 2026 में भारत में बूढ़ों की आबादी 17.32 करोड़ होने का अनुमान है। मज़ेदार यह है कि पुरुष महिलाओं से ज़्यादा हैं लेकिन बड़ी उम्र में स्त्रियां पुरुषों से ’ज़्यादा हैं। पॉप्युलेशन को उम्र के हिसाब से नज़र रखने वाली संस्था कंट्री मीटर्स की वेबसाइट के मुताबिक भारत में 65 साल या उससे ऊपर की आबादी 5.5 फ़ीसदी यानी सात करोड़ है। अनुमानतः 50 लाख लोग ऐसे होंगे, जिनके पास बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं होगा। ऐसे लोगों को 65 साल की उम्र होने पर सरकार की ओर से 10 हज़ार रुपए महीने वेतन देने की योजना शुरू करनी चाहिए। वैसे भी सरकार कई फ़ालतू योजनाओं में लाखों करोड़ रुपए बर्बाद कर रही है। अगर वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा की योजना शुरू की गई तो निश्तित रूप से लोगों में बेटे की चाहत कम होगी और आबादी पर अंकुश लगेगा.

सत्तर के दशक में चीन में कमोबेश ऐसे हालात थे। लिहाज़ा, बेतहाशा बढ़ रही आबादी पर लगाम लगाने के लिए चीन में 1979 में एक बच्चा नीति लागू हुई थी। एक बच्चा नीति के तहत शादी-शुदा जोड़ों को केवल एक ही बच्चा पैदा करने की इजाज़त है। दूसरा बच्चा पैदा करने पर माता-पिता के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई होती ही है, बच्चे को ‘गैरकानूनी’ बच्चा कहा जाता है। उसे पहचान पत्र जारी नहीं किया जाता, जिससे बच्चा निःशुल्क शिक्षा या सेहत संबंधी सुविधाएं नहीं ले सकता। यही नहीं, बच्चा अपने ही देश में यात्रा नहीं कर सकता और किसी लाइब्रेरी का इस्तेमाल नहीं कर सकता है। एक बच्चा नीति के लागू होने से पहले चीन में लोगों के औसतन चार बच्चे हुआ करते थे। एक संतान नीति लागू होने के बाद देश की आबादी पर तो अंकुश लगा ही, वहां ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई। अब भारत चीन को 2028 तक ओवरटेक करने वाला है।

भारत में राजनीति के चलते चीन जैसा कठोर क़ानून बनाना शायद संभव नहीं होगा, लेकिन ऐसा कुछ क़दम उठाना ही होगा ताकि धड़ल्ले से बच्चे पैदा करने वालों के मन में ख़ौफ़ पैदा हो। जब तक भय पैदा नहीं किया जाएगा, आबादी पर अंकुश लगाना मुमकिन नहीं। इसके लिए सरकार को कुछ ऐसे कड़े क़ानून बनाने पड़ेंगे, जिन पर आसानी से अमल करके जनसंख्या पर अंकुश लगाया जा सके। जब तक दो से ज़्यादा बच्चा पैदा करने वालों को शर्मिंदा नहीं किया जाएगा, यह सिलसिला नहीं थमेगा। ऐसे लोगों को हतोत्साहित किया जाए। उन्हें एहसास कराया जाए कि दो से ज़्यादा बच्चे पैदाकर करके उन्होंने सामाजिक अपराध किया है। मसलन, दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों को इनकम टैक्स में मिलने वाली छूट ख़त्म की जा सकती है। सरकारी योजनाओं का लाभ केवल उन्हीं को दिया जाए जिनके पास केवल एक बच्चा है। जिनके पास केवल एक बेटी है, उन्हें अनिवार्य रूप से सरकारी नौकरी देने का प्रावधान भी कारगर हो सकता है। इसके अलावा एक संतान वाले दंपति को इनकम टैक्स स्लैब में पांच लाख रुपए तक की छूट देकर ऐसा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

-हरिगोविंद विश्वकर्मा- (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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