भारत की इन बेटियों पर पूरा हिंदुस्तान गर्व कर रहा है। हमारे लिए यह उत्सव का क्षण है। ओलिंपिक खेलों में वेटलिफ्टिंग में मीराबाई चानू ने रजत पदक जीता है। भारोत्तोलन स्पर्धा में भारत को 21 वर्षों बाद कोई पदक मिला है. मीराबाई भारोत्तोलन में पदक जीतनेवाली भारत की दूसरी महिला हैं,इससे पहले 2000 के सिडनी ओलिंपिक में कर्णम मल्लेश्वरी ने कांस्य पदक जीता था. मीराबाई ने अपनी जीत के बाद कहा है कि उनके लिए यह एक सपने के सच होने की तरह है. वह इस पदक को अपने देश को समर्पित करती हैं। करोड़ों भारतीयों ने मेरे लिए दुआएं मांगीं और मेरे सफर में साथ रहे,
मीराबाई चानू के पदक जीतने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि तोक्यो ओलिंपिक में इससे सुखद शुरुआत नहीं हो सकती थी. देश मीराबाई चानू के शानदार प्रदर्शन से उत्साहित है, उनकी सफलता हर भारतीय को प्रेरित करेगी, मीराबाई मणिपुर के एक बहुत मामूली परिवार से आती हैं, 18 साल की उम्र में मीराबाई चानू ने एशियाई जूनियर चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता, उसके बाद तो उन्होंने पदकों की झड़ी लगा दी।
उन्होंने 2013 की जूनियर राष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता. साल 2014 में हुए राष्ट्रमंडल खेल में रजत पदक जीता, वर्ष 2016 के रियो ओलिंपिक में मीराबाई चानू को सही तरीके से वेट न उठा पाने के कारण अयोग्य करार दे दिया गया था. यह उनके या किसी भी खिलाड़ी के लिए बड़ा झटका होता, लेकिन वह पूरे दमखम से डटी रहीं और उन्होंने 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीत कर शानदार वापसी की। महिला हॉकी टीम में झारखंड की भी दो बेटियां- डिफेंडर निक्की प्रधान और मिडफील्डर सलीमा टेटे- खेल रही हैं. निक्की और सलीमा भी काफी संघर्ष के बाद टीम में जगह बना पायी हैं, निक्की प्रधान का जन्म रांची से लगभग 60 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल जिले खूंटी के हेसल गांव में हुआ. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कोई बहुत मजबूत नहीं है, लेकिन अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर उन्होंने भारतीय हॉकी टीम में जगह बनायी, सलीमा टेटे सिमडेगा जिले की हैं। उनका सफर भी आसान नहीं रहा है. इसी तरह मेरठ की प्रियंका गोस्वामी भी पैदल चाल में पदक जीतने के लिए प्रयासरत हैं।
साल 2011 में पहला पदक जीतने के बाद परिस्थितियां बदलीं. प्रियंका ने पटियाला से स्नातक किया. साल 2018 में खेल कोटे से उन्हें रेलवे में नौकरी मिली, तब जाकर उनकी जिंदगी पटरी पर आयी, पंजाब के लुधियाना जिले के एक गांव से निकली मुक्केबाज सिमरनजीत कौर भी तोक्यो ओलिंपिक में हिस्सा ले रही हैं। सिमरन कौर गांव के एक साधारण परिवार से हैं. उनकी मां जीविकोपार्जन के लिए छोटे-मोटे काम करती थीं और पिता मामूली नौकरी करते थे। पिछले कुछ समय में शिक्षा से लेकर खेलकूद और विभिन्न प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं में बेटियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। वे जिंदगी के सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं, लेकिन अब भी समाज में महिलाओं के काम का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता है। घर को सुचारू रूप से संचालित करने में उनकी दक्षता अक्सर अनदेखी कर दी जाती है।
हर क्षेत्र में महिलाएं सक्रिय तो हैं, लेकिन उनकी भागीदारी पुरुषों के मुकाबले बेहद कम है। वजह स्पष्ट है कि उन्हें समान अवसर नहीं मिलते हैं. भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, देश के कुल श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी 25.5 फीसदी और पुरुषों का हिस्सेदारी 53.26 फीसदी है. कुल कामकाजी महिलाओं में से लगभग 63 फीसदी खेती-बाड़ी के काम में लगी हैं. जब करियर बनाने का समय आता है, उस समय अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है. विश्व बैंक के आकलन के अनुसार, भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है। यह पाया गया है कि एक बार किसी महिला ने नौकरी छोड़ी, तो ज्यादातर दोबारा नौकरी पर वापस नहीं लौटती है। समस्या यह है कि हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है, जिसमें बेटी को कमतर माना जाता है। अब बदलाव की आवश्यकता है।