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Friday, September 20, 2024
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यह कैसी सियासी असंवेदना?

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संवेदनशीलता खो देना इंसानियत खो देने का स्पष्ट संकेत है। महाराष्ट्र के सत्ताधीशों का बर्ताव देख लीजिए, संवेदनशीलता को उन्होंने कब का ‘ जय महाराष्ट्र ’ कह दिया साफ दिखाई देता है। साकीनाका में बर्बरतापूर्ण बलात्कार कांड हुआ और मुंबई में आक्रोश की लहर तक नहीं उफनी, हैरत की बात है। इस जघन्य वारदात से यह खुलकर सामने दिख गया है कि इंसान में छिपा बैठा जानवर कितना पाशविक हो सकता है। कइयों को इससे दिल्ली के निर्भया कांड का जख्म ताजा हो आया। मुंबई के पुलिस आयुक्त हेमंत नगराले ने इस प्रकरण में दी प्रतिक्रिया उनके ओहदे को लेकर कितनी जिम्मेदाराना रही, देखिए…वे कहते हैं,‘ पुलिस हरेक जगह नहीं पहुँच सकती। ‘ नगराले का कहना महज अर्धसत्य है। यह सच है कि हरेक कदम पर पुलिस खड़ी करना किसी भी विकसित देश के लिए संभव नहीं है। परंतु, गुनहगार कहीं भी हो, कितना ही दुर्दांत क्यों न हो, उसमें कानून-व्यवस्था का खौफ भर अपना नियंत्रण रखना शासक का कर्तव्य हुआ करता है, कोई बचकाना काम नहीं है यह।

इसके लिए राजकाज पर पकड़ होनी बहुत जरुरी है और यह पकड़ बनाने के लिए प्रशासन पर बेहद मुस्तैद नजर रखनी पड़ती है। शासक को यह समझ रखनी पड़ती है। यह समझ महाराष्ट्र के नौसिखिया मुख्यमंत्री में नहीं है, जिसे हासिल करने की जहमत उठाने को भी वे राजी नहीं हैं। दोपहर में 12 से 3 के दरमियान वे किसी-न-किसी ऑनलाइन कार्यक्रम में सहभागी हुआ करते हैं, बस। इससे पहले और इसके बाद वे क्या करते हैं, इस बारे में महाविकास आघाड़ी के नेता तक अनभिज्ञ हैं। प्रशासनिक कामकाज के प्रदीर्घ अनुभवी कहे जाने वाले वरिष्ठ नेता शरद पवार महज बार, बिल्डर, सहकारिता जैसे कुछ मुद्दों पर ही अड़ियल और आक्रामक रहते हैं, उसके अलावा दुनिया में आग भले लग जाए, लेकिन उसके मुंह से कोई शब्द तक नहीं फूटता। उन्हें यह नहीं दिखता कि राज्य में क्या अंधाधुंधी चल रही है, उस पर कुछ बोलने-करने के बजाय वे हमेशा केंद्र सरकार के खिलाफ आग उगलने में लगे रहते हैं। ये हाल है उन खेवैयों का, जिनके हाथ महाराष्ट्र के राजकाज की नौका की पतवार है। महाराष्ट्र में कानून-व्यवस्था की मौजूदा पराकाष्ठा इसी का नतीजा है।

साकीनाका में बर्बर बलात्कार की घटना हुई। इससे पहले पुणे में एक नाबालिग लड़की से सामूहिक दुष्कर्म हुआ। अमरावती में इसी तरह एक नाबालिग लड़की ने आत्महत्या कर ली। राज्य भर के कोने-कोने से रोजाना इस तरह की अप्रिय खबरें आ रही हैं। अकेले मुंबई में जनवरी से जुलाई तक के 7 महीनों में बलात्कार की 550 घटनाएं हुई हैं। यह विचारणीय मुद्दा है कि तार-तार हो चुकी कानून-व्यवस्था इन हालात में आखिर पहुंची कैसे ? बीते कुछ महीनों में ठाकरे सरकार के संजय राठोड़, धनंजय मुंडे और महबूब शेख आदि नेताओं की करतूतें खुलकर सामने आई हैं। लेकिन हरेक मामले में शिकायतकर्ता को ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया। उन आरोपियों से सादा पूछताछ तक नहीं हुई। पुलिस की भूमिका कानून के संरक्षक की हुआ करती है, लेकिन यहां तो उसका बर्ताव सत्ता में बैठे राजनेताओं के सिपहसालारों का है। सामाजिक न्याय मंत्री धनंजय मुंडे की पत्नी होने का दावा करने वाली करुणा मुंडे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कोई सनसनीखेज खुलासा करने जा रही थीं. इससे पहले ही उन्हें उनकी कार में पिस्तौल रख उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी कार में पिस्तौल रखे जाने की बात बाद में एक वीडियो के जरिए सामने आई।

राज्य में पुलिस व्यवस्था का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। पूर्व गृहमंत्री अनिल देशमुख के कार्यकाल में एपीआई सचिन वाजे को मुट्ठी में रख बड़े पैमाने पर वसूली शुरू हुई। जिस मुख्यमंत्री से मिलने के लिए महाविकास आघाड़ी के बड़े नेताओं को तक इंतजार करना पड़ता है, वाजे का वहां बेखटके आना-जाना था। मुंबई पुलिस को वाजे चला रहा था। उसे बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त था। अनिल देशमुख के निष्कासन के बाद उम्मीद थी कि स्थिति में सुधार होगा, पर अब लगता है कल की गड़बड़ी से आज हालात और भी बदतर हैं, जो मौजूदा गृहमंत्री दिलीप वलसे पाटिल के कार्यकाल में हैं। सत्तारूढ़ ठाकरे सरकार ने विपक्ष का गला घोंटने के लिए राज्य में कानून-व्यवस्था की खाट ही खड़ी कर दी है। पुलिस का दुरूपयोग विरोधियों का दमन करने में किया जा रहा है। भाजपा विधायक गोपीचंद पडलकर द्वारा आयोजित बैलगाड़ी दौड़ को रोकने के लिए सैकड़ों पुलिसकर्मियों की फौज तैनात कर दी गई थी।

हाल ही में राज्य के आवास मंत्री जीतेंद्र आव्हाड की कथित बातचीत का ऑडियो वायरल हुआ था। इस ऑडियो में आव्हाड खुद की पार्टी के एक कार्यकर्ता, जिसने बलात्कार के मामले में आवाज उठाई, को यह कह डांटते-फटकारते में सुनाई पड़ते हैं, ‘ उस लड़की को मरने दो, इस झंझट में मत पड़ो। वह कैसेट कंपनी वाला शरद पवार साहब और प्रफुल्ल पटेल के पास पहुंचा है।’ यह ऑडियो वायरल होने के बाद न तो आव्हाड, न शरद पवार और न ही प्रफुल्ल पटेल ने इस बाबत कोई टिप्पणी की। हालांकि, आव्हाड ने मल्लिकार्जुन नामक जिस एक कार्यकर्ता को डांटा-फटकारा था, पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से मिलने की उसकी तस्वीर उस ऑडियो टेप के ठीक बाद ही वायरल हुई। बड़े नेताओं के नाम सामने आने के बाद वही हुआ, जो आम तौर कई मामलों में हुआ है। ऑडियो टेप पर चर्चा बंद हो गई। उस बदकिस्मत लड़की के साथ आगे क्या हुआ, कोई नहीं जानता। आप कितना भी बड़ा अपराध कर लें, अगर आपके पीछे कोई गॉडफादर है, तो कोई माई का लाल आपका बाल बांका नहीं कर सकता। राज्य में यह एक स्थिति है। यह मानसिकता रिसते-रिसते निम्नतम स्तर तक आ पहुंची है।

साकीनाका रेप केस के बाद राकांपा नेता सुप्रिया सुले की उदार प्रतिक्रिया आई है। उग्र होने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि उत्तरप्रदेश में बलात्कार नहीं हुआ था। उन्होंने राज्य में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए एकजुट होने की अपील की। चूँकि, उनके पिता राज्य के राजकाज के असल कर्ताधर्ता हैं। गृहमंत्री भी खुद उन्हीं की पार्टी के हैं। अब ठीकरा फोड़ें, तो आखिर किस पर ? उन्हें मुख्यमंत्री से पूछना चाहिए कि इतना सब होते हुए राज्य में महिला आयोग का अध्यक्ष पद बीते डेढ़ साल से खाली क्यों पड़ा है। निर्लज्जता की पराकाष्ठा देखिए, जिस पार्टी शिवसेना के नेतृत्व की राज्य में सरकार है, उसके मुखपत्र ‘ सामना ‘ में आज ही प्रकाशित अग्रलेख में बताया गया है कि राज्य में कानून-व्यवस्था सुचारु है। किसी दौर में इसी ‘ सामना ‘ के कार्यकारी संपादक संजय राउत ‘सच्चाई’ कॉलम लिखा करते थे। शिवसेना-भाजपा गठबंधन की शिवशाही सरकार के दौरान उन्होंने ‘ सच्चाई ‘ के जरिए कई बार सरकार के खिलाफ तोप दागी। तब ‘ सामना ‘ के संपादक शिवसेनाप्रमुख थे। आज वे नहीं रहे, तो राउत की लेखनी रोजाना सच को झूठ कहते नहीं थक रही। यह दौर का बड़ा संक्रमणकाल ही तो है।

जिस राज्य में एक महिला अधिकारी को अपने कर्तव्य अदायगी के दरमियान हाथ की दो उंगलियां गवां देनी पड़ीं, क्या कहा जा सकता है कि वहां कानून-व्यवस्था साबूत है और वहां के शासक इसे बनाए रखने में सक्षम हैं। अगर किसी को यह सकारात्मक लगता है, तो बहुत ही खेदजनक है। राज्य में गुंडे, मवाली, छिनरे जबर्दस्त पनप रहे हैं और शासक अपनी पीठ थपथपाने में मशगूल हैं। शिवशाही का स्वप्न देख रहे हैं और महाराष्ट्र में अराजकता चरम पर है, वह भी तब, जब हाथ में सत्ता की बागडोर है !

(न्यूज डंका के मुख्य संपादक दिनेश कानजी का संपादकीय)

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