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भारत छोड़ो आंदोलन तो फ्लॉप, फिर कैसे मिली आजादी?

8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हुआ था

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महात्मा गांधी और काँग्रेस ने 8 अगस्त , 1942 में नारा दिया अंग्रेजों भारत छोड़ो। और 1947 में अंग्रेज भारत छोड़ कर चले गए। हमें इतिहास के किताबों में यही पढ़ाया गया, लेकिन हकीकत में यह वामपंथी और कॉंग्रेसी इतिहासकारों का रचा गया एक छल है। जिसका मकसद आनेवाली पीढ़ियों का ब्रेन वॉश करना था। लेकिन भारत की आजादी का सत्य हमें पता होनी चाहिए कि हमें आजादी किस हाल में मिली? आज मैं आपको बताऊँगी की 1942 का आंदोलन किस मजबूरी के तहत शुरू किया गया था और यह आंदोलन एक तरफ से नाकाम क्यूँ रहा?  

भारत छोड़ो आंदोलन एक असफल आंदोलन था, और भारत की आजादी में इसका एक सामान्य सा योगदान था। इस संदर्भ में यहाँ यहाँ जिस हस्ती के बयान की जानकारी दे रही हूँ वह हैं उस समय के तत्कालीन प्रधानमंत्री एटली के बारे में जो थे तो अंग्रेज पर भारत की आजादी में  उसका योगदान किसी से भी कम नहीं था। भारत को आजादी देने वाले प्रधानमंत्री एटली ने खुद माना था कि इन्होंने भारत को आजाद करने का फैसला भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से नहीं लिया था बल्कि अंग्रेजों ने भारत छोडा था, उसकी वजह सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज और 1946 की मुंबई में हुए नौसैनिक विद्रोह थी। दरअसल एटली 1956 में कोलकाता आए थे। इस दौरान वह पूरे दो दिन तक पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक गवर्नर जस्टिस पीबी चक्रवर्ती के मेहमान थे। जस्टिस चक्रवर्ती ने एक पत्र में जो लिखा था बेहद चौकानेवाला था। उन्होंने इसमें लिखा था ब्रिटेन को किन वजहों से भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, इस विषय पर एटली से विस्तार में चर्चा हुई। पीबी चक्रवर्ती ने उनसे सीधा सवाल किया कि गांधीजी द्वारा शुरू हुआ भारत छोड़ो आंदोलन अपनी धार खो रहा था। 1947 में कोई और बड़ी वजह भी दिखाई नहीं देती थी फिर क्या कारण था कि एकाएक ब्रिटिश सरकार ने भारत को आजाद करने का फैसला कर लिया?…  जवाब में एटली ने कई कारण गिनाए लेकिन उन सब में सबसे मुख्य था भारतीय सेना और नौसैनिक में ब्रिटिश शासन के प्रति बढ़ता असंतोष और अविश्वास। इस अविश्वास के भी बढ़ने का प्रमुख कारण सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज थी। उसके बाद चक्रवर्ती ने चर्चा के अंत में पूछा कि भारत को आजाद करने के फैसले में महात्मा गांधी का कितना प्रभाव रहा इसे सुनने के बाद एटली ने ताना मारते हुई धीरे से कहा बहुत कम। तो जस्टिस पीबी चक्रवर्ती के मुताबिक एटली ने उनसे कहा था कि भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से अंग्रेजों ने भारत नहीं छोड़ा। 

1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध अपने चरम पर था, एशिया में जापान तेजी से आगे बढ़ रहा था। उसने भारत के पास बर्मा और अंडमान पर कब्जा कर लिया था। यानी युद्ध की चिंगारी अब भारत तक पहुँच चुकी थी। वहीं नेता सुभाष चंद्र बोस पहले ही जापान और जर्मनी से हाथ मिला चुके थे। वो तेजी से पूरे देश के एकलौते नायक बन रहे थे। उधर बंगाल में अकाल की शुरुवात हो चुकी थी। ऐसे में देश की आम जनता बेहद गुस्से में थी साथ ही उसका महात्मा गांधी के अहिंसा से मन ऊब चुका था। काँग्रेस की निष्क्रियता से भी जनता निराश थी, यही वजह है कि 1942 में  गांधी जी ने करो या मरो का नारा दिया और पहली बार सार्वजनिक हड़तालों का समर्थन किया। साथ ही महात्मा गांधी ने यह भी कहा की कोई भी कार्यकर्ता आसानी से गिरफ्तार ना हो और जितना हो सके अपनी गिरफ़्तारी का विरोध करे यानी महात्मा गांधी को समझ में आ गया था कि उन्हें जनता को अगर साधना हैं तो कोरी अहिंसा की बातों से काम नहीं चलेगा उस दौर में अंग्रेज तो अंग्रेज काँग्रेस के दिग्गज भी सुभाष चंद्र बोस से डरे हुए थे। और इसमें सबसे आगे थे जवाहर नेहरू यह बात हम नहीं बल्कि उस समय के स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया की पुस्तक ‘भारत विभाजन के गुन्हेगार’ में लिखा है। इस पुस्तक के मुताबिक जवाहरलाल नेहरू सुभाष चंद्र बोस की सफलता से इतना जल गए थे कि वे विक्षिप्त की तरह बर्ताव कर रहे थे। लोहिया इसस किताब में लिखते है, 1942 में नेहरू की विक्षिप्त प्रतिक्रियाएं सामने आ रही थी। उन्होंने ये सार्वजनिक घोषणा कर दी कि जापान का मुकाबला करने के लिए लाखों गोरिल्ला तैयार किए जाएं।  नेहरू की ये प्रतिक्रिया कुछ हद तक सुभाष चंद्र बोस के लिए ईर्ष्या की भावना से प्रेरित थी, सुभाष चंद्र बोस धुरी राष्ट्रों अर्थात जर्मनी और जापान की तरफ चले गए थे, वो कम से कम ये दावा तो कर सकते थे कि वो भारत के लिए एक राष्ट्रीय सेना खड़ी कर रहे हैं। जबकि नेहरू की कृतियों का परिणाम होता ब्रिटिश ताज की सेवा करना।1942 के इन भयानक महीने में नेहरू एक तरफ जापानियों से हारते तो वहीं दूसरी तरफ पुराने प्रतिद्वंदी सुभाष चंद्र बोस के हाथों परास्त होने के भय से भी त्रस्त थे। तो कहा जा सकता है कि जापान, सुभाष चंद्र बोस और जनता के विरोध के डर से महात्मा गांधी ने जल्दबाजी में भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान कर दिया। ऐसा जिसकी ना तो कोई प्लानिंग थी और ना ही इसका कोई लक्ष्य था। इस बात को अब्दुल कलाम आजाद ने अपनी किताब इंडियंस वीनस फ्रीडम में लिखा था , इनके बात पर भरोसा करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि उस समय वह काँग्रेस के अध्यक्ष थे और वैसे भी इस देश का धर्मनिरपेक्ष गैंग मौलाना आजाद को अपना आदर्श मानता है। मौलाना आजाद की किताब इंडियन वीनस फ्रीडम में लिखते है कि मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि दुश्मन यानी जापान जब देश की सीमा पर खड़ा है तो उस समय अंग्रेज हमारे इस आंदोलन को सहन करेंगे। लेकिन गांधीजी को विश्वास था कि अंग्रेज विरोध को सहन करेंगे। वो सोच रहे थे कि अंग्रेज उन्हें अपने ढंग से बढ़ाने देंगे। परंतु जब मौलाना आजाद ने महात्मा गांधी से पूछा कि, बताइए आंदोलन का सही कार्यक्रम क्या होगा तो इस बारे में उनका कोई स्पष्ट विचार नहीं था। मौलाना आजाद कहते है कि इस संबंध में मैंने जब कार्यसमिति में अपने विचार रखे तो केवल जवाहरलाल नेहरू ने मेरी बातों का समर्थन किया।  

मौलाना की बात से स्पष्ट है कि वह और जवाहरलाल नेहरू भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करने के पक्ष में नहीं थे। खैर 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने करो या मरो का नारा दे दिया जिसे भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुवात हुई  मानी जाती है। 8 और 9 अगस्त को रात में ही गांधी समेत काँग्रेस के सभी बड़े और छोटे नेता गिरफ्तार कर लिए गए। देशभर में काँग्रेस का नेतृत्व करनेवाला कोई नेता नहीं बचा था। अंग्रेजों के एक्शन से महात्मा गांधी हैरान, परेशान थे। यहाँ तक कि शायद पहली बार उन्हें अपने गिरफ़्तार होने का दुख हुआ था। इस बात को मौलाना अबुल आजाद ने अपनी किताब इंडियंस वीनस फ्रीडम में लिखा था। यानी भारत छोड़ो आंदोलन को शुरू हुए अभी 24 घंटे भी नहीं गुजरे थे कि उसके नेताओं को यह तक नहीं मालूम था कि अब आगे क्या करना हैं? जाहीर है आंदोलन एक अराजकता की ओर जा चुका था। हालांकि यह सभी जानकारी ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली, राम मनोहर लोहिया और मौलाना आजाद के बयानों और किताबों से प्राप्त जानकारी के आधार पर आप सभी के समक्ष प्रस्तुत किया है।  

बावजूद इसके आप सभी को ऐसे हस्ती के बारे में बताऊँगी जिसे 1942 की नायिका कहा जाता है उनका नाम है भारतरत्न अरुणा आसफ अली जिन्होंने 9 नवंबर 1942 को मुंबई के गोवरिया टैंक मैदान में काँग्रेस का झण्डा फहरा कर अंग्रेजों सरकार को हिला दिया था। तब महज 33 साल की रही अरुणा आसफ अली ने भूमिगत रहकर भारत छोड़ो आंदोलन को चलाने में यहां भूमिका निभाई थी। इस आंदोलन के 25 साल बाद अरुणा आसफ अली ने माना था कि भारत छोड़ो आंदोलन एक असफल आंदोलन था। उन्होंने अगस्त 1967 में दैनिक हिंदुस्तान अखबार को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि भारत छोड़ो आंदोलन असफल रहा था। हमारे नेताओं ने ये कल्पना की थी कि 8 अगस्त 1942 की रात में ही उनको गिरफ्तार कर लिया जाएगा। वो सभी जेलों में जा बैठे और बाहर हम लोगों का मार्गदर्शन करनेवाला कोई नहीं था। जिसकी समझ में जो आया उसने वो किया। मुझे कतई ये नहीं लगता कि भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से हमें आजादी मिली। इनके इस बातों से तो आप समझ गए होंगे की अरुणा आसफ अली ने भी भारत छोड़ो आंदोलन को आजादी की वजह नहीं समझी।  

आपको ऐसे महान हस्ती के बारे में बताने जा रहे है, जिसकी सच्चाई और देश भक्ति पर हिंदुस्तान का कोई भी इंसान सवाल नहीं उठा सकता है वह नाम हैं लोक नायक जयप्रकाश नारायण महान स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण ने अज्ञातवास में रहकर भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व किया था। जब सारे बड़े नेता जेल में बंद थे तब जयप्रकाश नारायण 9 नवंबर 1942 को दिवाली की रात हजारी बाग सेंट्रल जेल की दीवार फांद कर भाग निकले थे। उन्होंने देश के अलग-अलग कोनों में जाकर आंदोलनों को सफल बनाने की पूरी कोशिश की। इसी अज्ञातवास के दौरान जयप्रकाश नारायण  ने जनवरी 1943 में देश के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ एक खुला पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के असफल होने के कारण गिनाएं थे। जयप्रकाश नारायण  ने लिखा था भारत छोड़ो आंदोलन के नीचे जाने के दो कारण हैं। पहला तो ये कि एक कुशल संगठन का अभाव हैं और दूसरा कारण ये कि राष्ट्रीय क्रांति के लिए एक पूर्ण कार्यक्रम की कमी है।  

ऐसा नहीं है कि भारत छोड़ो आंदोलन का इस देश की आजादी में कोई योगदान नहीं है। लेकिन किसी एक आंदोलन को पूरा क्रेडिट दे देना सही बात नहीं है। लेकिन वामपंथी इतिहासकारों और हमारे कॉंग्रेस की सरकारों ने लोगों के दिमाग में हमेशा यही भरने का प्रयास किया कि भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से ही हमें आजादी मिली है। सोचने वाली बात है कि किसी भी सफल आंदोलन और क्रांति का फल तत्काल मिलता है ना कि उसके असर में पाँच साल लग जाते है। काँग्रेस के सरकारों ने बेहद चालाकी के साथ 1946 में हुए नौसैनिक विद्रोह की कहानी को इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया। जबकि हकीकत यह है कि इस विद्रोह ने लंदन में बैठी सरकार को हिला दिया था। नौसैनिक विद्रोह के बाद ब्रिटेन की सैनिक इंटेलिजेंट ने रिपोर्ट दी थी कि भारतीय सैनिक बुरी तरह से भड़के हुए है और अब उनपर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। ध्यान देने वाली बात है कि 1946 में भारत में महज 40 हजार ब्रिटिश सैनिक ही मौजूद थे और इनमें से ज्यादातर अपने देश लौटना चाहते थे। वहीं इनकी तुलना में भारतीय सैनिकों की तादात 20 लाख के आस-पास थी। यानी अगर पूरी सेना में विद्रोह फैल जाता तो अंग्रेज सैनिक पहले ही बिखर जाते। यही वजह है कि लंदन की सरकार ने भारत छोड़ने का फैसला किया। 

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