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क्या ‘आंबेडकर’ बदलेंगे MVA का समीकरण?

उद्धव ठाकरे ने प्रकाश अम्बेडकर के नेतृत्व वाली वंचित बहुजन अघाड़ी के साथ गठबंधन की घोषणा की है।

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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के महीनों बाद, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने आज बड़ा ऐलान किया है। उद्धव ठाकरे ने आज बी.आर. अम्बेडकर के पोते प्रकाश अम्बेडकर के नेतृत्व वाली वंचित बहुजन अघाड़ी के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन की घोषणा की है। यह बड़ी घोषणा बीएमसी चुनावों से ठीक पहले हुई है। उनके इस घोषणा के बाद बीएमसी चुनाव दिलचस्प होने वाली है।

उद्धव ठाकरे ने एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि ‘हम संविधान को समूचा रखने के लिए एक साथ आए हैं।’ इस दौरान उन्होंने प्रकाश अंबेडकर के साथ मंच साझा किया। गौरतलब है कि उद्धव की महा विकास अघाड़ी सरकार को जून में एकनाथ शिंदे नेतृत्व वाले विद्रोही सेना गुट द्वारा गिरा दिया गया था। गठबंधन पर प्रकाश अंबेडकर ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस और एनसीपी उनकी वीबीए पार्टी को सहयोगी के रूप में भी स्वीकार करेंगे। अंबेडकर ने ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग को लेकर भी भाजपा सरकार पर हमला किया।

दरअसल, एकनाथ शिंदे के अलग हो जाने के बाद उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना के लिए बड़ी चुनौतियां हैं। शिंदे बीजेपी के साथ महाराष्ट्र में सरकार चला रहे हैं और उसके मुखिया हैं, जबकि उद्धव सत्ता से बाहर हैं। यही नहीं उनके सामने पार्टी की विश्वसनीयता और बाला साहेब ठाकरे की विरासत को बचाने की भी चुनौती है, क्योंकि दोनों पर एकनाथ शिंदे मजबूती से दावा ठोक रहे हैं।

प्रकाश आंबेडकर और उद्धव का साथ आना बड़े संकेत देता है। दरअसल इस साल राज्य में बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) चुनाव होना है। फिर अगले साल 2024 में लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होना है। अगर यह गठबंधन चुनाव में असर डालने में कामयाब रहा तो पार्टी को नई ऊर्जा और आत्मविश्वास देगा। बता दें कि शिवसेना लगभग 30 सालों से मुंबई बीएमसी पर राज कर रही है। साल 2017 के बीएमसी चुनावों में शिवसेना ने 84 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं भाजपा ने भी अपनी सीटों में काफी सुधार किया था और 82 सीटें हासिल की थी।

बात यदि साल 2019 के लोकसभा चुनाव की करें तो प्रकाश आंबेडकर की पार्टी को करीब 10 निर्वाचन क्षेत्रों में एक लाख से ज्यादा वोट पड़े थे। तब प्रकाश आंबेडकर की पार्टी का गठबंधन असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम से था। तब दलित-मुस्लिम गठजोड़ बना था और एआईएमआईएम के खाते में औरंगाबाद सीट गई थी। यही नहीं 2019 के विधानसभा चुनाव में भी प्रकाश आंबेडकर की पार्टी ने कांग्रेस-एनसीपी के वोट काटे थे, जिससे बीजेपी को फायदा हुआ था।

यह भी देखना होगा कि क्या उद्धव महाविकास अघाड़ी के बाकी सहयोगियों कांग्रेस और एनसीपी के साथ ही रहते हैं या उनसे अलग रहते हैं। हालांकि, राजनीतिक जानकार मानते हैं कि उद्धव अपने पुराने सहयोगियों का साथ नहीं छोड़ेंगे और नए सहयोगियों को जोड़ेंगे ताकि महाविकास अघाड़ी की ताकत और बढ़े। एक तरफ जहां कांग्रेस ने अभी तक गठबंधन को स्वीकार नहीं किया है। तो दूसरी और यह उम्मीद जताई जा रही है कि शरद पवार भी गठबंधन में शामिल होंगे।”

वहीं इससे पहले शिंदे सरकार ने पीपल्स रिपब्लिकन पार्टी के साथ अपने आधिकारिक गठबंधन की घोषणा जनवरी 2023 में कर चुके। पीपल्स रिपब्लिकन पार्टी डॉक्टर जोगेंद्र कवाडे की है। अब एकनाथ शिंदे यानी बालासाहेब की शिवसेना और पीपल्स रिपब्लिकन रिपब्लिकन पार्टी मिलकर आगामी चुनावों में चुनावी मैदान में उतरेगी। हालांकि इस मुद्दे पर जोगेंद्र कवाडे ने स्पष्ट कर दिया कि इस गठबंधन में एकनाथ शिंदे द्वारा उन्हें जितनी सीटें किसी भी चुनाव में दी जाएंगी। वह उस पर ही अपने प्रत्याशी खड़ा करेंगे। जोगेंद्र कवाडे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि वह मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से काफी प्रभावित हैं। इससे पहले कावडे ने 1984 में कथित तस्कर हाजी मस्तान मिर्जा के साथ मिलकर दलित मुस्लिम सुरक्षा महासंघ का गठन किया था, जो महाराष्ट्र में दलित-मुस्लिम का पहला राजनैतिक गठजोड़ था। कावडे अतीत में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी गठजोड़ कर चुके हैं।

दूसरी तरफ बीजेपी के साथ केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले की पार्टी आरपीआई का गठबंधन है। रामदास अठावले हर चुनाव में बीजेपी के प्रचार के लिए जाते हैं। इसके साथ ही वह अपनी पार्टी के उम्मीदवारों का भी गठबंधन की तरफ से प्रचार करते हैं। बीजेपी के साथ गठबंधन में उन्हें खुद केंद्र में राज्यमंत्री का पद मिला है। वहीं महाराष्ट्र में जब शिवसेना-बीजेपी की पुरानी सरकार थी। तब अठावले गुट के एक नेता को राज्य मंत्री भी बनाया गया था।

संयोगवश, शिवसेना और बौद्ध दलितों के बीच दुश्मनी का इतिहास रहा है। शिवसेना और दलित पैंथरों के बीच वर्ली में 1974 में संघर्ष हुआ था। पैंथरों को शिवसेना से भिड़ने वाला इकलौता सामाजिक समूह माना जाता था। शिवसेना ने मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी का नाम आंबेडकर रखे जाने का विरोध किया था और इसी मुद्दे पर उसने मराठों, हिंदू दलितों और ओबीसी के बीच अपना आधार बढ़ाया अठावले और कावडे ‘नामांतर’ आंदोलन की उपज हैं, जिसमें यूनिवर्सिटी का नाम बदलने की मांग की गई थी। विरोध करने में मराठा जाति व शिवसेना पार्टी सबसे आगे थी।

वहीं बौद्ध व दलित समाज ने भी विश्वविद्यालय को आम्बेडकर का नाम देने के लिए रैलियां निकाली, दलित पैंथर ने इसमें सक्रियता से भाग लिया था। तब महाराष्ट्र में रैलियां व प्रति-रैलियों का दौर था। यह महज एक आंदोलन नहीं था, बल्कि इसने एक सामाजिक संघर्ष का रूप ले लिया था। कई प्रगतिशील संगठनों और व्यक्तियों ने सक्रिय रूप से इस संघर्ष का समर्थन किया। यह हिंसा कथित तौर पर मराठा समुदाय के सदस्यों द्वारा आयोजित की गई थी। वहीं 16 वर्ष की लढाई के बाद मराठवाडा विश्वविद्यालय को १४ जनवरी १९९४ को “डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय” नाम दिया गया। इस आन्दोलन को सफल बनाने में कई लोगों की जांने गई तो कई लोगों को इसकी बहुत बडी कितम चूकानी पडी थी।

यह समझना मुश्किल नहीं है कि मुख्यधारा की सियासी पार्टियां आरपीआइ के गुटों को रिझाने के लिए क्यों लालायित हैं। इन गुटों में मुख्यत: नव बौद्ध दलित हैं। नव-बौद्ध (वे महार जिन्होंने 1956 में आंबेडकर के साथ धर्मांतरण कर लिया) राज्य की आबादी का 7-8 फीसद हैं और वे दलितों में सबसे बड़े समूह हैं। इसके अलावा, दलितों में सबसे ज्यादा जुझारू समझे जाने वाले नव-बौद्धों को किसी मुद्दे पर एकजुट करना आसान होता है। महाराष्ट्र में करीब 59 अनुसूचित जाति (एससी) समूह हैं। हालांकि कोई समुदाय एक साथ किसी को वोट नहीं करता लेकिन विभिन्न आरपीआइ गुटों को नव-बौद्ध दलितों के बीच समर्थन हासिल है।

अब सवाल यह उठता है कि आखिर चाहे उद्धव ठाकरे हो एकनाथ शिंदे हो या फिर बीजेपी हर किसी को दलित समाज का साथ क्यों चाहिए? दरअसल महाराष्ट्र में दलित समाज की अच्छी खासी संख्या है। इस वजह से कई नेता इस वर्ग पर अपना अधिकार और प्रभुत्व जताते रहते हैं। उन्ही में शामिल है आरपीआई प्रमुख रामदास अठावले, पीपल्स रिपब्लिकन पार्टी के प्रमुख जोगेंद्र कवाडे और वंचित बहुजन अघाड़ी के मुखिया प्रकाश आंबेडकर हैं। खास बात यह भी है कि इतना बड़ा वोट बैंक होने के बाद भी यह समाज अलग-अलग दलों और नेताओं के बीच में बटा हुआ है। इसी वजह से इस समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता तो बड़े हो जाते हैं लेकिन समाज वहीं का वहीं है।

इस वोट बैंक पर अब हर सियासी गुट की नजर है। हर कोई जानता है कि जिस तरफ यह ताकत झुक गई उसकी जीत तय है। उद्धव और शिंदे, दोनों के नेतृत्व वाले गुट खुद को ‘असली’ शिवसेना साबित करने में जुटे हैं। यह मुंबई में उनके प्रदर्शन पर निर्भर करेगा, जहां बीएसएस-भाजपा बृहन्नमुंबई नगर निगम पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रही हैं। देश के सबसे अमीर शहरी निकाय पर फिलहाल उद्धव गुट का कब्जा है। दोनों के बीच संघर्ष तेज होने पर छोटी पार्टियां चुनाव के नतीजे बदल सकती हैं। उद्धव और अंबेडकर के इस गठबंधन का मुकाबला करने के लिए सीएम शिंदे ने राज्य के कई दलित नेताओं के साथ बैठकें भी कीं थीं। यहां तक कि डॉ. अंबेडकर की अंतरराष्ट्रीय प्रतिमा और शैक्षिक केंद्र के चल रहे काम पर चर्चा करने के लिए प्रकाश अंबेडकर ने सीएम शिंदे के साथ कुछ बैठकें भी कि है।

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