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हिन्दू कैलेंडर ही नहीं, हमारी जड़ जमीन

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गुड़ी पड़वा महाराष्‍ट्र और दक्षिण भारत के सबसे प्रमुख त्‍योहारों में से एक है। इस दिन से हिन्दू नववर्ष का भी आरंभ होता है। इसके साथ ही नवसंवत्‍सर भी शुरू होता है। दक्षिण भारत के लोग इसे उगादी पर्व कहते हैं। गुड़ी पड़वा का महत्‍व हिंदू धर्म में बहुत ही खास माना गया है। महाराष्‍ट्र में इस दिन अपने घर पर गुड़ी फहराने की परंपरा है। मान्‍यता है कि घर में गुड़ी फहराने से हर प्रकार की नकारात्‍मक शक्ति दूर होती है। इस दिन से वसंत का आरंभ माना जाता है और इसे दक्षिण भारत के राज्‍यों में फसल उत्‍सव के रूप में मनाते हैं। अलग-अलग स्‍थानों पर इसे संवत्सर पड़वो, उगादि, चेती, नवरेह के नाम से जाना जाता है। चलिए जानते हैं कि आखिर गुड़ी पड़वा को मनाने का क्या महत्व हैं-

गुड़ी पड़वा से जुड़ी तो वैसे कई मान्यता हैं लेकिन एक मान्यता हैं जो काफी प्रचलित हैं वह यह हैं कि भारत पर मुगलों का शासन था उस समय मराठा वीर शिवाजी ने मुगलों को हराकर उन पर विजय पाई थी। शिवाजी ने अपने विवेक और बुद्धि से मुगलों से कई किले जीते जिसके बाद महाराष्ट्र के लोगों ने इसे जीत दिवस के रूप में मनाया।

महाराष्ट्र में इस दिन लोग घर के प्रवेश द्वार पर एक गुढ़ी लगाते हैं। नीम की एक शाखा बांस की एक लंबी छड़ी पर रखी जाती है, एक रेशमी कपड़ा या साड़ी ऊपरी सिरे के चारों ओर लपेटी जाती है। डंडे में फूलों और शक्कर की माला बांधकर उस पर ताम्र/धातु का लोटा रखकर बांस की थाली पर गुढ़ी को खड़ा कर दिया जाता है, तैयार गुढ़ी को दरवाजे पर या ऊंचे चबूतरे पर रख दिया जाता है। गुढ़ी को फूल, धूप और अगरबत्ती दिखाई जाती है। दोपहर को मिठाई चढ़ाने के बाद शाम को हल्दी और कुमकुम और फूल चढ़ाया जाता है। इस दिन को मनाते हुए, भक्तों को नए साल की शुभकामनाएं और गुड़ी पड़वा की हार्दिक शुभकामनाएं दी जाती हैं।

वहीं आज से देवी आराधना का महापर्व चैत्र नवरात्रि भी शुरू हो गया हैं। 30 मार्च तक नवरात्रि है और 31 मार्च को दशमी के दिन समापन होगा। नवरात्रि में पूरे 9 दिनों तक मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-उपासना की जाती है। नवरात्रि में मां दुर्गा का आगमन विशेष वाहन में होता है, जिसका अपना खास महत्व होता है। दरअसल माता रानी के वाहन को शुभ-अशुभ फल का सूचक माना गया है। इसका प्रकृति से लेकर मानव जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इस बार चैत्र नवरात्रि पर मां दुर्गा नौका पर सवार होकर आ रही हैं। कहते हैं कि मां दुर्गा जब नौका पर सवार होकर धरती पर आती हैं तो इसका मतलब है कि उस साल अच्छी बारीश व फसल की संभावना है। यानि यह साल किसानों के लिए बहुत ही शुभ और फलदायी साबित होने वाला है। ज्योतिषों के अनुसार इस नवरात्री माता रानी का आना और जाना दोनों ही शुभ स्थिति में होने जा रहा है।

हालांकि हिन्दू नए साल का तारीख से उतना संबंध नहीं है, जितना मौसम से है। उसका आना सिर्फ कैलेंडर से पता नहीं चलता। बल्कि प्रकृति झकझोरकर हमें चौतरफा फूट रही नवीनता का अहसास कराती है। जिसमें पुराने पीले पत्ते पेड़ से गिरते हैं। नई कोंपलें फूटती हैं। प्रकृति अपने श्रृंगार की प्रक्रिया में होती है। लाल, पीले, नीले, गुलाबी फूल खिलते हैं। ऐसा लगता है कि पूरी-की-पूरी सृष्टि ही नई हो गई है।

हालांकि जो लोग कुदरत के इस खेल को नहीं समझते, उनके लिए फरहत शहजाद की एक गजल भी है, जिसे मेंहदी हसन ने गाया था- कोंपलें फिर फूट आईं, शाख पर कहना उसे/वो न समझा है, न समझेगा मगर कहना उसे। चैत्र आते ही प्रकृति दिव्य, मोहक, शांत और सुभग हो जाती है। फागुन और चैत्र की सीमा पर आकाश अपने शिव स्वरूप में होता है। ऐसी मोहक रात पूरे साल में कम होती है। जबकि चैत्र प्रतिपदा महसूस कराती है.कि पुराना जा रहा है, नया आ रहा है।

पतझड़ और बसंत साथ-साथ, इस व्यवस्था के गहरे संकेत हैं। आदि-अंत, अवसान-आगमन, मिलना-बिछुड़ना, पुराने का खत्म होना, नए का आना। सुनने में चाहे भले यह असगंत लगे, पर हैं साथ-साथ, एक ही सिक्के के दो पहलू जीवन का यही सार हमारे नए साल का दर्शन है। वहीं बसंत ऋतु में वसंत पंचमी, शिवरात्रि तथा होली नामक पर्व मनाए जाते हैं।
हम दुनिया में सबसे पुरानी संस्कृति के लोग हैं। काल को बांटने का काम हमारे पुरखों ने सबसे पहले किया। काल को बांट दिन, महीना, साल बनाने का काम भारत में ही शुरू हुआ। जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर भी मानते हैं- आकाश मंडल की गति, ज्ञान, काल निर्धारण का काम पहले-पहल भारत में हुआ था. ऋग्वेद कहता है, ऋषियों ने काल को बारह भागों और तीन सौ साठ अंशों में बांटा है। वैज्ञानिक चिंतन के साथ हुए इस बंटवारे को बाद में ग्रेगेरियन कलेंडर ने भी माना। आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त ने छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी काल की इकाई को पहचाना। बारह महीने का साल और सात रोज का सप्ताह रखने का रिवाज विक्रम संवत् से शुरू हुआ।

विक्रम संवत् से 6667 ईसवी पहले हमारे यहां सप्तर्षि संवत् सबसे पुराना संवत् माना जाता था। फिर कृष्ण जन्म से कृष्ण कलेंडर, उसके बाद कलि संवत् आया। विक्रम संवत् की शुरुआत 57 ईसा पूर्व में हुई। इसके बाद 78 ईसवीं में शक संवत् शुरू हुआ। भारत सरकार ने शक संवत् को ही माना है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही चंद्रमा का ट्रांजिशन शुरू होता है। इसलिए चैत्र प्रतिपदा चंद्रकला का पहला दिन होता है। चंद्रवर्ष 354 दिन का होता है। यह भी चैत्र से शुरू होता है। सौरमास में 365 दिन होते है। दोनों में हर साल दस रोज का अंतर आ जाता है। ऐसे बढ़े हुए दिनों को ही मलमास या अधिमास कहते हैं।

हमारी परंपरा में नया साल खुशियां मनाने का नहीं, प्रकृति से मेल बिठा खुद को पुनर्जीवित करने का पर्व है। इस बड़े देश में हर वक्त, हर कहीं, एक सा मौसम नहीं रहता। इसलिए अलग-अलग राज्यों में स्थानीय मौसम में आनेवाले बदलाव के साथ नया साल आता है। वर्ष प्रतिप्रदा भी अलग-अलग जगह थोड़े अंतराल पर मनाई जाती है। कश्मीर में इसे नवरोज तो आंध्र और कर्नाटक में उगादि, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा, केरल में विशु कहते हैं। सिंधी इसे झूलेलाल जयंती के रूप में चेटीचंड के तौर पर मनाते हैं। तमिलनाडु में पोंगल, बंगाल में पोएला बैसाख पर नया साल मनाते हैं।

चैत्र प्रतिप्रदा को लेकर अलग ही मान्यता है कहते है कि ब्रह्मा ने चैत्र प्रतिप्रदा के दिन ही दुनिया बनाई। भगवान् राम का राज्याभिषेक इसी दिन हुआ था। महाराज युधिष्ठिर भी इसी दिन गद्दी पर बैठे थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदू पद पादशाही की स्थापना इसी दिन की।

सैकड़ों सालों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत् प्रयोग में आते रहे। इससे काल निर्णय में अनेक भ्रम हुए। यह जो विक्रम संवत् है, वह ई.पू. 57 से चल रहा है और सबसे वैज्ञानिक है। अगर न होता तो पश्चिम के कलेंडर में यह तय नहीं है कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण कब लगेंगे, पर हमारे कलेंडर में तय है कि चंद्रग्रहण पूर्णिमा को और सूर्यग्रहण अमावस्या को ही लगेगा। हालांकि जो भी हो, हमारे देश में परंपरा, मौसम और प्रकृति के मुताबिक वर्ष प्रतिपदा नए सृजन, वंदन और संकल्प का उत्सव मनाया जाता है। आइए इस नए साल की परंपरा, नूतनता और इसके पावित्र्य का स्वागत सब मिल कर करें।

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