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2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस: 18 साल बाद हाईकोर्ट से सभी 12 दोषी बरी !

ठोस सबूतों के अभाव में सभी दोषी बरी

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2006 के चर्चित मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट केस में सोमवार (21 जुलाई) को बॉम्बे हाईकोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया। अदालत ने सभी 12 दोषियों को ठोस सबूतों के अभाव के चलते बरी कर दिया। इससे पहले इन आरोपियों को दोषी पाते हुए को पहले स्पेशल MCOCA कोर्ट ने मौत और उम्रकैद की सजा सुनाई थी। कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में पूरी तरह असफल रहा और दोषियों के खिलाफ कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाया।

हाईकोर्ट की दो जजों की पीठ ने “आरोप साबित नहीं हुए, विश्वास करना कठिन है कि आरोपियों ने अपराध किया”, यह टिप्पणी करते हुए निचली अदालत के सभी फैसले रद्द कर दिए और दोषियों को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया है, बशर्ते कि वे किसी अन्य मामले में वांछित न हों।

11 जुलाई 2006 की शाम मुंबई की उपनगरीय लोकल ट्रेनों पर हुए सिलसिलेवार बम धमाकों ने देश को झकझोर कर रख दिया था। यह हमला उस समय हुआ जब ऑफिस से लौटते हजारों लोग ट्रेनों में सफर कर रहे थे। महज 11 मिनट के भीतर सात ट्रेनों के डिब्बों में विस्फोट हुए, जिनमें प्रेशर कुकर बम का इस्तेमाल किया गया था। यह सभी ट्रेनें पश्चिमी रेलवे की उपनगरीय लाइन पर चल रही थीं। इन हमलों में 189 निर्दोष यात्रियों की मौके पर ही मौत हो गई थी, जबकि 824 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। घटनास्थल का मंजर युद्ध क्षेत्र जैसा प्रतीत हो रहा था – टूटी हुई ट्रेनें, लहूलुहान यात्री, चीख-पुकार, और अफरा-तफरी का माहौल!

इस आतंकवादी हमले की जिम्मेदारी उठाने वाला कोई प्रत्यक्ष संगठन सामने नहीं आया, लेकिन महाराष्ट्र एटीएस (ATS) ने जांच के आधार पर कुछ संदिग्धों को हिरासत में लिया और दावा किया कि ये सभी आरोपित पाकिस्तान में प्रशिक्षित थे और भारतीय मुसलमान युवकों को कट्टरपंथी बना कर इस योजना में शामिल किया गया था। 2015 में स्पेशल MCOCA कोर्ट ने इस मामले में 12 आरोपियों को दोषी ठहराया। इनमें से 5 को मृत्युदंड और 7 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि ये सभी अभियुक्त ट्रेन डिब्बों में बम लगाने की साजिश में शामिल थे और इन्हीं के कारण सैकड़ों बेगुनाहों की जान गई।

इन 12 दोषियों में से कुछ की पहचान इस प्रकार थी: कमाल अंसारी (बिहार), मोहम्मद फैसल अताउर रहमान शेख (मुंबई), एहतेशाम कुतुबुद्दीन सिद्दीकी (ठाणे), नावेद हुसैन खान (सिकंदराबाद), और आसिफ खान (जलगांव)। इन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी। वहीं तनवीर अहमद, मोहम्मद माजिद शफी, शेख मोहम्मद अली, मोहम्मद साजिद, मुज़म्मिल शेख, सुहैल शेख और जमीर रहमान को उम्रकैद दी गई थी। इनमें से एक आरोपी कमाल अंसारी की 2021 में कोविड-19 के दौरान नागपुर जेल में मृत्यु हो गई। एक अन्य आरोपी, वहीद शेख को ट्रायल कोर्ट ने पहले ही नौ वर्षों की सजा काटने के बाद साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया था।

जुलाई 2024 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले में विशेष पीठ का गठन किया था न्यायमूर्ति अनिल किलोर और न्यायमूर्ति श्याम चांडक की विशेष पीठ के न्यायाधीश थे, जिन्होंने कहा, “अपीठ ने कहा, “अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ मामला साबित करने में पूरी तरह विफल रहा है। यह मानना मुश्किल है कि आरोपियों ने अपराध किया है। इसलिए, उनकी दोषसिद्धि रद्द की जाती है और उसे रद्द किया जाता है।” अदालत ने कहा कि अगर आरोपी किसी अन्य मामले में वांछित नहीं हैं, तो उन्हें जेल से रिहा कर दिया जाएगा।

करीब छह महीनों तक इस मामले की रोज़ाना सुनवाई हुई, जिसमें सभी दोषियों ने अपनी अपील दायर की थी। बचाव पक्ष के वकीलों ने कोर्ट में तर्क दिया कि आरोपियों के खिलाफ प्रस्तुत किए गए कबूलनामे महाराष्ट्र एटीएस द्वारा यातना और दबाव के तहत प्राप्त किए गए थे, जो भारतीय साक्ष्य कानून के अंतर्गत मान्य नहीं हैं। इसके अलावा न तो घटनास्थल से कोई प्रत्यक्ष सबूत मिले, न ही आरोपियों से किसी प्रकार के बम, विस्फोटक या संचार उपकरण बरामद हुए। वकीलों ने कोर्ट से कहा कि इन युवकों को झूठे केस में फंसाया गया है और उन्होंने 18 वर्षों तक बिना दोष साबित हुए जेल में अपनी ज़िंदगी के सबसे कीमती साल गवाएं हैं।

सभी तर्कों और साक्ष्यों की समीक्षा करने के बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध करने में पूरी तरह असफल रहा है। कोर्ट ने कहा कि “यह विश्वास करना कठिन है कि आरोपितों ने ही यह अपराध किया है।” इस आधार पर ट्रायल कोर्ट के सभी निर्णयों को रद्द कर दिया गया और सभी 12 आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया गया। कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि यदि ये लोग किसी अन्य केस में वांछित नहीं हैं, तो उन्हें तत्काल जेल से रिहा किया जाए।

इस फैसले ने एक बार फिर भारत की न्यायिक व्यवस्था में देरी और आतंकवाद मामलों की जटिलता पर प्रकाश डाला है। जहां एक ओर 189 मृतकों के परिजन आज भी न्याय की उम्मीद लगाए बैठे हैं, वहीं अदालत ने “सबूतों के अभाव में” निर्दोष को दंडित न करने की संवैधानिक प्राथमिकता को भी बरकरार रखा है।

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