यूपी में इन दिनों जातीय फॉर्मूला कितनी तेजी से बदल रहा है, 2022 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चार बार सत्ता में आ चुकी मायावती एक बार फिर ब्राह्मणों को खुश करने की कोशिश में जुटी हैं। वहीं भाजपा दलितों व पिछड़ों के लिए लाल कालीन बिछाये बैठी है, 30 साल से सत्ता से बाहर कांग्रेस प्रियंका गांधी के सहारे ब्राह्मणों, दलितों व मुसलमानों के परंपरागत वोट बैंक को पुनर्जीवित करने की कोशिश में है, तो वहीं सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने मजबूत यादव-मुस्लिम आधार नाराज चल रही जातियों को खींचने की रणनीति बना रहे हैं। कांशीराम ने जिस दलित-अति पिछड़ा-मुस्लिम जातीय समीकरण से बसपा को मजबूती से खड़ा किया था, उस आधार को बहुमत के लिए अपर्याप्त मान कर मायावती ने 2007 में उसमें ब्राह्मणों को चतुराई से जोड़ा और पहली बार पूर्ण बहुमत पाया था, 2014 आते-आते भाजपा ने अपने नये अवतार में इसी सोशल इंजीनियरिंग को ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे के तहत अपनाया. उसने खुद को गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों की उद्धारक के रूप में पेश किया, इससे दलित एवं पिछड़ी जातियों-उपजातियों के अंतर्विरोध गहरे हुए और वे बड़े वोट बैंक से छिटक गए। BJP ने इन अंतर्विरोधों को हवा दी, अति पिछड़ी जातियों का नेतृत्व उभरा, जिसे भाजपा ने अपने पाले में खींच लिया, जिसकी वजह से बसपा और सपा का जनाधार कमजोर हो गया।
उत्तर प्रदेश से अब 16 मंत्री हो गये हैं. यह न केवल अब तक की सबसे बड़ी संख्या है, अपना दल की अनुप्रिया पटेल को न केवल वापस शामिल किया गया, बल्कि बेहतर मंत्रालय भी दिया गया है, अपना दल यादवों के बाद सबसे ताकतवर कुर्मियों का प्रतिनिधित्व करता है, क्या भाजपा के इस दलित-पिछड़ा प्रेम से क्या ब्राह्मण नाराज हैं? कतई नहीं, यह मायावती का महज सोच है। भाजपा को तो ऐसा नहीं लगता मुख्यमंत्री, एक उप-मुख्यमंत्री और कई मंत्री उच्च जातियों के हैं, पर मायावती इसे खूब प्रचारित कर रही हैं, ताकि ब्राह्मण एक बार फिर उन्हें समर्थन दे दें। ब्राह्मणों को भरोसा दिलाने के लिए बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के नेतृत्व में 23 जुलाई को अयोध्या से एक अभियान भी शुरू किया जा रहा है, मिश्र मायावती के विश्वस्त और बसपा का बड़ा ब्राह्मण चेहरा हैं, साल 2007 में उन्होंने ही बसपा के ‘ब्राह्मण भाईचारा अभियान’ का नेतृत्व किया था, मायावती ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने के लिए तो रणनीति बना रही हैं, लेकिन जो दलित जातियां उनके पाले से छिटक चुकी हैं, उन्हें वापस लाने के लिए उनकी क्या योजना है, इसका संकेत नहीं मिलता.उनके जाटव जनाधार में भी भीम आर्मी ने कुछ सेंध लगायी है। दलित आधार को एकजुट रखे बिना उच्च जातियों का समर्थन उन्हें सत्ता तक शायद ही पहुंचा सके।
अखिलेश यादव भी सपा से दूर हो गये पिछड़े नेताओं को साधने में सक्रिय हो गये हैं। उन्होंने किसी बड़े दल से चुनावी गठबंधन की संभावना से इनकार किया है, पर छोटे दलों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं। कुर्मियों के ‘अपना दल’ का एक हिस्सा भाजपा के साथ है, तो दूसरे को सपा और कांग्रेस रिझाने में लगे हैं. ‘निषाद पार्टी’, जिसका मल्लाह, केवट, निषाद और बिंद जातियों में प्रभाव है, फिलहाल भाजपा के साथ है, प. उत्तर प्रदेश के जाटों में लोकप्रिय राष्ट्रीय लोक दल सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ना तय कर चुका है. ‘आप’ के कुछ नेताओं से भी अखिलेश की बातचीत चर्चा में रही। असदुद्दीन ओवैसी भी यूपी में दांव आजमायेंगे. उन्होंने भाजपा से नाराज होकर एनडीए से अलग हुए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ बनाया है, जिसमें बाबू सिंह कुशवाहा (कभी मायावती के विश्वस्त) की जन अधिकार पार्टी, प्रजापतियों की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी, राष्ट्रीय उदय पार्टी और जनता क्रांति पार्टी भी शामिल होंगी, ऐसे बयान आये हैं. ‘आप’ और भीम आर्मी को भी दावत दी गयी है.ये छोटे-छोटे दल स्वयं चुनाव नहीं जीत सकते, लेकिन उनका समर्थन बड़े दलों के लिए अहम हो जाता है। जो भी पर इन दिनों यूपी का जातीय चुनावी रण काफी रोचक बना हुआ है। वहीं सीएम योगी आदित्यनाथ ने सभी जातियों में अपनी गहरी पैठ बना ली है,जिसे तोड़ना विपक्षियों के लिए कठिन है।