वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद का मामला कोर्ट में है। यह पूरा मामला तब सुर्खियों में आया जब वाराणसी की एक अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सर्वे करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट इलाहाबाद हाई कोर्ट और वाराणसी की अदालतों में कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं, जिनमें दावा किया गया है कि 16वीं शताब्दी में मुगल बादशाह औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर यहां ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करवाया था।
भारतीय जनता पार्टी (BJP), विश्व हिंदू परिषद (VHP) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए किए गए आंदोलन के दौरान ही मथुरा में कृष्णजन्म भूमि-शाही ईदगाह मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद मुद्दे को भी उठाया था। उनका कहना था कि यह तीनों मस्जिदें, हिंदू मंदिरों को गिराकर बनाई गई थीं।
फिलहाल, जो ज्ञानवापी मस्जिद विवाद चल रहा है, उसमें सबसे पहला मामला करीब 213 साल पुराना है। काशी को जानने वाले इतिहासकारों के मुताबिक पहली बार मस्जिद के बाहर नमाज पढ़ने के मामले में 1809 में दंगे हुए थे। इसके बाद से हिंदू और मुस्लिम समाज ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर मसले को लेकर भिड़ते रहे हैं। दरअसल हिंदू पक्ष शिवलिंग होने का दावा कर रहा है। दावा किया गया है कि ज्ञानवापी मस्जिद में कुएं के अंदर शिवलिंग है, जिसके बाद उसके आसपास के इलाके को वाराणसी कोर्ट के आदेश के बाद सील कर दिया गया है। वहीं हाल ही में इसी तरह की घटना दिल्ली किले के दीनपनाह में भी देखने को मिली
दिल्ली के इस पुराने किले को वर्ष 1533 में मुगल बादशाह हुमायूँ ने बनवाया था। लेकिन जब यहाँ पर खुदाई की गई तो इस किले के नीचे से हजारों वर्ष पुराने अवशेष मिले है। जो महाभारत काल, मौर्य काल या गुप्त काल के भी हो सकते है। वहीं आज हम आपको इस मुगलों के मकबरे के नीचे दबे भारतीय संस्कृति का असली इतिहास बताएंगे। आज हम आपको उन तथ्यों से परिचित करना चाहते है जिनसे आप इतिहास के विरोधाभास को अच्छी तरह समझ पाएंगे। इतिहास कहता है कि दिल्ली का ये पुराना किला मुगल शासक हुमायूँ द्वारा बनाया गया था। ये उस समय कि बात है जब भारत पर मुगलों का शासन हुए सिर्फ 7 वर्ष हुए थे।
वर्ष 1530 में जब बाबर की मृत्यु के बाद मुगलों की सत्ता बाबर के पुत्र हुमायूँ को सौपीं गई तो उस समय हुमायूँ अपने तख्तपोशी के लिए एक नया किला चाहता था। और इस काम में कुछ समय लगा। लेकिन आखिरकार 1533 में दिल्ली में एक नए किले का निर्माण शुरू हुआ जिसे मुगल बादशाह हुमायूँ ने एक खास नाम दिया था और इसका नाम था दीनपनाह। बता दें कि इसी दिनपनाह किले के सीढ़ियों पर गिरने से हुमायूँ की मृत्यु हुई थी। 1533 से इस किले का निर्माण कार्य शुरू हुआ और इसके 1 वर्ष के अंदर ही किले की दीवारें, बुर्ज, प्राचीर, और प्रवेश द्वार का निर्माण पूरा हो गया।
वर्ष 1540 में शेरशाह सूरी ने इस किले पर कब्जा कर लिया। और इसके बाद इस किले में कुछ और भी बदलाव किया गए। ये वो बाते है जो हमें इतिहास में पढ़ाई जाती है। लेकिन इतिहास हमेशा वो नहीं होता जो दिखाई देता है। असली इतिहास असल में वो होता है जो सैकड़ों या हजारों वर्ष पहले जमीन के नीचे दफन कर दिया गया है। इसलिए आज भारत के इतिहास को ज्यादातर मुगलों और अंग्रेजों के साथ ही जोड़ने का प्रयास किया जाता है। आज भारत का इतिहास लोगों के नजरों में अग्रेजों, मुगलों, या सल्तनतकाल तक ही सीमित रह गया है। क्यूंकी जो दिखता है वहीं तो बिकता है।
लेकिन इससे पहले हमारे देश में क्या होता था कोई भी जानने का प्रयास नहीं करता है। इसलिए शायद मुगलों के अलग -अलग 7 पुश्तों के नाम से आप वाकिफ होंगे। वहीं भारत में जिन अंग्रेज ने शासन किया वायसराय का नाम लोगों को याद है। वहीं आज जब भी लोग दिल्ली में घूमने जाते है तो बेशक इस पुराने किले या मौजूदा गढ़ का दीदार करते ही है। तब लोगों को यही लगता है कि किला मुगलों ने बनाया था। दिल्ली जाकर लोग लाल किला और पुराना किला देखना पसंद करते है लेकिन इन किलों को लेकर गाइड करनेवाले या इतिहास में जो भी बताया गया है वो अधूरा सच है।
आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा इस कीले में जिस निर्धारित स्थानों पर खुदाई और सर्वेक्षण का काम इस समय चल रहा है। इस दौरान पता चल कि इस किले का प्राचीन अस्तित्व महाभारत काल के समय का हो सकता है। एएसआई को इस किले में की जा रहा खुदाई के दौरान अवशेष और खास तरह के मिट्टी के बर्तन मिले जो 1100 से 1200 इसापूर्व के हो सकते है। इसके अलावा इस खुदाई में हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियाँ मिली है। जिनमें भगवान गणेश की मूर्ती, देवी गजलक्ष्मी की मूर्ति और भगवान बैकुंठ विष्णु की मूर्ती भी मिली है। सोचनेवाली बात है कि मुगलों के पुराने किले के नीचे से भगवान की इस तरह की मूर्ती मिल रही है।
खुदाई में इन मूर्तियों के अलावा एएसआई को अलग-अलग काल के अलग-अलग युगों के सिककें, राजमुद्रा और जानवरों के भी अवशेष मिले है। एएसआई की तरफ से किया गया यह सर्वेक्षण या खुदाई इस बात की तरफ इशारा करते है कि जिस पुराने किले को मुगलों से जोड़कर देखा जाता है उसका इतिहास असल में कुछ और ही है। और इससे भी कई ज्यादा पुराना है।
गौरतलब है की मानव जाती हमेशा से ही सतह के ऊपर बनाएं गए ढांचे पर ज्यादा भरोसा करता है। क्यूंकी उसे जो दिखेगा भरोसा भी उसी पर रहेगा। लेकिन कई बार बड़े से बड़ा इतिहास इस सतह के नीचे दफन हो जाता है। और पुराने किले के सर्वेक्षण से कितनी बड़ी बात सामने आई है कि जिस किले को अब तक हम मुगलों का किला मानते आयें है लेकिन वास्तविकता इससे परे है खुदाई के दौरान सतह के नीचे दबा अवशेष, मूर्तिया या सिककें ये महाभारत काल के हो सकते है।
दरअसल पुराने किले को शायद पहले पुराण किला या पांडव किले के नाम से जाना जाता होगा। लेकिन शायद आप इस पर यकीन ना करें। लेकिन असल में अब ये बात सच साबित होती दिख रही है। और एएसआई इसी के तथ्य आज कल जुटा रहा है। अब आपका सवाल होगा कि आखिरकार अचानक से एएसआई को इस किले की सर्वेक्षण करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। इसकी सबसे बड़ी वजह वो शिलालेख और ग्रंथ है जिनमें पांडवों के किले का उल्लेख मिलता है। इसके मुताबिक जिस क्षेत्र में आज पुराना किला स्थापित है वहाँ पहले इंद्रप्रस्थ नाम का एक नगर हुआ करता था। जिसे दिल्ली का प्राचीन रूप कहा जाता है। इसके बारे में तो आपने इतिहास में जरूर पढ़ा होगा। महाभारत काल में ये इंद्रप्रस्थ नगर पांडवों की राजधानी हुआ करता था। और उस समय ये पुराना किला पुराण किला या पांडवो का किला नाम से प्रसिद्ध था। लेकिन मुगलों ने इस पांडव किले को पुराने किले में तब्दील कर दिया। और वर्तमान समय में भारत के ज्यादातर लोग इसी इतिहास को भारत का असली इतिहास मानते है। जिसमें भारत गुलाम रहा।
दरअसल उस जमाने में भारत में जो भी आक्रमणकारी आयें थे उन्हें हमारे देश के छोटे मोठे राजे, राजवाड़ें ने आश्रय दे दिया। 1857 में जब पूर्ण भारत में अंग्रेजों का शासन आया। उससे पहले ही अंग्रेज भारत को समझ चुके थे। इसलिए उन्होंने आधुनिकता की बात की और भारत के लोगों को समझना चाहा की असल में भारत के लोग काफी पिछड़े है। लेकिन एकमात्र अंग्रेजी सरकार ही भारत के लोगों का उद्धार कर सकती है। और इसी नीति के बलबूते 70 हजार अंग्रेज लगभग 35 करोड़ भारतीयों को अपना गुलाम बनाने में कामयाब हो गए। और आगे चलकर अंग्रेजों ने भारतीयों पर अत्याचार किया, अंग्रेजों ने भारत देश को लूट लिया तब कहीं जाकर भारत के लोगों को आजादी का महत्व समझा।
1 हजार वर्ष पूर्व भारत के पास सब कुछ था, भारत सोने की चिड़िया कहलाया करता था। ये कोई कल्पना नहीं बल्कि सच्चाई है। उस समय भारत देश के पास ओदन्तपुरी, विक्रमशीला, वल्लभी, नालंदा, तक्षशिला, कांचीपुरम, ललितगिरी, शारदा पीठ और नागार्जुन कोंडा जैसे विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हुआ करते थे। लेकिन आगे चलकर स्वार्थवास हमारे भारत देश के संस्कृति और इतिहास के चिन्ह को एक एक करके मिटा दिया गया। मिटाने के साथ ही भारत के इतिहास को भी अपने ही हिसाब से बना दिया। और भारत को गुलामी के जंजीरों में बांधने वाले इन्हीं लोगों के कलम से लिखे गए इतिहास को आज हम सभी पढ़ रहे है। जो बेशक कही से भी सही नहीं है। और पुराने किले की खुदाई अभी आधी ही हुई है आगे और भी कई राज खुल सकते है।
भारत के इतिहास में जब भी बात मराठों की हो तो छत्रपती शिवाजी महाराज का नाम जरूर लिया जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज के राजतिलक के 350 साल पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर पीएम मोदी ने देशवासियों को संबोधित किया। इस दौरान पीएम मोदी ने कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने गुलामी की मानसिकता खत्म की। शिवाजी महाराज ने हमेशा भारत की एकता और अखंडता को सर्वोपरि रखा। शौर्य की अदभुत तस्वीर, वीरों में महावीर, कुशल सैन्य रणनीतिकार, प्रखरता-पराक्रम और सुशासन की मिसाल, इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ है- छत्रपति शिवाजी। जहां उस समय राजपूत अपने दुश्मनों से लड़ते समय शहीद होने को अपना गर्व समझते थे। तो वहीं इससे हटकर शिवाजी महाराज की मानसिकता अलग थी उनका मानना था कि दुश्मनों को कुचलना जरूरी हैं यही वजह है कि उन्होंने लोगों को इस सिखाया और पूरा का पूरा प्रवाह ही पलट दिया। जहां एक तरफ हुमायूँ का इतिहास यह झूठ को बढ़ावा देता है तो वहीं भारत के शौर्य गाथा के तौर पर छत्रपती शिवाजी महाराज का इतिहास यह भारत की वास्तविकता से परिचित करता है।
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