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Thursday, September 19, 2024
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होना जरूरी है पवार की जातिगत सियासत पर चर्चा

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मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे सियासी चाणक्य शरद पवार की राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी पर जातिगत राजनीति को बढ़ावा देने का सीधा आरोप लगाया है। राज ने सटीक बयान दिया है कि राष्ट्रवादी की पैदाइश के बाद महाराष्ट्र में दूसरी जातियों बारे में परस्पर द्वेष बढ़ा है। राज ठाकरे के इस वक्तव्य में दम है। उन्होंने जो कहा, वह कहने का साहस महाराष्ट्र का मीडिया बीते 20 बरसों में नहीं जुटा सका और आगे भी इसके आसार दिखाई नहीं देते। महाराष्ट्र में जातीय विभाजन को बढ़ाने में पवार का योगदान बहुत बड़ा है। प्रगतिशीलता की आड़ में उन्होंने इसे सालों से जारी रखा हुआ है। इस पर खुलकर चर्चा करने की आवश्यकता थी। चुप्पी तोड़ने के लिए राज ठाकरे को बधाई! कांग्रेस से अलग होकर पवार ने 1999 में राकांपा की स्थापना की। कुछ ही समय बाद, संभाजी ब्रिगेड नामक एक संगठन ने महाराष्ट्र में रफ्तार पकड़ी। इस संगठन ने एक नए ‘दर्शन’ और ‘इतिहास’ को जन्म दिया। छत्रपति शिवाजी गौ-ब्राह्मण संरक्षक नहीं थे। उनकी लड़ाई मुसलमानों के खिलाफ नहीं थी। महाराज के 33 % अंगरक्षक मुसलमान थे।

हालाँकि छत्रपति संभाजी महाराज को औरंगजेब ने कैद कर लिया था, लेकिन यह संभव है कि उनकी मृत्यु के समय उनके साथ जो अमानवीय व्यवहार किया गया, वह मनुवादियों द्वारा किया गया हो। ब्रिगेड के नव-इतिहासकारों ने ब्राह्मणों से इतनी तीखी बहस की। इन नए इतिहासकारों के लिए पुणे का नाम जीजापुर करने की मांग तो की लेकिन औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर करो इस तरह की आवाज कभी नहीं उठाई। ब्रिगेड के इन यर इतिहासकारों ने अफजल खां, शायिस्ता खां, आदिल शाह, औरंगजेब की जगह रामगणेश गडकरी, दादोजी कोंडदेव, शिवशाहिर बाबासाहेब पुरंदरे को निशाना बनाना शुरू कर दिया। मराठा बनाम ब्राह्मण की चिंगारी को हवा दी गई। पुणे में रामगणेश गडकरी की मूर्ति तोड़ दे गई। बाबासाहेब पुरंदरे जैसे सम्मानित बुजुर्गों पर स्याही फेंकने जैसी शर्मनाक हरकत की। हमेशा लोकतांत्रिक और प्रगतिशील विचारों की बात करने वाले शरद पवार को कभी इन घटनाओं का विरोध करते नहीं सुना गया है। इसके विपरीत, ब्रिगेड को उर्वरा दे। मजबूत करने वाले बयान के जरिए उनके प्रचार को बढ़ावा देने का काम किया।

देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में ब्राह्मणों का विरोध और तेज हो गया था। पवार अकसर इस आग की भड़कती लपटों में घी डालने का काम किया। उनके बयान में ब्राह्मण-विरोधी विकार ध्यानाकर्षी रहा। पुणे में राकांपा के वर्षगांठ समारोह में बोलते हुए उन्होंने लोगों से खास पुणे शैली के  साफे की जगह फुले फेंटा का इस्तेमाल करने की अपील की। यह अकेला या अपवादात्मक बयान नहीं, उनके ऐसे बयानों का पूरा चिट्ठा मौजूद है, छत्रपति शिवाजी महाराज गौ-ब्राह्मण संरक्षक नहीं थे। समर्थ रामदास छत्रपति के गुरु नहीं थे ‘ आदि कई ऐसे वक्तव्य उन्होंने दिए। भाजपा द्वारा छत्रपति संभाजी को राज्यसभा भेजे जाने के बाद पवार के पेट में दर्द हुआ। उन्होंने फडणवीस पर निशाना साधते हुए कहा,’ पेशवाकाल में  फडणवीस ने छत्रपति को नियुक्त नहीं किया था। हालांकि शरद पवार के बयानों मीडिया ने  कभी प्रगतिशील, तो कभी फडणवीस विरोधी वक्तव्य का जामा पहनाया। लेकिन हकीकत में इसका अंतरंग केवल  ब्राह्मण विरोध ही था। महाराष्ट्र में एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री बन गया है और वह हमारे सारे हथकंडों को दफन कर दे रहा है, पवार की यह तड़प उनके बयान से जाहिर थी। बावजूद इसके महाराष्ट्र के एक भी अखबार, न्यूज चैनल की इच्छा नहीं हुई कि वह पवार के इस वक्तव्य की क्रॉस चेकिंग करे। लेकिन लोग थे कि वे पवार की भावनाओं को अच्छी तरह समझ गए।

इसी मुद्दे पर राज ठाकरे ने शरद पवार पर सीधा हमला बोला है।  इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राज ठाकरे का बयान राज्य में बन रहे राजनीतिक समीकरण को मजबूत करने के लिए दिया गया। लेकिन फिर भी इसका महत्व कम नहीं होता है। शिवशाहिर बाबासाहेब पुरंदरे के प्रति उनका सम्मान और जाति की राजनीति का उनका विरोध निर्विवाद रूप से ईमानदार है। शिवसेनाप्रमुख ने कभी जाति की राजनीति नहीं की। राज ठाकरे भी इससे सहमत नहीं हैं। इसलिए उस मुद्दे पर चर्चा करने की जरूरत है, जिस पर उन्होंने पवार के खिलाफ तोप दागी है। राज ठाकरे के बयान से पवार भीतर ही भीतर आहत हुए  हैं, इसलिए जवाब में उन्होंने राज ठाकरे को प्रबोधनकर ठाकरे के विचारों को पढ़ने की सलाह दी। पवार ने शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब के विचार पढ़ने की सलाह नहीं दी, वजह साफ थी क्योंकि महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा गठबंधन के सत्ता में आने के बाद शिवसेनाप्रमुख ने मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री बनाया था। शिवसेना प्रमुख प्रबोधनकार के विचारों के सच्चे उत्तराधिकारी थे। इसलिए उन्होंने मनोहर जोशी की जाति नहीं देखी, उनकी उपलब्धियां देखीं। राज ठाकरे ने पवार को उसी भाषा में जवाब दिया है, ‘ हम बाबासाहेब पुरंदरे के पास जाते हैं, क्योंकि वह शिवशाहिर हैं, इसलिए नहीं कि वह ब्राह्मण हैं।’

महाराष्ट्र में शाहू, फुले, आंबेडकर जैसी महान हस्तियों ने जाति व्यवस्था के खिलाफ जमकर लड़ाई लड़ी। लेकिन उनके नाम पर राजनेताओं ने लगातार जाति की दीवारों को मजबूत करके सत्ता की बागडोर संभालने की कोशिश की। शरद पवार ऐसे राजनेताओं के अग्रदूत हैं। उन्होंने जीवन भर जाति की राजनीति की। 2009 में जब भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने लोकसभा चुनाव के रणक्षेत्र में उतरे, तब राकांपा ने ‘ बजाओ तुतारी, हटाओ बंजारी ‘ का नारा दिया था।  हैरानी की बात यह है कि संभाजी ब्रिगेड ने नासिक में छगन भुजबल के खिलाफ ‘ बजाओ ताली, हटाओ माली ‘ का नारा लगाया था। यह पवार की प्रगतिशील राजनीति है। अपनी इसी राजनीति के कारण वे देश तो छोड़िए, सही मायनों में महाराष्ट्र के नेता भी नहीं बन सके।

राकांपा सांसदों की संख्या कभी भी दोहरे अंक में नहीं रही। उन्होंने महाराष्ट्र में कई नेताओं के खिलाफ जिस जाति की राजनीति का इस्तेमाल किया, उसी जाति की राजनीति ने उनकी कमजोर साख को साफ तौर पर समाप्त कर दिया। पवार पर लगे आरोपों के बाद संभाजी ब्रिगेड के पदाधिकारियों और मनसे के पदाधिकारियों के बीच जुबानी जंग शुरू हो गई है। मनसे नेता ब्रिगेड के खिलाफ आक्रामक हो गए हैं। हालांकि राज ठाकरे एक आक्रामक नेता हैं, लेकिन उन पर लगातार अपनी भूमिका बदलने का आरोप लगाया जाता रहा है। पवार की जाति की राजनीति के खिलाफ उन्होंने जो स्टैंड लिया है, वह बेहद साहसपूर्ण और महाराष्ट्र के हित में है। मराठीजन, जो जातिवादी राजनीति के खिलाफ हैं, उनकी उनसे उम्मीद हैं कि वे इस पर अडिग बने रहेंगे।

-दिनेश कानजी- (लेखक न्यूज डंका के मुख्य संपादक हैं)

 

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