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Tuesday, September 17, 2024
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1977 के विपक्ष के पास था मुद्दा, क्या 2024 का विपक्ष सत्ता में लगा पाएगा सेंध?   

1977 में विपक्ष इसलिए इंदिरा गांधी को हरा दिया क्योंकि उस समय मुद्दा मजबूत था और जनता से जुड़ा हुआ था लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव का विपक्ष उस तरह से सक्रिय नहीं है तो क्या  1977 वाला करिश्मा दोहरा पायेगा  विपक्ष ?      

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विपक्षी दलों की दो दिवसीय बैठक में मंगलवार को कई ऐसी बातें निकलकर आ रही हैं, जिसका खासा महत्त्व बढ़ जाता है। मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि कांग्रेस सत्ता या प्रधानमंत्री पद के लिए इच्छुक नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि कांग्रेस के इंकार के बाद आखिर अब विपक्ष की ओर से पीएम उम्मीदवार कौन होगा? वहीं, दूसरी ओर विपक्ष की बैठक पर चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सवाल उठाये हैं। उन्होंने कहा कि विपक्ष कितना भी एकजुट हो ले, लेकिन बीजेपी को हराना मुश्किल है। इसके बारे में उन्होंने विस्तार से अपनी बातें रखी। उन्होंने 1977 में विपक्ष की जीत की वजह बताई। आइये जानते हैं कि वह कौन आधार है, जिसको प्रशांत किशोर ने आधार बनाकर विपक्ष की एकता को आइना दिखाया है।

तो दोस्तों, हम प्रशांत किशोर की बात से मुद्दे को आगे बढ़ाते हैं। एक कार्यक्रम में प्रशांत किशोर ने पत्रकारों से बात कर रहे थे। जहां उनसे विपक्ष की बैठक से जुड़ा सवाल किया गया था । उन्होंने कहा कि मै अपनी पिछली बात को ही फिर से दोहरा देता हूं। प्रशांत किशोर ने कहा कि विपक्षी दलों के नेताओं के एक साथ बैठ जाने से उसका जनमानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, उन्होंने कहा कि जनता पर इसका प्रभाव तब पड़ेगा, जब विपक्षी दलों के नेताओं के साथ साथ उनके मन का भी मिलाप हो, साथ ही कोई बड़ा मुद्दा हो जो जनता से जुड़ा हो और कोई नैरेटिव हो जिसका जन मानस पर प्रभाव पड़ें। उन्होंने साफ किया कि मै किसी चेहरे की बात नहीं कर रहा हूं।  जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता हों, और उस समर्थन को वोट में परिवर्तित किया जा सके।

तो अगर, हम प्रशांत किशोर की इन बातों पर गौर करें तो यह बात सही भी लग रही हैं। क्योंकि बेंगलुरु की बैठक में जितने भी राजनीति दल के नेता मौजूद है। सबका आपस में क्लेश है। सबको एक दूसरे से कोई न कोई समस्या जरूर है। बंगाल में टीएमसी का कांग्रेस से छत्तीस का आंकड़ा है। तो केजरीवाल कांग्रेस के ही वोटबैंक में सेंध लगाकर दो राज्यों पंजाब और दिल्ली में सत्ता हथिया रखें है। इन दलों के नेताओं में दोनों राज्यों में ठनी हुई है। पंजाब में आप सरकार ने कांग्रेस नेताओं को जेल में डाल रही है। तो दिल्ली में भी कांग्रेस आप का साथ देने से कतरा रही है। कांग्रेस की दिल्ली राज्य इकाई आप का किसी भी तरह से समर्थन के खिलाफ है। इसी तरह से यूपी, सहित हर राज्यों में यही हाल है। कांग्रेस को छोड़कर हर राज्य में हर छोटे दल मजबूत स्थिति में हैं, तो किसी अन्य को सीट शेयर क्यों करे। साफ़ है कि किसी भी दल का किसी से कोई सरोकार नहीं है, केवल राजनीति तौर एक साथ जुट रहे हैं। कहा जा सकता है कि ये नरेंद्र मोदी विरोधी दल हैं।

यह भी बात सही है कि, विपक्ष के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। जो लोकसभा चुनाव में लेकर विपक्ष जाए, बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा है, लेकिन क्या विपक्ष ग्राउंड लेवल पर इसे भुना पा रहा है,क्या विपक्ष सत्ता पक्ष के खिलाफ बेरोजगारी और मंहगाई का नैरेटिव तैयार करने में सक्षम है। यह विपक्ष की सबसे बड़ी  कमजोरी है, जैसा कि प्रशांत किशोर का कहना है। एक उदाहरण के तौर पर अगर हम यूपी की बात करेंगे, तो अखिलेश यादव ने सॉफ्ट हिन्दू की राह पकड़ कर लोकसभा चुनाव में जाने के लिए रैली और सम्मेलन शुरू किया था। लेकिन बाद में यह सब टांय-टांय फिस हो गया। अब सपा द्वारा न कोई रैली, न ही सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है। और न ही जमीनी स्तर पर अखिलेश यादव ही दिखाई दे रहे हैं। यही हाल मायावती का भी है।

वह भी ट्विटर ट्विटर खेल रही हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहे है। अगर कांग्रेस की बात करें तो गांधी परिवार का यूपी से मोहभंग हो चुका है।  अमेठी गंवाने के बाद राहुल गांधी, वायनाड चले गए। जो अब एक केस की वजह से अपनी लोकसभा की सदस्यता गंवा चुके है। राहुल गांधी अमेठी हारने के बाद दोबारा वहां नहीं गए। तो क्या जनता राहुल गांधी को वोट देगी। वही हाल रायबरेली का है, यहां से सोनिया गांधी सांसद है। लेकिन इस बार सोनिया गांधी इस सीट से चुनाव लड़ेंगी, इस पर असमंजस बना हुआ है।

अगर हम विपक्ष में चेहरे की बात करें, तो अब इस पर सवाल खड़ा हो गया। क्योंकि, मल्लिकार्जुन ने साफ किया है कि कांग्रेस न तो पीएम उम्मीदवार के रेस में है और न ही सत्ता चाहती है। यानी कहा जा सकता है कि राहुल गांधी पीएम उम्मीदवार की रेस से बाहर हो गए है। अब अगर पीएम चेहरे के लिए ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, नीतीश कुमार,एमके स्टालिन की बात करें, तो ये चेहरा पीएम मोदी के आगे कहीं नहीं ठहरता। ममता बनर्जी की हिंदी में पकड़ नहीं है। यह साफ़ है कि वर्तमान में जिस भी पार्टी की हिंदी भाषी राज्यों में पकड़ रहेगी  वह दिल्ली की सत्ता तक पहुंच सकता है। क्योंकि हिंदी बेल के राज्यों में ज्यादा सीटें है।

यही समस्या एमके स्टालिन के साथ है, कांग्रेस या अन्य दल केजरीवाल को पीएम उम्मीदवार बनाएंगे। यह बड़ा सवाल है ? क्योंकि कांग्रेस एक बार केजरीवाल को समर्थन देकर गलती कर चुकी है। अब शायद ही इस मुद्दे पर राजी हो। नीतीश कुमार में वह अपील नहीं है जो नरेंद्र मोदी है। पीएम मोदी में भारत की जनता अपनी परछाई देखती है। उनकी हिन्दू धर्म के प्रति आस्था देखकर भारत की जनता उनसे जुडी रहना चाहती है। यानी कहा जा सकता है कि विपक्ष के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है ,जिसके बलबूते विपक्ष वोट मांग सकता है। अगर राहुल गांधी को विपक्ष आगे करता है तो विपक्ष में रार तो होगी ही, साथ ही, बीजेपी राहुल गांधी के खिलाफ उनके भाषणों को मुद्दा बना सकती है, जो उन्होंने विदेश में भारत के खिलाफ दिए हैं।

अब एक बार फिर प्रशांत किशोर की बात को आगे बढ़ाते है। उन्होंने कहा कि, कुछ लोगों को लगता है कि 1977 में विपक्ष एक साथ आकर इंदिरा गांधी को हरा दिया। उन्होंने कहा जो लोग ऐसा सोचते हैं, वे बड़े बेवकूफ़ हैं। उस समय सभी दलों के एकत्र होने से इंदिरा गांधी नहीं हारी। बल्कि 1977 में आपातकाल बहुत बड़ा मुद्दा था। जेपी का आंदोलन भी था। ये दोनों चीजें उस समय बड़ा मुद्दा बने थे, जिसकी वजह से इंदिरा गांधी हारी थी ,राजनीति दलों के साथ आने से कुछ नहीं होता है।

उन्होंने कहा कि उन्नीस सौ नवासी में वीपी सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस, राजीव गांधी को हराया गया था, लेकिन राजनीति दल बाद में एकजुट हुए, पहले बोफोर्स मुद्दा बना था। बोफोर्स के नाम पर पहले देश में जन आंदोलन हुआ। पहले एक नैरेटिव तैयार हुआ। उन्होंने कहा कि कोई मुद्दा लोगों की जनभावना से जुड़ा होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि अगर ममता बनर्जी बिहार  के समस्तीपुर में आकर कुछ कहें तो यहां के लोगों को उससे क्या फर्क पड़ेगा। उसी तरह से अगर कलकत्ता में नीतीश कुमार कुछ बोलें तो वहां के लोगों उससे कोई मतलब नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर विपक्ष किसी मजबूत मुद्दे के साथ चुनावी मैदान में उतरता है तो कुछ हो सकता है। वह मुद्दा जनता से जुड़ा होना चाहिए और जनता उसका समर्थन करे। तभी विपक्ष का प्रभाव पड़ सकता है। तो क्या विपक्ष के पास ऐसा कोई मुद्दा है। अगर है तो वह कौन सा मुद्दा है,क्या किसी मुद्दे पर विपक्ष एक होगा ? तो देखना होगा कि विपक्ष क्या प्रशांत किशोर के सुझाव को मानता है या  नहीं।

 

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