कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव में इटावा या बाराबंकी से उतार सकती है। इटावा को कांग्रेस की जन्मभूमि कहा जाता है. सवाल यह भी है कि क्या समाजवादी पार्टी कांग्रेस के लिए इटावा की सीट छोड़ेगी ,यह बड़ा सवाल है। वैसे सवाल यह भी है कि कांग्रेस इटावा से मल्लिकार्जुन खड़गे को चुनावी मैदान में क्यों उतारना चाहती है।
दरअसल, खबरों में दावा किया गया है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी उत्तर प्रदेश के इटावा या बाराबंकी के लोकसभा सीट से चुनाव लड़ाया जा सकता है। कहा जा रहा है कि पार्टी ने यह प्लान कर्नाटक चुनाव जीतने के बाद बनाया है. लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस इस प्लान को जमीन पर उतार पाएगी। इटावा जिले में दो लोकसभा सीटें है,एक मैनपुरी तो दूसरी इटावा। गौरतलब है कि, इटावा को यादव लैंड भी बोला जाता है। क्योंकि इटावा जिले के सैफई में मुलायम सिंह यादव का जन्म हुआ था। ऐसे में क्या समाजवादी पार्टी इटावा सीट को कांग्रेस को देने के लिए तैयार होगी। यह अभी देखना होगा। और इस पर सपा क्या रणनीति बनाती है यह देखना और दिलचस्प होगा.
वैसे, माना जाता है कि कांग्रेस का इटावा से रिश्ता उसके बुनियाद से जुड़ा हुआ है। दरअसल, कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में एओ ह्यूम भी शामिल थे। कांग्रेस के 72 संस्थापक सदस्यों में वे एक मात्र ब्रिटिश शख्स थे। ब्रिटिश सिविल सर्विस के तहत उनकी पहली पोस्टिंग इटावा में हुई थी। वे पहले कांग्रेस के महासचिव थे। इसलिए कांग्रेस इटावा से अपना बुनियादी जुड़ाव मानती है। लेकिन समय के साथ कांग्रेस से जनता का मोहभंग हो गया है और अन्य दल इस सीट पर कब्जा जमा लिये।
1999 से लगातार इस सीट से 2009 तक सपा उम्मीदवार जीतते आये हैं। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा का समीकरण बदल गया। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार ने इटावा सीट पर झंडे गाड़े। वैसे सपा इस सीट पर 1999 से पहले 1996 में भी यहां जीत दर्ज की थी। इटावा सीट से कांशीराम भी जीत दर्ज कर चुके हैं। उन्होंने 1991 में इस सीट से सांसद बने थे।
इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इटावा सीट सपा की गढ़ रही है। लेकिन, अगर सपा कांग्रेस के लिए यह सीट छोड़ती है तो उसे भविष्य में काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। क्योंकि इटावा जिले में मैनपुरी लोकसभा सीट भी आती है। जहां से मुलायम सिंह का परिवार चुनाव लड़ते आया है। वैसे इटावा सीट पर सबसे ज्यादा दलित मतदाता हैं। यहां इनकी संख्या साढ़े चार लाख के आसपास है। उसी तरह ब्राह्मणों की संख्या भी लगभग ढाई लाख है। जबकि ओबीसी समाज से लोधी सबसे ज्यादा वोटर हैं। इसके बाद यादव, शाक्य और पाल मतदाता निर्णायक भूमिका में है। यादव समाज की संख्या दो लाख 25 हजार के पास है।
बहरहाल, अब सवाल यही है कि कांग्रेस के इस प्लान पर अखिलेश यादव का क्या रुख होगा। यह देखना दिलचस्प होगा। क्योंकि गठबंधन में सभी दल त्याग करने की बात कर रहे हैं, लेकिन क्या नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी इतनी बड़ी कुर्बानी देगी। अगर विपक्ष के सीट शेयरिंग के प्लान वन-टू को देखें तो इस हिसाब से सपा इस सीट के लिए दावेदार है। दरअसल, कुछ समय से यह चर्चा है कि विपक्ष चाहता है कि जो पार्टी जिस सीट पर पहले स्थान पर थी यानी की जीती है, उसी पर बीजेपी के खिलाफ लड़ेगी। उसी तरह दूसरे नबंर पर आने वाली पार्टी को भी वही सीट दी जायेगी।
इस तरह से देखा जाय तो इटावा लोकसभा सीट पर 2014 में समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर थी। 2014 में अशोक दोहरे ने सपा के उम्मीदवार प्रेमदास कठेरिया को हरा दिया था। प्रेमदास कठेरिया दूसरे स्थान पर थे, जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर थी। उसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो इस चुनाव में भी बीजेपी के उम्मीदवार ने जीत दर्ज किया था। 2019 में बीजेपी उम्मीदवार राम शंकर कठेरिया ने जीत हासिल की थी और सपा उम्मीदवार कमलेश कठेरिया दूसरे नंबर पर थे। जबकि बीजेपी छोड़कर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े अशोक दोहरे तीसरे स्थान पर रहे।
वहीं, बाराबंकी की बात की जाए तो यह सीट कांग्रेस का गढ़ रही है। लेकिन पिछले दो लोकसभा चुनाव से बीजेपी का कब्जा है। यहां भी सपा 2019 के लोकसभा चुनाव में दूसरे और कांग्रेस तीसरे स्थान पर थी। अगर जातीय समीकरण देंखे तो ब्राह्मण और कुर्मी लगभग 11 प्रतिशत हैं, जबकि मुस्लिम वोटर 12 प्रतिशत, यादव वोटर साढ़े 12 प्रतिशत, और रावत मतदाता 12 प्रतिशत हैं। बाकी जाति के वोटर दहाई अंक को नहीं छू पाएं हैं। ऐसे में कांग्रेस का बाराबंकी का प्लान क्या मूर्त रूप लेगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है। 2009 से 2014 तक इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा था। यहां भी सपा और बसपा के उम्मीदवार जीत दर्ज कर चुके हैं।
अब सवाल यह है कि कांग्रेस मल्लिकार्जुन खड़गे को इटावा सीट से क्यों उतारना चाहती है। तो कहा जा सकता है कि खड़गे पार्टी के बड़े दलित चेहरों में माने जाते हैं। उत्तर प्रदेश में दलितों की राजनीति करने वाली मायावती की पार्टी बसपा अब लगातार कमजोर हो रही है। बसपा से दलित वोट छिटकर बीजेपी और सपा में बंट रहा है। ऐसे में यूपी में निर्जीव अवस्था में पड़ी कांग्रेस को शीर्ष नेतृत्व एक बार फिर जागृत करने के लिए नए प्लान के साथ यूपी में दाखिल होना चाहता है। कांग्रेस यहां दलित और ब्राह्मण वोटों के साथ जीत सुनिश्चित करना चाहती है।
हालांकि, कांग्रेस जो सोचकर यूपी के चुनावी मैदान में उतरना चाहती है। उसके लिए उसे बहुत ज्यादा पापड़ बेलना पड़ सकता है। कांग्रेस यहां दलित और ब्राह्मण कार्ड खेलने के जुगत में है। राहुल गांधी को कांग्रेस ब्राह्मण बताती रही है। कर्नाटक से आने वाले खड़गे को क्या यूपी की जनता समर्थन देगी। यह बड़ा सवाल है, क्योंकि कांग्रेस ने भी नरेंद्र मोदी को बाहर राज्य का कहकर विरोध कर चुकी है। अब इस मुद्दे पर सभी की निगाहें अखिलेश यादव पर टिकी हुई है। वहीं, अभी भी कांग्रेस ने यह तय नहीं किया है कि राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ेंगे की नहीं ,क्योंकि यूपी कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष अजय राय यह कह चुके हैं कि राहुल गांधी 2024 के लोकसभा का चुनाव अमेठी से लड़ेंगे।
इसी तरह से रायबरेली की सीट पर भी असमंजस बना हुआ है कि इस सीट से सोनिया गांधी लड़ेंगी की प्रियंका ? ये बातें कितनी सही है, कितना गलत यह तो आने वाले समय बताएगा। उसी तरह से यूपी के फूलपुर से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है। पिछले दिनों उनके समर्थन में पोस्टर भी लगाए गए थे। अब देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि विपक्ष यूपी के लिए क्या रणनीति बनाता है। ये कहां से चुनाव लड़ते है ?
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