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NCP कभी नहीं जीत पाई100 सीट, फिर भी शरद पवार बने “चाणक्य”? ये है कमजोरी!     

न एनसीपी  और शिवसेना कभी 100 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई.बावजूद इसके शरद पवार को चाणक्य कहा जाता। जबकि ममता बनर्जी और जगमोहन रेड्डी अपने राज्यों में स्थापित हैं।        

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राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार की राजनीति की जमीन पैरों तलों से खिसक गई है। भतीजे अजित पवार की बगावत के बाद आज शरद पवार के पास न पार्टी है और न ही उसका निशान है। शरद पवार की झोली खाली है और हाथ मल रहे हैं। शरद पवार की उद्धव ठाकरे जैसी हालत हो गई है। जब उद्धव ठाकरे की शिवसेना में बगावत हुई थी, तो शरद पवार ने अपनी आत्मकथा “लोक माझे सांगाती” में लंबा चौड़ा लेख लिखा है। जिसमें शरद पवार ने उद्धव ठाकरे के कार्यप्रणाली और राजनीति कौशल पर सवाल खड़ा किया है।

मगर, आज शरद पवार उसी मुश्किल का सामना कर रहे हैं, जिसका सामना उद्धव ठाकरे कर रहे हैं। दोनों दल मराठी अस्मिता के नाम पर राजनीति करते रहे हैं। सवाल यही है कि क्या शरद पवार “चाणक्य” बन पाए, शरद पवार बैसाखी के सहारे की सत्ता का स्वाद चखा, उनकी पार्टी कभी भी बहुमत के करीब नहीं पहुंची। तो दोस्तों आज शरद पवार के बारे में बात करेंगे। अगर आप हमारे चैनल पर नए हैं तो आपसे रिक्वेस्ट है कि हमारे चैनल को सब्सक्राइब जरूर करें।

एनसीपी और उद्धव ठाकरे के नेताओं द्वारा कहा जाता है कि महाराष्ट्र में मराठी समाज का अपार समर्थन मिलता है। लेकिन, दोनों पार्टियों से कभी भी 100 के आसपास विधायक जीतकर नहीं आये। केवल दोनों दलों द्वारा बड़बोलापन के अलावा कुछ भी देखने सुनने को नहीं मिलता है। अगर शरद पवार के पार्टी की बात कही जाए तो, एनसीपी ने 1999 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सौ तेईस सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन उसने मात्र अंठावन सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई थी, इसी तरह 2004 में 124 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, मगर केवल इकहत्तर ही विधायक चुनकर आये थे। 1999 की अपेक्षा इस चुनाव में एनसीपी ने कम उम्मीदवार उतारे थे।

अगर बात 2009 की करें तो, शरद पवार केवल बातों के चाणक्य कहे जा सकते हैं। मगर, उनकी पार्टी ने महाराष्ट्र की राजनीति में कोई ऐसा कमाल नहीं किया है, जो इतिहास बना हो, लेकिन उनके भतीजे अजित पवार ने उनके खिलाफ बगावत कर एक इतिहास जरूर रचा है। वहीं, 2009 में एनसीपी ने 113 सीटों पर अपना भाग्य आजमाया था, जिसमें बासठ उम्मीदवार जीतकर आये थे। उसके बाद जब एनसीपी ने 2014 के चुनावी मैदान में उतरी तो उसने दो सौ अठहत्तर सीटों पर अपने कैंडिडेट उतारे थे। जहां केवल 41 उम्मीदवार ही अच्छा प्रदर्शन कर पाए थे और विधायक बने थे। जबकि 2019 में 54 सीट पर जीत दर्ज की थी। यह तो बात रही राजनीति की पिच की। शरद पवार 1978 में तख्तापलट कर मुख्यमंत्री बने थे।

बहरहाल, शरद पवार राजनीति में अपनी धमक दिखाने के बाद, क्रिकेट की पिच पर भी बैटिंग की और 2005 से लेकर 2008 तक बीसीसीआई के अध्यक्ष रहे। यह सही है कि शरद पवार जोड़तोड़ में माहिर है और यही गुण अजित पवार में भी है जो उन्होंने अपने चाचा शरद पवार से सीखा है। अगर आज अजित पवार, शरद पवार से आँख से आँख मिलाकर बात कर रहे हैं तो यह शरद पवार की छुपी कमजोरी है। जिसे अजित पवार ने 5 जुलाई को ब्योरेवार रखा।

शरद पवार की सबसे पड़ी कमजोरी है अपनी बात से मुकरना, वे जो अपनी बात कहते हैं उस पर कभी भी कायम नहीं रहे। खुद को गुगलीबाज कहने वाले शरद पवार आज खुद गुगली में फंसकर छटपटा रहे हैं। शरद पवार बीसीसीआई का अध्यक्ष बनने के बाद आईसीसी के भी अध्यक्ष रहे। उन्होंने यह पद 2010 से लेकर 2012 तक संभाला था। वे 2013-17 तक मुंबई  क्रिकेट असोसिएशन के भी अध्यक्ष रहे। लेकिन, शरद पवार की असली पहचान राजनीति से ही होती है।

अगर देखा जाए तो शरद पवार की राजनीति केवल तोड़फोड़ तक ही सीमित रही है। उन्होंने कभी साफ सुधरी राजनीति नहीं की। कहने का मतलब यह है कि शरद पवार ने अपनी पार्टी बनाने के बाद महाराष्ट्र से बाहर के राज्यों में उसे स्थापित नहीं कर पाए। इतना ही नहीं महाराष्ट्र में भी शरद पवार की पार्टी 100 के आंकड़े तक नहीं पहुंची। शरद ने राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से की थी। शरद पवार इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक की खिलाफत कर चुके है। और यही खिलाफ उन्हें अपनी पार्टी बनाने के लिए प्रेरित किया। लेकिन एनसीपी कामयाब पार्टी नहीं बन पाई।

शरद पवार जिस तरह से उद्धव ठाकरे की आलोचना की। उसका संज्ञान सभी के लिए सबब हो सकता है, क्योंकि शरद पवार ही वह व्यक्ति हैं जो शिवसेना को साम्प्रदायिक दल बता चुके हैं ,मगर 2019 में शिवसेना के साथ गठबंधन कर माविआ सरकार बनाई। लेकिन जब शरद पवार यह कहते हैं कि 2014, 2017 और 2019 में बीजेपी से सरकार बनाने के लिए बात हुई थी , लेकिन विचारधारा की वजह से साथ नहीं गए। यहां सवाल यही है कि जब बीजेपी के साथ जाना ही नहीं था तो फिर उससे बातचीत क्यों ? यही बात अजित पवार ने भी शरद पवार से पूछा था कि जब कांग्रेस और शिवसेना के साथ एनसीपी सरकार बना सकती है तो बीजेपी के साथ जाने में क्या ऐतराज है। शरद पवार इसका भी जवाब देते है तो कहते हैं कि बीजेपी अपने सहयोगी पार्टी को खत्म कर देती है। लेकिन, क्या शिवसेना खत्म हुई, बीजेपी के साथ जाने वाली पार्टियां अपने दम पर कुछ करती नहीं है। यह अक्सर देखा गया। उन्हें अपना विकास करने से क्या कोई रखा है।

अगर अविभाजित शिवसेना की बात करें तो 1972 से चुनाव लड़ने वाली शिवसेना मराठा समाज की सबसे बड़ी परोपकार बताती रही है। लेकिन चुनाव में सैकड़े के आंकड़े को कभी भी नहीं छू पाई। 1972 में शिवसेना ने 26 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें से एक उम्मीदवार जीत दर्ज किया था। 1978 में 35 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। मगर 1990 सहित तीन विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने 60 के आसपास सीटें जीती। लेकिन 2014 में जहां 44 सीटें जीती तो 2019 में 56 सीटों पर कब्जा जमाया है। पर अब शिवसेना दो हिस्सों में बंट गई है।

बहरहाल, अगर बारीकी से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि शरद पवार कांग्रेस से अलग होने वाले अकेले शख्स नहीं है। कांग्रेस से अलग होकर 65 बार नेताओं ने अलग पार्टी बनाई है। लेकिन इसमें दो ही नेता सबसे कामयाब नजर आते हैं। जिसमें ममता बनर्जी और जगमोहन रेड्डी शामिल हैं। दोनों नेता आज अपने अपने राज्यों में बहुमत की सरकार के साथ बने हुए है। बंगाल में ममता बनर्जी अपने दम पर एक मजबूत नेता बनी हुई है। और पीएम बनने का सपना देख रही हैं। वे लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री है।

सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें स्पष्ट जनादेश मिला हुआ है। लेकिन शरद पवार को कभी भी स्पष्ट बहुमत के तौर पर महाराष्ट्र की जनता ने नहीं चुना। इसी तरह, आंध्र प्रदेश के नेता जगमोहन रेड्डी को भी स्पष्ट बहुमत मिला हुआ है। कहा जा सकता है कि दोनों नेता अपने अपने राज्यों में एक चेहरा के तौर पर स्थापित हो चुके है। मगर शरद पवार न कभी महाराष्ट्र का चेहरा बन पाए ,न ही एक बड़े नेता के तौर पर उभर पाए। शरद पवार इसमें से दोनों नहीं बन पाए, तो कहा जा सकता है कि शरद पवार हालात के थपेड़ों से निकले एक मात्र सियासी नेता है। जो हवा का रुख भांप कर मुड़ जाते हैं। लेकिन उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती है। ऐसे में सवाल यही है कि सियासी थपेड़े से निकले शरद पवार को क्या “चाणक्य” कहना कितना उचित होगा। क्योंकि वर्तमान में शरद पवार अपनी गुगली में उलझे हुए हैं, जहां से उनका निकलना मुश्किल है।

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