प्रशांत कारुलकर
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। 15 फ़रवरी को दिए गए इस फैसले में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया। इस योजना को लेकर शुरू से ही सवाल खड़े थे और कई विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों ने इसे चुनौती दी थी।
आइए समझते हैं कि कोर्ट ने किन कारणों से इस योजना को असंवैधानिक माना और क्यों था ये फैसला इतना अहम:
पारदर्शिता का अभाव: चुनावी बांड योजना के तहत व्यक्ति या कंपनियां गुमनाम तरीके से किसी भी राजनीतिक दल को दान दे सकती थीं। दानदाताओं के नाम का खुलासा नहीं होता था, जिससे यह आशंका जताई जा रही थी कि इसका इस्तेमाल काला धन को चुनाव में लाने के लिए किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि यह गुमनामी सूचना के अधिकार का हनन करती है और चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए जरूरी है कि दानदाताओं का नाम सार्वजनिक हो।
समान चुनाव का उल्लंघन: अदालत ने माना कि बड़े उद्योगपतियों और कंपनियों को गुमनाम तरीके से असीमित दान देने की अनुमति देना छोटे दलों और स्वतंत्र उम्मीदवारों के लिए असमानता पैदा करता है। इससे बड़े दलों और सत्ताधारी पार्टियों का दबदबा बढ़ सकता है और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का सिद्धांत प्रभावित होता है।
सत्ता और पैसा का गठजोड़: यह भी आशंका जताई जा रही थी कि चुनावी बांड योजना से सत्ता और पैसे का गठजोड़ और मजबूत होगा। दानदाता दान देकर सरकार से अनुचित लाभ पाने की कोशिश कर सकते हैं। अदालत ने कहा कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होने चाहिए और इसमें पैसा हावी नहीं होना चाहिए।
सुधार की उम्मीद: इस फैसले से चुनाव सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इससे उम्मीद है कि अब राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा अधिक पारदर्शी होगा और चुनाव प्रक्रिया में काले धन का इस्तेमाल कम होगा। साथ ही, छोटे दलों और स्वतंत्र उम्मीदवारों के लिए चुनाव लड़ना आसान हो सकता है।
हालांकि, यह फैसला विभिन्न राजनीतिक दलों और समाज के एक वर्ग द्वारा अलग-अलग तरीकों से देखा जा सकता है। लेकिन इतना तय है कि चुनावी बांड योजना को खत्म करने का यह फैसला भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
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