उद्धव ठाकरे ने बुधवार को फेसबुक के जरिये अपने बागी विधायकों से भावुक अपील की थी। उन्होंने कहा था कि अगर उनके विधायक कहेंगे तो वह सीएम पद से इस्तीफा दे देंगे। और उसी तरह पीठ दिखाते हुए वर्षा छोड़कर मातोश्री चले गए। कोई गर्जना नहीं हुई वर्षा से, शिवसैनिकों के विचारों को झकझोरा नहीं गया। यहां कोई आदेश भी नहीं दिए गए. एक लीडरशिप की तरह।बस सीएम की कुर्सी से चिपके रहने की रणनीति दिखी। शिवसैनिकों पर केवल इमोशनल अत्याचार हुआ।
केवल बात कही गई हिंदुत्व और शिवसेना की. जो धरातल से परे है। सीएम उद्धव ठाकरे कई बातें कहे जो शिव सैनिकों के सिर के ऊपर से निकल गई। ढाई सालों में उद्धव ठाकरे न मुख्यमंत्री दिखे और न ही शिवसैनिक। केवल खुद को मंचों से शिवसैनिक घोषित करते रहे। जबकि संजय राउत पानी पी पीकर बीजेपी को गालियां बकते रहे। ढाई सालों में शिवसेना ने बस यही किया है। सरकार और शिवसेना के तौर पर इस सरकार की कोई उपलब्धियां नहीं रही। विवाद ज्यादा रहे। जैसा सीएम ठाकरे ने कोरोना का उदाहरण देकर खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश की। लेकिन जिस तरह कोरोना काल में महाराष्ट्र की गति हुई ,वह किसी से छुपी नहीं है।
सचिन वाजे को लेकर अपनी इमेज खो चुकी शिवसेना और सरकार ने बार-बार गलतियां की। अनिल देशमुख के मुद्दे पर घिरती रही। जिससे शिवसेना की साख पर सवाल खड़े होने लगे थे। शिवसेना ने इन ढाई सालों में कहीं खो गई। वही बात हुई न काम के न काज के दुश्मन अनाज के। इस बीच शिवसेना अपने घर में घिरती रही। जिसका जीता जगता उदाहरण राज ठाकरे और उनकी मनसे है। महीने भर पहले शिवसेना के खाली जगह को भरने का काम मनसे ने किया।
और हिंदुत्व की आवाज बनी। यही वजह रही कि उद्धव ठाकरे को औरंगाबाद और मुंबई में सार्वजानिक मंच पर आकर कहना पड़ा कि बाला साहेब ठाकरे जैसे कंबल लेने से कोई बाला साहेब नहीं बन जाएगा। इशारा राज ठाकरे की ओर था।
ढाई साल में महाराष्ट्र में शिवसेना दिखी की नहीं। इस सवाल पर सही जवाब नहीं मिलेगा ? अगर कोई जवाब देगा तो कहेगा, नहीं। क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो केवल भाषणों में । हिंदुत्व की अलख जगाने वाली बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना इन ढाई सालों में भीगी बिल्ली बनी रही। क्या बाला साहेब ठाकरे होते तो बीजेपी के साथ 25 साल पुराना नाता तोड़ते। क्या कांग्रेस और एनसीपी के साथ जाते। अजान और लाउडस्पीकर पर संजय राउत और उद्धव ठाकरे के विचार से सहमत होते? जिस पर दोनों नेताओं ने केवल बीजेपी को कोसा और बेवजह का मुद्दा बताया।
क्या बाला साहेब होते तो नूपुर शर्मा के बयान से किनारा करते ? शायद ही ऐसा करते। क्योंकि हिंदुत्व पर बाला साहेब ठाकरे की अपनी अलग ही राय थी। लेकिन वर्तमान में उद्धव ठाकरे की शिवसेना, बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना से अलग है। वह उग्रता नहीं है। वह एग्रेसिवपन नहीं है, जो बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना में थी। नवनीत राणा के हनुमान चालीसा विवाद से शिवसेना बच सकती थी, लेकिन उद्धव ठाकरे ने इस विवाद को हवा देते रहे। जिसका नतीजा सबके सामने है।
उद्धव ठाकरे ने अपने फेसबुकिया सम्बोधन में कहा कि शिवसेना और हिंदुत्व एक सिक्के के दो पहलू है। क्या मुख्यमंत्री जी आपने सही कहा ? यह आप सरकार से बाहर होते तो ऐसा नहीं करते। लेकिन सत्ता सुख की वजह से आप और शिवसेना के विचारों से समझौता कर लिया है। एक समय था जब शिवसेना ही हिंदुत्व थी और हिंदुत्व शिवसेना। लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज आपको यह कहने की जरूरत ही नहीं होती कि शिवसेना और हिंदुत्व एक सिक्के के दो पहलू हैं।
लीडरशिप पर भी उद्धव ठाकरे नाकाम रहे. सरकार में इसकी बानगी देखने को मिली है। ढाई साल में कौन सरकार का लीडर है। यह साफ़ नहीं हुआ। एक तरफ शरद पवार थे तो दूसरी तरफ राज्य के मंत्री। अगर कोई निर्णय लिया जाता तो पहले संबंधित मंत्री उसकी जानकारी देता। बाद में संबंधित मंत्री कहता कि इसके बारे में मुख्यमंत्री जी विस्तार से बताएँगे. क्यों? पहले मुख्यमंत्री क्यों नहीं?
कहा जाता है कि जब बाबरी मस्जिद गिरी थी तो कोर्ट के एक आदेश के बारे में बाला साहेब से सवाल किया गया। जिसका उन्होंने जवाब दिया था कि मै कोर्ट को नहीं मानता। और कोर्ट ने यह भी कहा था कि यहां निर्माण नहीं होना चाहिए, हमने निर्माण नहीं विनाश किया। ये थे बाला साहेब। बुलंद आवाज, बुलंद काज. बाला साहेब ने कहा था मै ही शिवसेना हूं। लेकिन, क्या उद्धव ठाकरे ऐसा कह पाएंगे।
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