पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हुए आठ दिन बीत चुके हैं। मतदान के नतीजे भी घोषित कर दिए गए हैं। बावजूद इसके जारी हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। हिंसा में अभी तक 50 लोगों की जान गई है, इनमें सर्वाधिक टीएमसी के 30 कार्यकर्ता हैं और जबकि भाजपा के सात कार्यकर्ताओं की जान गई है। राज्य में तृणमूल कांग्रेस का शासन है और ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में उनकी ही पार्टी के इतने कार्यकर्ताओं की मौत पर कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। बंगाल में जिस तरह के दृश्य दिखे, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अपराध-अपराधियों के खिलाफ उनकी जीरो टोलरेंस की नीति बरबस ध्यान आकर्षित कर रही है। योगी की प्रशासकीय दक्षता पर बहस हो रही है। बंगाल की हिंसा के बहाने सोशल मीडिया पर बतौर मुख्यमत्री योगी को याद किया जा रहा है। और यह स्वाभाविक भी है।
तमंचा, पिस्टलों से हमले, बमबाजी, आगजनी, सड़क जाम करना, भीड़ की तरफ से लोगों को पीटा जाना, घरों पर भीड़ के हमले और बूथों की लूट सचमुच परेशान करने वाले रहे। पंचायत चुनाव में खराब कानून व्यवस्था, प्रशासकीय नाकामियों की वजह से करीब 50 से ज्यादा लोगों के मारे जाने की खबरें आई हैं। कई लोग घायल है जिसमें तमाम गंभीर रूप से जख्मी बताए जा रहे हैं। लाखों की संपत्ति को दंगाइयों ने आग के हवाले कर दिया। गरीब लोगों के आशियाने को जला दिए गए। सरेआम अराजकता का तांडव ऐसा था कि अभी भी गांवों में डर का माहौल है। लोग इस घटना की वजह से दहशत में हैं।
अब इससे भी बड़ी विडम्बना क्या होगी, जो ममता बनर्जी कभी स्वयं राजनीतिक हिंसा से पीड़ित थीं, हिंसा के सैलाब को पार कर बंगाल शेरनी कहलायी थीं, वही आज इस प्रचण्ड हिंसा की वजह मानी जा रही हैं। इन सबके दरम्यान मौजूदा सवाल है कि आखिर क्यों मुख्यमंत्री ममता का पश्चिम बंगाल बार-बार राजनीतिक हिंसा की आग में जलने लगता है? यहाँ की कानून-व्यवस्था किस हाल में है?
सोचनेवाली बात यह है कि आखिर क्यों लोक सभा से लेकर ग्राम सभा तक का हर चुनाव, यहां मानव रक्त में नहाया हुआ है? आखिर लोकतंत्र के नाम पर पश्चिम बंगाल की प्रायोजित हिंसा, आखिर कब और कैसे समाप्त होगी? 10 करोड़ की आबादी वाले बंगाल में, 5 करोड़ से ज्यादा मतदाता वाले ग्राम पंचायत की 63 हजार 22 सौ 9, जिला परिषद की 928 व पंचायत समिति की 9 हजार 7 सौ 30 सीटों समेत कुल 61 हजार 636 पोलिंग स्टेशन पर चुनाव हुए हैं। राज्य चुनाव आयोग की मांग पर शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए केंद्र से पर्याप्त मात्रा में सुरक्षा बलों को भी समय से भेजा गया था। राज्य के पास अपना ‘पुलिस बल’ तो पहले से ही मौजूद था।
बावजूद इसके आखिर क्यों बंगाल की भूमि खून से लाल हुई? पंचायत चुनाव में हुई ये 50 हत्याएं बंगाल में लोकतंत्र के खतरे में होने का संकेत नहीं बल्कि लोकतंत्र की हत्या की चीख पुकार हैं। ‘ममता सरकार’ की कठोरता से बंगाल के दामन पर लगे ये खून के धब्बे भला कैसे धुलेंगे? हालांकि कुछ राजनीतिक चिंतक जो मुख्यमंत्री ममता के बचाव में कह रहे हैं उनका कहना है कि बंगाल राज्य बहुत बड़ा है, हर जगह पुलिस नहीं लगाई जा सकती है। उनका मानना है कि बे-वजह मामले को तूल दिया जा रहा है।
हालांकि यदि उनकी बात को मान भी लिया जाए तो सोचनेवाली बात है कि देश का सबसे बड़ा राज्य तो उत्तर प्रदेश है। यहां वर्ष 2021 में हुए पंचायत चुनाव में 12 करोड़ से अधिक मतदाता और 02 लाख से अधिक पोलिंग स्टेशन थे। लेकिन पूरा चुनाव बगैर बूथ कैप्चरिंग के ही सम्पन्न हो गया था। यहाँ सारे फैसले बैलेट से हुए लेकिन यहाँ हिंसा करने की हिमाकत और हिम्मत किसी ने नहीं दिखाई।
यही नहीं अभी हाल में नगर निकाय चुनाव में महापौर की 17, निगम पार्षद की 1420, नगर पालिका परिषद अध्यक्ष की 199, सदस्य की 5327, नगर पंचायत अध्यक्ष की 544 और सदस्य की 7177 सीटों पर यहां चुनाव सम्पन्न हुए, लेकिन एक भी सीट पर हिंसा की मामूली घटना भी सुनने या देखने को नहीं मिली। बंगाल से ढाई गुना अधिक आबादी वाले योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश में हिंसा मुक्त चुनाव होता है। और मुख्यमंत्री ममता का बंगाल राजनीतिक हिंसा से बार-बार दहक जाता है। देखा जाएं तो अराजकता और हिंसा के अंधकार में घिरी ममता सरकार के लिए ‘योगी मॉडल’ प्रकाश की प्रेरणा के समान ही है।
इतना कुछ सुनने और देखने के बाद एक ही सवाल जहन में आता है कि बंगाल में इतनी हिंसा क्यों होती है? दरअसल बंगाल में उद्योग-धंधे लगातार कम हो रहे हैं जिससे रोजगार के अवसर सिमट रहे हैं। जबकि दूसरी और जनसंख्या बढ़ रही है। खेती से बहुत फायदा नहीं हो रहा है। जबरदस्त बेरोजगारी की वजह से युवा सत्ताधारी दलों पर निर्भर हैं। ऐसी स्थिति में बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टी से जुड़ते हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों का ठेका मिल सके। स्थानीय स्तर पर होने वाली ‘वसूली’ भी उनके लिए कमाई का जरिया है। वे चाहते हैं कि उनके करीबी उम्मीदवार किसी भी कीमत पर जीत जाएं। इसके लिए अगर हिंसक रास्ता अपनाना पड़े, तो अपनाते हैं। चुनाव के मौके पर सत्ताधारी दल अपनी इसी ‘फोर्स’ का इस्तेमाल जीत हासिल करने के लिए करते हैं।
हालांकि अब प्रश्न यह है कि इसका समाधान क्या है? पता हो कि वर्ष 2017 के पहले उत्तर प्रदेश भी अराजकता, हिंसा और भ्रष्टाचार का केंद्र था। लेकिन साल 2017 के बाद से योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश सुरक्षा, सुविधा, स्वरोजगार, संभावना और उद्यमिता के शक्तिशाली केंद्र के रूप में देश में स्थापित हुआ है।
वैसे तो सीएम योगी आदित्यनाथ की चर्चा भारत के अलग अलग राज्यों में होती ही रहती है, लेकिन अब उनकी चर्चा विदेश में भी होने लगी है। इसका सबसे उत्तम उदाहरण है अभी हाल ही में फ्रांस में हुई हिंसा के बाद योगी आदित्यनाथ के मॉडल को लाने की मांग उठ रही थी। फ्रांस में एसा इसलिए हो रहा था क्योंकी फ्रांस में भड़की हिंसा के बाद वहां के लोगों को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मॉडल याद आने लगा। फ्रांस के लोग हिंसा के बीच योगी मॉडल की बात करने लगे, इतना ही नहीं लोग भारत से मांग कर रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ को फ्रांस में भेज दिया जाए। ताकि दंगों को शांत किया जा सके।
खैर, पश्चिम बंगाल में जिस तरह लोकतंत्र लहूलुहान हो रहा है और विपक्ष के बड़े नेता जैसे राहुल गांधी, अखिलेश यादव, मायावती चुप्पी साधे बैठे हैं, तो ऐसा समर्थन और विरोध लोकतंत्र के हित में कतई नहीं है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिंसा के मामले में जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम करते हैं। इसलिए आज यूपी शांतप्रिय प्रदेश है। यूपी से नजरें फेरने वाले उद्योगपति भी यहां उद्योग लगाने को बेताब हैं। जाहिर सी बात है इससे रोजगार के लाखों अवसर का निर्माण होंगा और करोड़ों युवाओं को काम मिलेगा।
बहरहाल, योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश की चुनावी संस्कृति जहां शांति व सौहार्द के रंगों से रंगी है वहीं ममता की कमजोर कार्यपण्राली की वजह से बंगाल के चुनावों में खूनी खेल आम बात हो गई है। पच्चीस करोड़ उत्तर प्रदेश चुनावों को लोकतंत्र के उत्सव के तौर पर मनाते हैं, वहीं 10 करोड़ आबादी वाले बंगाल में हिंसा का तांडव मचा हुआ है। ऐसे में लहुलूहान बंगाल के लिए योगी का शांतिप्रिय यूपी नजीर है। कहने से कोई हर्ज नहीं कि ममता दीदी को हिंसा पसंद है तो योगी आदित्यनाथ को शांति।
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