नया साल आते ही संकल्पों पर बहस शुरू हो जाती है। कुछ लोग मानते हैं कि न्यू ईयर रेज़ोल्यूशन बनाना बेकार है, लेकिन न्यूरोसाइंटिस्ट इससे इत्तेफाक नहीं रखते। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्ट प्रोफेसर राइट के मुताबिक, नए साल के संकल्प हमारे दिमाग की उस खास क्षमता को सक्रिय करते हैं, जिसमें हम अपने ही सोचने के तरीके पर विचार कर पाते हैं।
यही आत्मचिंतन हमें यह समझने में मदद करता है कि हम सही लक्ष्य चुन रहे हैं या नहीं और उन्हें हासिल करने का तरीका कितना प्रभावी है।
न्यूरोसाइंस बताता है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए केवल आदतों, भावनाओं या त्वरित प्रतिक्रियाओं पर निर्भर रहना काफी नहीं होता। योजना बनाना जरूरी है। जैसे शतरंज या किसी भी रणनीतिक खेल में आगे की चाल सोचे बिना जीत संभव नहीं, वैसे ही जीवन में भी भविष्य की संभावनाओं को देखकर निर्णय लेना जरूरी है। इंसानी दिमाग कई संभावित रास्तों के बारे में सोचकर बेहतर विकल्प चुनने में सक्षम होता है।
हालांकि, दिमाग सीमित ऊर्जा पर काम करता है, इसलिए वह कुछ “शॉर्टकट” अपनाता है। इन्हीं में से एक है “चंकिंग” यानी बड़े लक्ष्य को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना। उदाहरण के तौर पर, गाड़ी चलाना सीखते समय शुरुआत में हर क्रिया पर ध्यान देना पड़ता है, लेकिन अभ्यास के साथ यह स्वाभाविक हो जाता है। यही सिद्धांत नए साल के संकल्पों पर भी लागू होता है। अगर लक्ष्य बहुत बड़ा है, जैसे नई भाषा सीखना, तो उसे छोटे चरणों में बांटना जरूरी है।
दिमाग का एक और तरीका है संभावित विकल्पों की सीमित सूची बनाना। कई बार हम रोजमर्रा की आदतों में उलझकर नए विकल्पों के बारे में सोच ही नहीं पाते। ऐसे में रुककर, खुद से या किसी भरोसेमंद व्यक्ति के साथ चर्चा कर नए रास्तों पर विचार करना फायदेमंद होता है।
न्यूरोसाइंटिस्ट यह भी कहते हैं कि लक्ष्य बदलना या किसी लक्ष्य को छोड़ देना असफलता नहीं है। कई बार परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालना ही सफलता की कुंजी होता है। शोध बताते हैं कि जो लोग समय पर लक्ष्य बदलने या छोड़ने का साहस रखते हैं, वे अधिक संतुष्ट, कम तनावग्रस्त और मानसिक रूप से ज्यादा स्वस्थ रहते हैं।
अंत में सलाह यही है कि नए साल का संकल्प जिद नहीं, लचीलापन सिखाए। रास्ते में असफलताएं आएंगी, लेकिन खुद से सही सवाल पूछकर और रणनीति में बदलाव कर संकल्पों को पूरे साल जीवित रखा जा सकता है।
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