कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कर्नाटक के कोलार में 13 अप्रैल 2019 को चुनावी रैली में कहा था, ”नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी का सरनेम कॉमन क्यों है? सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है?” सूरत कोर्ट ने मानहानि मामले में गुरुवार को राहुल गांधी को दोषी करार देते हुए 2 साल की सजा सुनाई थी। राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद थे। वहीं अब इस फैसले के बाद लोकसभा सचिवालय ने राहुल गांधी की संसद की सदस्यता को रद्द कर दिया है।
बात 2013 की है। सुप्रीम कोर्ट ने लोक-प्रतिनिधि अधिनियम 1951 को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। कोर्ट ने इस अधिनियम की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार दे दिया था। इस प्रावधान के मुताबिक, आपराधिक मामले में (दो साल या उससे ज्यादा सजा के प्रावधान वाली धाराओं के तहत) दोषी करार किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को उस सूरत में अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था, अगर उसकी ओर से ऊपरी न्यायालय में अपील दायर कर दी गई हो। यानी धारा 8(4) दोषी सांसद, विधायक को अदालत के निर्णय के खिलाफ अपील लंबित होने के दौरान पद पर बने रहने की छूट प्रदान करती थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से किसी भी कोर्ट में दोषी ठहराए जाते ही नेता की विधायकी-सासंदी चली जाती है। इसके साथ ही अगले छह साल के लिए वह व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाता है। सदस्यता तुरंत खत्म होने के फैसले को पलटने के लिए मनमोहन सिंह सरकार एक अध्यादेश लेकर आई। इसी अध्यादेश को राहुल ने फाड़ने की बात की थी।
हालांकि यही अध्यादेश अगर पास हो गया होता तो राहुल की लोकसभा सदस्यता नहीं जाती। यही अध्यादेश अगर पास हो गया होता तो सपा विधायक आजम खान, अब्दुला आजम से लेकर भाजपा विधायक विक्रम सैनी तक की सदस्यता बरकरार रहती।
इस मामले को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी ने कहा था, ‘हमें राजनीतिक कारणों की वजह से इसे (अध्यादेश) लाने की जरूरत है। हर कोई यही करता है। कांग्रेस, बीजेपी, जनता दल सभी यही करते हैं, लेकिन ये सब अब बंद होना चाहिए। अगर हम इस देश में भ्रष्टाचार से लड़ना चाहते हैं, तो हम सभी को ऐसे छोटे समझौते बंद करने पड़ेंगे।
कांग्रेस की ओर से जब ये प्रेस कॉन्फ्रेंस की गई थी, उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका के दौरे पर थे। इस घटना के बाद राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर अपना पक्ष रखा था। बाद में अक्टूबर महीने में तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस अध्यादेश को वापस ले लिया था।
हालांकि वकील लिली थॉमस और एनजीओ लोक प्रहरी के सचिव लखनऊ के वकील सत्य नारायण शुक्ला ने सुप्रीम कोर्ट में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को चुनौती दी थी। ये धारा सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराए जाने, निर्वाचित सदस्यों की सदस्यता जाने से इस आधार पर बचाता था कि सजा के खिलाफ उनकी अपील ऊपरी अदालतों में लंबित है। इस केस को लिल थॉमस केस के नाम से जाना जाता है।
10 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। जस्टिस ए. के. पटनायक और जस्टिस एस. जे. मुखोपाध्याय की बेंच ने जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 8 (4) को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अगर सांसदों और विधायकों को किसी भी आपराधिक मामले में 2 साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो उसकी सदस्यता तक्काल प्रभाव से खत्म हो जाएगी। सजा पूरी होने के बाद अगले 6 साल तक वह चुनाव भी नहीं लड़ सकेंगे। इतना ही नहीं, जेल में रहते हुए किसी सजा पानेवाले नेता को वोट देने का अधिकार नहीं होगा। वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे।
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