प्राचीन कथा के अनुसार, हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद को भगवान विष्णु की भक्ति के कारण मारने की कोशिश की थी। उसकी बहन होलिका, जिसे आग से न जलने का वरदान था, प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठी। लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद बच गए और होलिका भस्म हो गई। इसी घटना की याद में होलिका दहन मनाया जाता है।
फालैन गांव के बाहर स्थित प्रहलाद मंदिर यहां होलिका दहन के आयोजन को बहुत खास बनाते हैं। होलिका दहन के दिन फालैन में गोबर के कंडों (उपलों) का एक विशाल ढेर बनाया जाता है, जिसे “उपले का पहाड़” भी कह सकते हैं। इस ढेर में आग लगाई जाती है, जो रात भर धधकती रहती है। होलिका दहन के बाद पुजारी जलती आग के बीच से गुजरता है और उसे कुछ भी नहीं होता। पुजारी का कहना है कि इस दौरान उन्हें ऐसा लगता है जैसे स्वयं प्रहलाद जी उनके साथ खड़े हों।
प्रहलाद मंदिर के पुजारी के परिवार कई सौ सालों से चली आ रही इस परंपरा का हिस्सा हैं। वे होलिका दहन से पहले 40-45 दिनों तक कठोर ब्रह्मचर्य व्रत और नियमों का पालन करते हैं। उनकी आस्था और तप के बाद यह माना जाता है कि अब अग्निदेव उनके शरीर को स्पर्श नहीं कर सकते हैं। होलिका दहन की तड़के सुबह वे कुंड में स्नान करते हैं और इस दौरान उनके शरीर पर सिर्फ एक पीला गमछा होता है। फिर वह उपले के पहाड़ के बीच धधकती आग के बीच से निकल जाते हैं। आश्चर्यजनक रूप से एक चिंगारी भी उन्हें छू नहीं पाती।
मंदिर के पास स्थित कुंड इस परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऐसा माना जाता है कि इस कुंड से प्रहलाद जी की मूर्ति और माला प्रकट हुई थी। होलिका दहन के दिन पुजारी इस माला को पहनकर आग के बीच से गुजरता है और सकुशल बाहर आ जाता है। यह मंदिर और कुंड गांव वालों के लिए श्रद्धा का केंद्र है।
इस तरह फालैन में होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि आस्था और चमत्कार का संगम है। प्रहलाद मंदिर और पुजारी की यह परंपरा इसे देशभर में अनोखा बनाती है। गांव वाले इस चमत्कार को देखने के लिए उत्साहित रहते हैं और इसे प्रहलाद की भक्ति और भगवान की कृपा का प्रतीक मानते हैं। यहां की होली न केवल रंगों से सराबोर होती है, बल्कि आस्था की उस अग्नि से भी प्रकाशित होती है, जो भक्त प्रहलाद की भक्ति की कहानी को जीवित रखती है।
UP: होली के त्योहार को लेकर इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया ने जुमे की नमाज का समय बदला!