मुंबई। मुन्ना, बबलू, बाबू, पप्पू, छोटू आदि वे कॉमन घरेलू नाम हैं, जिनसे मारे लाड़-प्यार के नन्हें बच्चों को संबोधित किया जाता है, फिर चाहे उनका वास्तविक नाम कुछ भी हो। महाराष्ट्र के नंदूरबार के रहने वाले एक किसान का ऐसा ही नन्हा बाबू एंसेफेलॉसेस नामक गंभीर बीमारी से पीड़ित हो जिंदगी और मौत से जूझ रहा था। वहां के डॉक्टर उसका मर्ज ही नहीं पकड़ पाए थे। सो, उनके कहने पर बाबू को मुंबई लाया गया, जहां उसे जीवनदान मिला।
डॉक्टर नहीं पकड़ पाए मर्ज: यह खुशकिस्मत बाबू है नंदूरबार के सुरेश कुटा पवार नामक किसान का। उसे यह जीवनदान दिया है मुंबई स्थित छोटे बच्चों के जेरबाई वाड़िया अस्पताल के सीनियर न्यूरोसर्जन डॉ. चंद्रशेखर देवपुजारी ने। सुरेश कुटा पवार बताते हैं कि कुछ दिनों पहले इस नन्हें बच्चे की नाक व आँख के बीच वाले हिस्से में अचानक सूजन आना शुरू हो गई, जिससे उसे दूध पीने और सांस लेने में दिक्कत होने लगी। लिहाजा,घर वालों ने उसे इलाज के लिए स्थानीय अस्पताल ले जाकर दिखाया। बावजूद इसके बच्चे की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, क्योंकि वहां के डॉक्टर उसका मर्ज पकड़ ही नहीं पाए थे। तब उन्हीं डॉक्टरों की सलाह पर उसे मुंबई लाकर जेरबाई वाड़िया अस्पताल में भर्ती कराया गया। अस्पताल के सीनियर न्यूरोसर्जन डॉ. चंद्रशेखर देवपुजारी ने बाबू की जांच करते ही झट उसकी बीमारी पकड़ ली और बताया कि वह एंसेफेलॉसेस से पीड़ित है।
8 घंटे की कड़ी मशक्कत: लिहाजा, डॉ. चंद्रशेखर देवपुजारी ने बाबू की जान बचाने के लिए कोरोना संबंधी सभी नियमों का पालन करते हुए उसका ब्रेन का ऑपरेशन करने का फैसला किया और क्रैनियोटॉमी प्रणाली के जरिए 8 घंटे की कड़ी मशक्कत से यह सफल ऑपरेशन कर दिखाया। ऑपरेशन की कामयाबी के बावजूद खतरा अब भी टला नहीं था। सो, बच्चे को 2 दिन आईसीसीयू में रखा गया, फिर खतरे से बाहर आते ही जनरल वार्ड में ट्रांसफर कर दिया गया। डॉ. चंद्रशेखर देवपुजारी का कहना है कि एंसेफेलॉसेस बीमारी का अगर समय पर इलाज न किया गया होता, तो सक्रमण के पूरे शरीर में फैलने का खतरा था। उन्होंने यह भी बताया कि यह बीमारी फॉलिक एसिड की कमी से अथवा अनुवांशिक हुआ करती है। जन्मजात होने वाली इस बीमारी से 10 हजार में से एक बच्चा पीड़ित होता है।