दो दिन पहले (10 जुलाई) सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम युवक की अपनी तलाक़ शुदा बीवी को गुजारा भत्ता देने के खिलाफ याचिका पर सुनवाई की। इस सुनवाई में सर्वोच्च न्यायलय ने साफ़ लफ्जों में महिला के अधिकार को किसी भी धार्मिक कानून से बढ़कर मानते हुए और साथ ही महिलाओं को समाज में समानता और अधिकार को सुनिश्चित करते हुए गुजारा भत्ता लागू करने का आदेश दिया।
दरअसल इस निर्णय के दौरान याचिकाकर्ता के वकील ने CRPC के सेक्शन को नजरअंदाज कर मुस्लिम समाज के लिए बनाए स्पेशल कानून मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स एंड डायवोर्स) एक्ट 1986 को आधारभूत मान कर कोर्ट से निर्णय की मांग की थी। इस बात को नज़रअन्दाज करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने महिला किसी भी धर्म से हो पर कानूनन उसे गुजारा भत्ता मिलने का अधिकार है इस CRPC सेक्शन 125 की बात को ग्राह्य रखते हुए निर्णय लिया था।
अब इस निर्णय के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को चुनौती देने की तैयारी में जुट गई है। AIMPLB की लॉ कमेटी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का बारीकी से अभ्यास करने में लगी है। इस निर्णय से मुस्लिम समाज और पर्सनल लॉ बोर्ड में माहौल चिंताजनक है। इसलिए AIMPLB ने रविवार के दिन इस विषय पर चर्चा करने और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर अगले कदमों की समीक्षा करने के लिए मीटिंग रखी है।
AIMPLB के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय शरिया कानून के खिलाफ है। शरिया कानून के मुताबिक किसी भी मुस्लिम महिला को इद्दत यानि तलाक के दरम्यान ही गुजारा भत्ता दिया जाना चाहिए। अर्थात तलाक के बाद मुस्लिम महिला गुजारे भत्ते की अपेक्षा नहीं कर सकती। इद्दत के बाद तलाकशुदा महिला स्वतंत्रता से रह सकती या किसी और से शादी भी कर सकती है।
AIMPLB के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फरंगी ने इस समानता को बढ़ावा देने वाले निर्णय पर चिंता करते हुए कहा की, “’हमारी कानूनी समिति आदेश की गहन समीक्षा करेगी| संविधान के अनुसार प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन जीने का अधिकार है। ये कानून मुसलमानों जैसे व्यक्तिगत कानूनों वाले समुदायों के लिए उनके दैनिक जीवन का मार्गदर्शन करते हैं, जिसमें विवाह और तलाक जैसे मामले भी शामिल हैं।”
अपनी बात को जोर देते हुए उन्होंने प्रश्न किया है की, “जब कोई रिश्ता ही नहीं तो गुजारा भत्ता क्यों दिया जाए? किसी व्यक्ति को किसी ऐसे व्यक्ति के लिए किस हैसियत से जिम्मेदार होना चाहिए जिसके साथ उसका अब वैवाहिक बंधन नहीं है?”
ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड शाइस्ता अंबर ने इस विषय में अपनी विचार रखी है, उन्होंने कहा है,“यह आदेश धार्मिक सिद्धांतों और मानवीय विचारों के बीच संतुलन को उजागर करता है, जो समकालीन समाज में व्यक्तिगत कानूनों की व्याख्या और अनुप्रयोग पर सवाल उठाता है।” मैंने महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी है, और वे जीवन भर भरण-पोषण की हकदार हैं, तीन महीने और 10 दिन की अवधि के बाद कोई भी उनसे मुंह नहीं मोड़ सकता।”
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