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हिंदी अब अनिवार्य नहीं, वैकल्पिक होगी: महाराष्ट्र सरकार ने घुटने टेके, विरोध के बाद बदला फैसला

सरकार ने यह छूट दी है कि छात्र तीसरी भाषा के रूप में अपनी पसंद की कोई भी भाषा चुन सकते हैं, बशर्ते शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।

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महाराष्ट्र में स्कूलों में हिंदी भाषा को पहली से पाँचवीं कक्षा तक अनिवार्य बनाने के प्रस्ताव पर मचा बवाल आखिरकार सरकार को बैकफुट पर ले आया। मंगलवार (22 अप्रैल) को शिक्षा मंत्री दादाजी भुसे ने स्पष्ट किया कि अब हिंदी को अनिवार्य नहीं, बल्कि वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाया जाएगा।

मंत्रालय में पत्रकारों के तीखे सवालों के बीच भुसे ने माना कि इस मुद्दे पर करीब डेढ़ घंटे लंबी चर्चा हुई, और उसके बाद ‘अनिवार्य’ शब्द को सरकार के प्रस्ताव से हटा दिया गया है। उन्होंने कहा, “राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत केंद्र सरकार ने किसी भी भाषा को अनिवार्य नहीं किया है। हिंदी एक विकल्प है, कोई मजबूरी नहीं। हम सरकार का जीआर (शासन निर्णय) संशोधित करेंगे।”

हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पहली कक्षा से पढ़ाने के फैसले ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में खलबली मचा दी थी। कई संगठनों और नेताओं ने इसे “केंद्र सरकार का हिंदी थोपने का एजेंडा” करार दिया। इस फैसले पर न केवल विपक्ष, बल्कि सत्ताधारी दलों के कुछ सहयोगियों ने भी आपत्ति जताई थी।

भुसे ने हालांकि हिंदी की उपयोगिता और प्रासंगिकता पर ज़ोर देते हुए कहा कि हिंदी और मराठी दोनों देवनागरी लिपि का उपयोग करती हैं, जिससे छात्रों को सीखने में सहूलियत होती है। “हिंदी पहले से ही पांचवीं कक्षा से पढ़ाई जाती है। इसे पहली कक्षा से जोड़ने का विचार केवल सीखने को आसान बनाने के उद्देश्य से था,” उन्होंने कहा।

अब सरकार ने यह छूट दी है कि छात्र तीसरी भाषा के रूप में अपनी पसंद की कोई भी भाषा चुन सकते हैं, बशर्ते शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। यह बदलाव न केवल एक नीतिगत यू-टर्न है, बल्कि यह दर्शाता है कि जनभावना के दबाव और सांस्कृतिक विविधता के सम्मान को नजरअंदाज करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि संशोधित शासन निर्णय कब आता है और सरकार इस नाज़ुक भाषायी संतुलन को किस तरह संभालती है। फिलहाल इतना तय है—हिंदी अब छात्रों के सिर पर अनिवार्यता की तलवार नहीं, बल्कि विकल्प की तरह होगी।

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