राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उठाए गए संवैधानिक सवालों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार(20 नवंबर) को एक महत्पूर्ण स्पष्टिकरण दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि बिलों की मंजूरी के लिए राष्ट्रपति या राज्यपालों पर किसी भी तरह की समयसीमा थोपना असंवैधानिक है। पांच जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपालों की कार्रवाई न्यायिक समीक्षा के दायरे में तभी आती है जब कोई बिल कानून बन जाए।
फैसला तमिलनाडु के मामले की पृष्ठभूमि में आया है, जिसमें दो-जनपदीय पीठ ने राज्यपाल पर बिल मंजूरी का समय सीमा निर्धारित कर दी थी। इसके बाद राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से औपचारिक राय मांगी थी।
राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि क्या अदालतें अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के लिए समयसीमा तय कर सकती हैं? क्या राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 201 के तहत लिया गया निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में आएगा? क्या राज्यपाल हर स्थिति में मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं? उन्होंने अनुच्छेद 361 का भी हवाला दिया था, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को कानूनी जवाबदेही से छूट दी गई है।
संविधान पीठ ने कहा कि समयसीमा थोपना संविधान द्वारा दी गई लचीलापन और विवेकाधिकार की भावना के खिलाफ है। मुख्य न्यायाधीश सीजेआई बी.आर. गवई ने इस पीठ की अध्यक्षता की, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर भी शामिल थे। अदालत ने दो-जनपदीय पीठ के उस तर्क को भी खारिज किया, जिसमें कहा गया था कि निर्धारित समय सीमा खत्म होने पर बिल को “स्वतः स्वीकृत” माना जाएगा। संविधान पीठ ने कहा, “’मान्य सहमति’ की अवधारणा न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के अधिकारों का अधिग्रहण है, जो संविधान के ढांचे के विपरीत है।”
8 अप्रैल को जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने डीएमके सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि राज्यपाल आर.एन. रवि ने बिलों को अनिश्चितकाल तक रोके रखा। अदालत ने अपने विशेष अधिकार (अनुच्छेद 142) का उपयोग करते हुए 10 बिलों को ‘स्वतः स्वीकृत’ घोषित कर दिया था। उस फैसले में अदालत ने कहा था कि राज्यपाल को लोकतांत्रिक परंपराओं और जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए कार्य करना चाहिए।
लेकिन इस फैसले को कुछ नेताओं ने न्यायिक अतिक्रमण (judicial overreach) बताया, जिसके बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी।
अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 इस तरह बनाए गए हैं कि वे राष्ट्रपति और राज्यपालों को विभिन्न परिस्थितियों में विवेक का इस्तेमाल करने की अनुमति देते हैं। अदालत ने लिखा, “समयसीमा लगाना इस संवैधानिक लचीलापन के पूरी तरह विपरीत है।” अदालत ने यह भी कहा कि judicial review संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है, लेकिन यह समीक्षा “असीमित नहीं हो सकती” और शक्तियों के अलगाव के सिद्धांत को नहीं तोड़ सकती।
हालांकि अदालत ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी जोड़ते हुए कहा,“राज्यपाल की कार्रवाई पर समीक्षा नहीं हो सकती, लेकिन लंबे समय तक अनिर्णय, अनुचित देरी या अस्पष्ट निष्क्रियता निश्चित रूप से न्यायिक हस्तक्षेप को आमंत्रित कर सकती है।” अदालत ने कहा कि संविधान की कार्यप्रणाली आपसी सहयोग पर आधारित है और हर अंग एक दूसरे पर निर्भर है।
यह फैसला केंद्र के लिए एक बड़ी संस्थागत जीत माना जा रहा है, क्योंकि इसमें अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि न्यायपालिका राज्यपालों पर बाध्यकारी समयसीमा नहीं लगा सकती। साथ ही, राष्ट्रपति के विवेकाधिकार को भी न्यायिक दखल से सुरक्षित रखा गया है।
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