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Saturday, September 21, 2024
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कुर्तक के ‘बादशाह’ अजित और शरद पवार?   

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एनसीपी नेता अजित पवार द्वारा संभाजी महाराज पर दी गई विवादित टिप्पणी पर घमासान मचा हुआ है। अजित पवार ने संभाजी महाराज को धर्मवीर मानने से इंकार कर दिया है। उनका कहना है कि संभाजी महाराज स्वराज रक्षक थे, उन्हें धर्मवीर नहीं कहा जा सकता है। बुधवार को अजित पवार ने इस संबंध में सफाई भी दी। उन्होंने आधे घंटे तक की प्रेस परिषद में बोलते रहे , लेकिन यहां वे क्या बोलना चाहते थे, यह साफ़ नहीं हो सका। उन्होंने संभाजी महाराज के लिए शुरू की गई योजनाओं के बारे में बताया, मगर उन्होंने धर्मवीर के विवादित मुद्दे पर कुछ नहीं बोला। उन्होंने बस इतना ही कहा कि उन्होंने कोई भी विवादित बयान नहीं दिया। यानी वे अपने बयान पर कायम हैं।

उन्होंने पूछा कि बीजेपी उनका इस्तीफा कैसे मांग सकती है। बीजेपी ने मुझे विपक्ष का नेता नहीं बनाई है। मुझे महाविकास अघाड़ी के विधायकों ने विपक्ष का नेता चुना है। अब सवाल यह उठता है कि तब महाविकास आघाडी कैसे राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का इस्तीफा मांग सकती है। क्या महाविकास अघाड़ी ने भगत सिंह कोश्यारी को राज्यपाल बनाई है। बड़ी अजीब बात है कि अजित पवार अपने ही बुने जाल में फंस गए हैं। साफ़ है कि अजित पवार भी दुविधा में हैं, और वे दोगली राजनीति कर रहे हैं। जिसको जनता अच्छी तरह से समझती है।

बहरहाल, यहां सभी को समझने की जरुरत है कि अभी तक कांग्रेस से अलग हुए नेता दुविधा में ही नजर आये हैं। ये नेता कभी भी अपनी भूमिका को साफ़ नहीं कर पाए। वे कभी भी तय नहीं कर पाए कि उन्हें क्या करना है? वे क्या कहना हैं। ऐसा ही कांग्रेस के नेताओं के साथ भी देखा गया है। कांग्रेस के नेता भी हमेशा उलझन में रहते हैं। उन्हें यह समझ में नहीं आता है कि आखिर हमें क्या बोलना है,किसका विरोध करना है ,वे पूरी तरह से दुविधा में रहते हैं।

हालांकि, कांग्रेस से अलग होने वाले नेताओं की लिस्ट लंबी है, यहां उनका नाम दे पाना मुश्किल है लेकिन कुछ प्रमुख नेताओं के बारे में बात की जा सकती है। जिसमें शरद पवार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चौधरी चरण सिंह आदि शामिल है। यहां इन नेताओं के बारे में इसलिए उल्लेख किया जा रहा है कि ये नेता कांग्रेस से अलग तो हुए ही, अपनी पार्टी भी बनाई। लेकिन, उनकी पार्टी राज्य से बाहर निकलकर विस्तार नहीं कर पाई। इसके जो भी कारण हो? ये विमर्श करने का विषय हो सकता है। मेरा मानना है कि इसके पीछे इन पार्टियों का उद्देश्य साफ नहीं होना है। ममता बनर्जी भी जय श्री राम का नारा लगाने पर नाराज हो जाती है। उन्हें हिन्दुओं से नफ़रत है। यह उन्होंने दिखाया भी है। नवीन पटनायक की पार्टी वाम विचारों की है।

इसी तरह, शरद पवार भी कांग्रेस की तरह दो तरफा राजनीति करते रहे हैं। कभी इधर तो कभी उधर. उन पर आँख बंद कर विश्वास नहीं किया जा सकता है। आप सोच सकते हैं कि मुंबई के दादर में बने वीर सावरकर स्मारक का उद्घाटन शरद पवार ही ने किया था, उस समय शरद पवार मुख़्यमंत्री थे। लेकिन, आज उसी वीर सावरकर को राहुल गांधी अंग्रेजों का एजेंट बताते है और शरद पवार और अजित पवार आंख कान बंद कर देख सुन लेते हैं। अब अजित पावर संभाजी महाराज को धर्मवीर मानने से इंकार कर रहे हैं।

क्या अजित पवार को हिन्दू धर्म से नफरत है जो संभाजी महाराज को धर्मवीर मानने से इंकार कर रहे हैं। आखिर क्यों लोग शरद पवार पर विश्वास करे। क्या महाराष्ट्र की जनता इतनी नादान है कि शरद पवार के बातों में आ जायेगी। शरद पवार सोनिया गांधी को विदेशी मूल का मुद्दा बनाकर उन्हें पीएम नहीं बनने दिया। बाद में शरद पवार ने कांग्रेस से हाथ मिलाकर महाराष्ट्र में सत्ता हथिया ली थी।

आखिर,इस दावपेंच में जनता ही छली गई। शरद पवार विदेशी मूल का मुद्दा उठाया और बन गए मुख्यमंत्री। आखिर इससे जनता का क्या फ़ायदा हुआ ? बल्कि शरद पवार के दोनों हाथ में ही लड्डू थे। आज भी शरद पवार और उनकी पार्टी जनता की नादानी का फ़ायदा उठाने की जुगत में है। जब अजित पवार ने संभाजी महाराज पर गलत टिप्पणी की तो शरद पवार ने सफाई दी। उन्होंने कहा कि कोई संभाजी महाराज को स्वराज रक्षक कह सकता है तो कोई धर्मवीर कहता है। दोनों उपाधियां एक दूसरे की विरोधी नहीं है।

शरद पवार यहां अजित पवार को गलत ठहराने के बजाय गोलमोल जवाब देकर बच निकले।उउन्हें धार्मिक नजरिये से धर्मवीर कहते है तो इसमें किसी को एतराज करने वाली कोई बात ही नहीं है। शरद पवार ने मामला को रफा दफा करने के गरज ऐसा बयान दिया। लेकिन शरद पवार जैसे कई नेताओं ने सिर्फ बातों से जनता को छला है। उनका भला नहीं किया।

शरद पवार हमेशा से दोगली राजनीति की है और उसका फायदा केवल सत्ता हथियाने में किया है। 2019 में जब शिवसेना बीजेपी से अलग हो गई थी। उस समय भी शरद पवार ने ही खेल खेला था। उन्हीं के अनुसार, उन्होंने अजित पवार को बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के लिये भेजा था। बाद में पलट गए और शिवसेना कांग्रेस के साथ बैटिंग करने के लिए तैयार हो गए। उसके बाद राज्य में एक माह राजनीति का तांडव चलता रहा और फिर महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी। जहां विचारों का कोई लेना देना नहीं था।

आज भी विचार को ताख पर रख दिया गया है और ठाकरे गुट की शिवसेना संभाजी महाराज को धर्मवीर नहीं मानने पर ताली बजा रही है। दो दोस्तों देखना होगा कि महाविकास अघाड़ी के नेता जनता को कब तक गुमराह करते हैं और उनकी झूठ की दूकान कब तक चली है।
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