पीएम मोदी का विरोध करने के लिए विपक्ष खासकर कांग्रेस कोई न कोई मुद्दा ढूढ़ती रहती है। सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस का मुद्दा बेसिर पैर का होता है। जो उसके स्वार्थ से जुड़ा होता है। वर्तमान में नई संसद के उद्घाटन को लेकर महाभारत मचा हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर पीएम मोदी क्यों नहीं नई संसद का उद्घाटन कर सकते हैं? शुक्रवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने नई संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से कराने वाली याचिका को खारिज कर दिया। इतना ही नहीं कोर्ट ने याचिकाकर्ता को कड़ी फटकार भी लगाई। याचिका में पीएम मोदी द्वारा नए संसद का उद्घाटन किये जाने का विरोध किया गया था। वहीं, इस उद्घाटन में 25 दल ऐसे हैं जो शामिल होंगे। जिनमें सात ऐसे दल हैं जो गैर एनडीए हैं। ऐसे में यह समझना जरुरी है कि आखिर ये सात दल कांग्रेस के साथ जाने के बजाय बीजेपी के साथ क्यों गए। तो आइये समझते पूरी गणित।
पहले हम उस प्रश्न से आगे बढ़ते हैं। जो विपक्ष का मुख्य मुद्दा है, कि नरेंद्र मोदी नई संसद का उद्घाटन न करें। तो सबसे बड़ी बात यह कि नई संसद का पीएम मोदी उद्घाटन कर अजर अमर हो जाएंगे। शिलान्यास से लेकर उद्घाटन तक पर पीएम मोदी का नाम है। नई संसद दो साल में बनकर तैयार हुई। जब तक यह संसद रहेगी तब तक पीएम नरेंद्र मोदी का नाम यहां स्थित उद्घाटन शिला पर लिखा रहेगा। इतना ही नहीं, जब इतिहास लिखा जाएगा तो पीएम मोदी की इस उपलब्धि को भी बखूबी याद किया जाएगा। इसी बात को कांग्रेस पचा नहीं पा रही है। इसलिए वह माथा धुन रही है, अपना सिर फोड़ रही है। वहीं, कांग्रेस के नेता आज भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर पीएम मोदी को देश की जनता हाथों हाथ लेती है विदेश में भी उनकी खूब चर्चा है।
हर जगह उनकी जय जयकार हो रहा है। पीएम मोदी ऐसा कौन सा जादू चलाते हैं कि पूरी दुनिया “वाह मोदी! वाह मोदी” कर रही है। कांग्रेस के नेताओं को इस बात का दर्द है कि हमने सत्तर सालों से ज्यादा समय तक देश पर राज किया, लेकिन आज तक कोई हमारा पैर नहीं छुआ, लेकिन पीएम मोदी का पापुआ न्यू गिनी के राष्ट्रपति जेम्स मरापे ने पैर कैसे छू लिया। गांधी परिवार इस चिंता में है कि आखिर जिस नाम को लेकर आज तक राजनीति की रोटियां सेंकी है। जनता को गुमराह करते रहे, गरीबी गरीबी का रोना रोया। अब उस नाम को जनता ने पूरी तरह से नकार दिया है। कांग्रेस का दर्द यही है कि जिसके खिलाफ हमने जी जान से जुटकर राजनीति की वही नरेंद्र मोदी विश्व पटल पर छाए हुए है।
एक तरह से कहा जा सकता है कि कांग्रेस या अन्य दल सिर्फ अपनी नाक बचाने के लिए पीएम मोदी का विरोध कर रहे हैं। ममता बनर्जी को इस बात की खुन्नस है कि कैसे वह विश्वभर में उनकी चर्चा हो रही है। ममता बनर्जी को भी पीएम बनना है, लेकिन उन्होंने सिर्फ वोट की राजनीति की है। ममता बनर्जी हो या कांग्रेस ये केवल वोट की राजनीति की. वे देश के विकास के लिए राजनीति नहीं की। आज पीएम मोदी का विरोध करने वाले राजनीति दल केवल वोट बचाने के लिए राजनीति कर रहे हैं। देश या समाज के लिए विरोध नहीं कर रहें। नई संसद के विरोध में प्रकाश आंबेडकर का बयान खासा मायने रखता है। जो यह दर्शाता है कि विपक्ष किस कदर से पीएम मोदी से नफ़रत करता है।
हालांकि, प्रकाश आंबेडकर पहले ऐसे नेता नहीं हैं जो पीएम मोदी से नफ़रत करते हैं। गिनती कम पड़ जाएगी लेकिन पीएम मोदी से नफ़रत करने वालों की कमी नहीं होगी। गुरुवार को बाबा साहेब आम्बेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर ने कहा कि बीजेपी की सत्ता जाने पर हम नई संसद में पीएम मोदी के नाम की लगी नेम प्लेट को उखाड़कर फेंक देंगे। दोबारा इस भवन का उद्घाटन कराएंगे। आप सोच सकते हैं कि एक देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ लोगों में कितनी नफरत भरी है। जिसे जनता ने सिर माथे पर रखकर भारी बहुमत दी है। उस नेता के खिलाफ ऐसे नेता जहर उगल रहें हैं जिनका न तो जनाधार है और न ही जनता से कोई सरोकार है। वे हाशिये पर है और अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं।
अब बात उन सात दलों की जो नई संसद के उद्घाटन समारोह में शामिल होंगे। वैसे तो केंद्र सरकार ने सभी राजनीति दलों को इस समारोह में शामिल होने के लिए न्योता भेजा है। जिसमें से 21 राजनीति दल नई संसद का पीएम मोदी द्वारा उद्घाटन किये जाने का विरोध कर रहे हैं। जबकि 25 दल ऐसे हैं जो केंद्र सरकार के न्योता को मंजूर कर इस समारोह में शामिल होंगे। इनमें से सात ऐसे दल है जो बीजेपी समर्थित एनडीए से जुड़े नहीं हैं। लेकिन इस ऐतिहासिक समारोह के मेहमान बनेंगे। ऐसे में यह जानना जरुरी हो जाता है कि वे कौन कौन से दल हैं।
तो पहला मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी ,दूसरा नवीन पटनायक की बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल, जनता दल सेक्युलर, लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास, वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी शामिल हैं। ये वे राजनीति दल है जिनका अपने क्षेत्रों में दबदबा है। बीजेपी के लिए राजनीति तौर पर सबसे बड़ी राहत है। वहीं 25 राजनीति दल जो नई संसद भवन के समारोह में शामिल होने के लिए हामी भरे है। उनके लोकसभा सदस्यों की संख्या तीन सौ छिहत्तर है। इसमें खुद बीजेपी भी शामिल है। जिसकी संख्या 303 है। जबकि बाकी तिहत्तर सांसद इन 24 पार्टियों के हैं। वहीं, केंद्र की समर्थन करने वाली 25 पार्टियों की राज्यसभा में 131 सदस्य हैं। इतना ही नहीं इन दलों की 18 राज्यों में सत्ता में भी है।
ऐसे में एक सवाल यह भी है आखिर ये सात पार्टियां बीजेपी के साथ क्यों आई। तो इसके भी गुणा गणित और अपने अपने समीकरण हैं। अगर हम बसपा यानी की बहुजन समाज पार्टी की बात करें तो, बसपा का वोट बैंक दलित माना जाता रहा है। बसपा के गठन से पहले दलितों का वोट कांग्रेस को जाता था। लेकिन बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद दलित वोट उसे चला गया। वर्तमान में यूपी में कांग्रेस और बसपा दोनों हाशिये पर है। यही वजह है कि मायावती नहीं चाहती है कि कांग्रेस के साथ खड़े होने पर उसका बचा खुचा वोट भी कांग्रेस की ओर खिसक जाए। जैसा की हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हुआ। यहां दलित वोट कांग्रेस को मिला जिससे कांग्रेस बड़ी जीत दर्ज की।
वहीं, नवीन पटनायक की बात करें तो उन्होंने ने भी हाल ही में जब विपक्ष को एकजुट करने के लिए उनसे नीतीश कुमार मिले थे तो उन्होंने कहा था कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर बनने वाले गठबंधन पर कोई बात नहीं हुई। कहा जाता है कि पटनायक पूरी तरह से केवल राज्य की राजनीति में ही ध्यान देते हैं। वहीं यही हाल, जगमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस का भी पूरा फोकस आंध्र प्रदेश पर ही है। जगमोहन भले बीजेपी समर्थित एनडीए का हिस्सा न हो लेकिन उन्हें मोदी समर्थक माना जाता है। जगमोहन रेड्डी कांग्रेस से ही अलग होकर अपनी पार्टी बनाई है।
चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी भी बीजेपी का समर्थन करती है। वर्तमान में चिराग पासवान नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव पर जोरदार हमला बोल रहे हैं। वहीं नीतीश घूम घूमकर लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष को एकजुट कर रहे हैं। उनकी भी पार्टी जेडीयू इस समारोह में शामिल नहीं होगी। माना जा रहा है कि चिराग पासवान 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का समर्थन करेंगे। वहीं तेलुगु देशम पार्टी चंद्रबाबू नायडू की पार्टी है। जो आजकल राजनीति परिदृश्य से गायब हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में नायडू ने पीएम मोदी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर रहे थे। तब से वे राजनीति से गायब है। अब मज़बूरी में बीजेपी का समर्थन कर रहे हैं।
वहीं, जेडीएस यानी जनता दल सेक्युलर की हाल ही में कर्नाटक में सबसे बुरी हार हुई है। कहा जा रहा है कि जेडीएस की वोट में सेंध लगाकर कांग्रेस बहुमत हासिल की है। सबसे बड़ी बात यह है कि जेडीएस और बीजेपी कर्नाटक में विपक्ष में होगी। इसलिए माना जा रहा है कि जेडीएस इसी वजह से बीजेपी के साथ आई है। बहरहाल, तो यह मान लिया जाए की लोकसभा चुनाव से पहले ये पार्टियां बीजेपी के साथ जाएंगी। क्या विपक्ष का दोफाड़ हो चुका है ? क्या नीतीश कुमार के विपक्ष के एकजुट करने की मुहिम को झटका लगा है ? अगर ऐसा है तो क्या यह मान लिया जाए की आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्ष एक बार फिर बेअसर होगा ?
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